आलेख : तमिलों की अलगाव ग्रंथि और जयललिता - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 26 मई 2015

आलेख : तमिलों की अलगाव ग्रंथि और जयललिता

तमिलनाडु में जयललिता ने पांचवीं बार पूरी हनक के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है। उन्होंने इस दौरान शुभ मुहूर्त का ख्याल रखने के लिए राष्ट्रगान को अपमानित करने में भी हिचक महसूस नहीं की लेकिन उनका कोई क्या बिगाड़ सकता है राजनीतिक स्वार्थ की वजह से उन्हें आय से अधिक संपत्ति के मामले में दोषमुक्त किए जाने के विवादित फैसले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनको बधाई देने की पहल की। देरसवेर मोदी का यह कदम उनकी एक बड़ी भूल साबित होगा। मोदी अपना नैतिक कद बढ़ाने पर बहुत ज्यादा जोर दे रहे हैं लेकिन उनकी इस कवायद को जयललिता को दी गई बधाई की वजह से दूरगामी धक्का लगना तय है।

राजनेताओं के भ्रष्टाचार के मामले तार्किक परिणति पर न पहुंचाने की वजह से कई मामलों में विश्व स्तर पर बेहतरीन प्रदर्शन के लिए सराहे जाने के बावजूद भारतीय न्याय पालिका की छवि को ग्रहण लग रहा है। यह अभी की बात नहीं है न ही एक राज्य की बात है। बोफोर्स तोप दलाली मामला तकनीकी तौर पर बहुत उलझा हुआ था जिसमें विदेशी की धरती से सबूत जुटाए जाने थे इसलिए इसमें राजनेता दंडित नहीं हो पाए तो कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहा राव चार सौ बीसी के मामले में बहुत मजबूत साक्ष्य होते हुए भी बरी हो जाने में सफल रहे। इसके बाद जयललिता, मुलायम सिंह, मायावती इत्यादि मुख्यमंत्री पद पर रहे नेता भी अंतिम परिणति में न्यायालय से बेदाग बच गए। लालू यादव को फिलहाल सजा जरूर हो गई है लेकिन यह सजा उच्चतम न्यायालय में अपील पहुंचने तक बरकरार रह जाएगी या नहीं इस पर संदेह है। दूसरी बात यह है कि लालू के खिलाफ काम इसलिए ज्यादा हुआ क्योंकि उन्होंने वर्ण व्यवस्था पर निर्णायक प्रहार करने की कोशिश की थी। वे मुलायम सिंह और मायावती की तरह वर्ण व्यवस्था विरोधी संघर्ष से लाभान्वित होकर उसी से समझौता करने वाले नेता की भूमिका चुनने को तैयार नहीं हुए थे। हालांकि आज लालू भी बहुत बदल चुके हैं। ज्योतिष और कर्मकांड पर उनका विश्वास यह जताता है कि वे भी कहीं न कहीं वर्ण व्यवस्था विरोधी संघर्ष में ढुलमुल पड़ चुके हैं।

बहरहाल न्याय पालिका सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में कम से कम लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच तो बहुत ज्यादा कारगर नहीं है। इस व्यवस्था में सर्वाधिक निर्णायक जनमत होता है जिसकी निगाह में आज भी आर्थिक वित्तीय रूप से ईमानदार होना बुनियादी नैतिकता में सर्वोपरि है। यूपी और बिहार तो बहुत बदनाम हो चुके हैं इसलिए यहां अगर भ्रष्ट नेता चुनाव में जनमत का प्रोत्साहन प्राप्त कर रहे हैं तो यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं है पर दक्षिणी राज्यों में जिनके बारे में उत्तर भारत में यह मिथक है कि वे लोग ज्यादा ईमानदार और सिद्धांतवादी होते हैं वहां भी किसी नेता की छवि पर भ्रष्टाचार के कलंक का कोई महत्व न होना चौंकाता है। तमिलनाडु में जयललिता और करुणानिधि दोनों में कौन बीस है यह चयन करना आसान नहीं है लेकिन इसके बावजूद जनमत की स्वीकार्यता इन्हीं दोनों के बीच है। जयललिता तासी भूमि घोटाले में न्यायालय से दोष सिद्ध हुईं लेकिन इसके बावजूद उन्हें राज्य की राजनीति में फिर शिखर पर स्थापित होने का मौका मिला। इसी तरह आय से अधिक संपत्ति के मामले में निचली अदालत से सजा मिलने के बाद भी उनकी लोकप्रियता में कोई दरार नहीं आई जिससे पता चलता है कि राज्य की जनता के लिए नेता के भ्रष्ट होने का कोई मायने नहीं है। आय से अधिक संपत्ति मामले में तकनीकी वजहों से अदालत को भले ही कोई फैसला करना पड़ा हो लेकिन सारा देश यह जानता है कि जयललिता इसमें कतई बेदाग नहीं हैं। भ्रष्टाचार की कई कलंक कथाएं उनसे जुड़ी हैं जिनका सहज में खंडन नहीं किया जा सकता।

अगर जनता जनार्दन लोकतंत्र में नेता के दौलतमंद होने और बाहुबली होने को उससे रीझने का सौंदर्य तत्व समझेगी तब तो एक नेक व्यवस्था कायम होने से रही। उत्तर प्रदेश और बिहार से लेकर तमिलनाडु तक की जनता का उल्टा रवैया एक विचित्र पहेली बन गया है जिसे बूझने की जरूरत है। यह समाज शास्त्री गुत्थी है अलबत्ता तमिलनाडु में जयललिता व करुणानिधि की अडिग स्वीकार्यता के पीछे कुछ और वजहें भी हो सकती हैं। अंग्रेजों ने साहित्य और आलेखों के माध्यम से ऐसा बीजारोपण किया जिससे महर्षि अगस्त द्वारा रोपी गई उत्तर दक्षिण की एकता छिन्नभिन्न हो गई और द्रविड़ बनाम आर्य संस्कृति का दुराग्रह फन उठाकर फुफकार करने लगा। आज भी यह सिलसिला जारी है जिसके कारण तमिलनाडु अलगाव की राह पर है। भले ही यह कुछ हद तक अव्यक्त और अचेतन हो। तमिलों को लगता है कि उत्तर के प्रभुत्व या साम्राज्यवाद से बचाव के लिए उसे हमेशा केेंद्र का प्रतिवाद करते रहना चाहिए। वैसे तो यह गं्रथि पूरे दक्षिण भारत में थी लेकिन नरसिंहा राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद अन्य दक्षिणी राज्यों में यह काफी हद तक डायल्यूट हो चुकी है लेकिन तमिलनाडु में अभी भी यह ग्रंथि बरकरार है। पहले करुणानिधि दबंगई से अलगाव का परचम लहराते थे तो तमिलनाडु में उन्हें जबरदस्त समर्थन प्राप्त था लेकिन संयुक्त मोर्चा वाममोर्चा के काल में उनका स्वभाव बदला और सार्वभौम राजनीतिक सिद्धांतों के आधार पर कार्य करने को प्रवृत्त होकर उन्होंने केेंद्र और उत्तर के अंधे विरोध की राजनीति छोड़ दी। इसका फायदा तमिलनाडु की नकचढ़ी नेता जयललिता ने उठाया। वे आज राष्ट्रीय संदर्भ में तमिल दबंगई की निद्र्वंद्व नेता हैं जिसकी वजह से अम्मा भ्रष्टाचार करें या दमन चक्र में सारी मर्यादाएं तोड़ दें पर वे तमिलनाडु में सर्वोच्च रहेंगी। शायद यही वजह है कि भ्रष्टाचार के मामले में न्यायालय से उन्हें सजा मिलने पर आम तमिलों को इतनी गहरी हताशा हुई थी कि वे अवसाद की स्थिति में पहुंच गए थे। आदमी मनोविज्ञान के कई स्तरों पर काम करता है। इसकी समझ समाजशास्त्रियों को होनी चाहिए। इन स्तरों की वजह से नैतिकता के मामले में भी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। मुझे लगता है कि अगर कभी तमिलनाडु का कोई नेता इस देश का प्रधानमंत्री बन जाए तो तमिलों की अलगाव की ग्रंथि का शमन हो जाएगा। राष्ट्रीय एकता और अखंडता के प्रति अपनी घनघोर शुभेच्छा के नाते मैं चाहूंगा कि ऐसा हो और जल्द हो।





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के  पी  सिंह 
ओरई

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