विधान परिषद में मनोनयन के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जो सूची भेजी थी उस पर राज्यपाल ने अपनी मंजूरी रोक ली है। उनका यह कदम चर्चा का विषय बना हुआ है। विधान परिषद में कला, संस्कृति, साहित्य आदि क्षेत्रों में विशेष योगदान देने वाली सामाजिक हस्तियों का मनोनयन होता है। पहले बहुत हद तक इस परंपरा का निर्वाह होता रहा लेकिन सपा और बसपा ने इस मामले में संविधान की मंशा को धता बताकर राजनीतिक लिहाज से सुविधाजनक लोगों का मनोनयन प्रदेश के उच्च सदन में कराने की परिपाटी बना ली। इस बार राज्यपाल राम नाइक की वजह से इसमें पेंच फंस गया है। राज्यपाल प्रदेश सरकार को संवैधानिक अंकुश का एहसास कराने का कोई मौका नहीं चूकते। यह दूसरी बात है कि खुद उनका भी संतुलन जब तब डगमगा जाता है। अयोध्या में मंदिर निर्माण के मामले में उन्होंने जो बयान जारी किया उस पर जबरदस्त आपत्तियां सामने आ गई थीं। केेंद्र सरकार ने भी उनके बयान पर धर्मसंकट महसूस किया था। इसी तरह नगर विकास मंत्री आजम खां के मामले में उनकी अति ने भी उनकी पद की गरिमा को पटरी से उतार दिया था।
बावजूद इसके प्रदेश सरकार कुल मिलाकर यह नहीं चाहती कि उसका राजभवन से टकराव हो। वैसे भी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इन दिनों विदेश दौरे पर हैं। इस कारण राज्य सरकार की ओर से राजभवन के कदम पर फिलहाल कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की गई है लेकिन अपमान के इस घूंट को समाजवादी पार्टी के लिए चुपचाप पी जाना भी दुश्कर है। इसे देखते हुए कुछ प्रेक्षक फिलहाल पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की खामोशी को तूफान पूर्व की शांति बता रहे हैं। हालांकि कुछ और पैने विश्लेषक बताते हैं कि पार्टी के राज परिवार का आंतरिक द्वंद्व भी इसकी एक वजह है जिसके कारण पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह तक ऊहापोह की स्थिति में फंसे हुए हैं।
पता यह चला है कि राज्यपाल ने जिस आधार पर मुख्यमंत्री की विधान परिषद में मनोनयन के लिए दी गई सूची को रोकने का काम किया है वह इटावा मूल के लखनऊ में रहने वाले एक पत्रकार द्वारा कानूनी प्रावधानों के साथ उनके सामने दर्ज कराई गई बारह पेज का शिकायतनामा है। इसमें उठाए गए बिंदु इतने तर्कसंगत हैं कि राज्यपाल ने यह पूछ लिया है कि नामों के साथ हरेक का प्रोफाइल नत्थी क्यों नहीं किया गया जिससे कि कला, साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र में उनके योगदान को स्पष्ट किया जाता। साथ ही उन्हें कुछ नामों के आपराधिक इतिहास पर भी आपत्ति है क्योंकि उच्च सदन में मनोनयन के लिए प्रस्तावित नाम गरिमामय होना अनिवार्य है।
इसमें चौंकाने वाली बात यह है कि उक्त शिकायत दाखिल करने वाला पत्रकार लोकनिर्माण मंत्री शिवपाल सिंह यादव का बेहद नजदीकी समझा जाता है। यह भी एक संयोग है कि प्रस्तावित नामों में जिन पर सबसे ज्यादा आपत्ति प्रदर्शित की गई है उनमें औरैया के मुलायम सिंह के पुराने साथी कमलेश पाठक हैं जिनसे शिवपाल सिंह का जब नेता जी पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तभी से छत्तीस का आंकड़ा है। इसे लेकर जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं। समाजवादी पार्टी के शिखर पुरुष मुलायम सिंह यादव की रीति नीति भी इन दिनों एक बड़ी पहेली बनी हुई है। एक ओर वे अपने पुत्र जो प्रदेश के मुख्यमंत्री के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं के इकबाल में कोई दरार देखना पसंद नहीं करते। दूसरी ओर यह भी है कि उन्होंने पार्टी के प्रदेश में जिलाध्यक्षों के साथ ऐसा समय बैठक करने के लिए चुना जब अखिलेश देश में नहीं हैं। इसमें उन्होंने जिलाध्यक्षों व शहर अध्यक्षों से अखिलेश की सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार को बेनकाब करवाया। निश्चित रूप से राष्ट्रीय अध्यक्ष का किसी प्रदेश के जिलाध्यक्षों के साथ प्रदेश अध्यक्ष की अनुपस्थिति में बैठक करना सामान्य नहीं माना जा सकता। कहीं न कहीं मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के बीच कोई न कोई समस्या जरूर है। मुलायम सिंह की मजबूरी यह है कि वे पुत्र मोह के कारण अखिलेश के ऐसे फैसलों के खिलाफ अपने मोर्चे पर डटे नहीं रह सकते जिन्हें लेकर अखिलेश भी इतने प्रतिबद्ध हों कि उनके रवैए से बगावत तक की बू आने लगे।
राजनीति को लेकर परिवार के फैसलों में कई बातें ऐसी हुई हैं जिनमें पिता पुत्र विपरीत ध्रुवों पर खड़े दिखाई दिए हैं। इनमें एक मुद्दा अमर सिंह की पार्टी में वापसी का भी है। अखिलेश इस समय सबसे ज्यादा विश्वास अपने चचेरे चाचा प्रो. रामगोपाल यादव पर कर रहे हैं और रामगोपाल यादव जनता दल परिवार का महाविलय नहीं चाहते थे तो मुलायम सिंह को भी अपने कदम वापस खींचने पड़े। इसी तरह वे नहीं चाहते कि अमर सिंह की किसी भी सूरत में पार्टी में वापसी हो। दूसरी ओर अमर सिंह की वापसी के लिए मुलायम सिंह को विश्वास में लेकर शिवपाल सिंह यादव इस हद तक आगे बढ़ चुके हैं कि यह उनके प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अमर सिंह की वापसी की भूमिका के बतौर शिवपाल सिंह की तरफ से जयाप्रदा का मनोनयन कलाकार कोटे से विधान परिषद में कराने की सारी तैयारी हो चुकी थी जिस पर अखिलेश ने पानी फेर दिया। राज्यपाल के द्वारा उक्त सूची की स्वीकृति पर लगाई गई रोक का संबंध राज परिवार की इस उठापटक से भी जोड़ा जा सकता है। बहरहाल अनुमान यह है कि पुत्र के आगे हथियार डालने की मजबूरी की वजह से समाजवादी पार्टी में प्रसारित हो रहे इस संदेश को बेअसर करने के लिए कि उनकी भूमिका अब केवल उत्सव मूर्ति तक रह गई है। उन्होंने अखिलेश की नामौजूदगी में जिलाध्यक्षों को टाइट करने की जरूरत समझी हो।
मुलायम सिंह के राजनीतिक कौशल का कोई जवाब नहीं है लेकिन इस बार उनके सामने अग्निपरीक्षा की स्थिति है। क्या वे परिवार के अंदर चल रही राजनीति में भी अपने कौशल की जादूगरी दिखा पाएंगे या फिर उनके संदर्भ में वे ही अर्जुन वे ही बान के हालात सामने आ जाएंगे। इस सवाल का जवाब अभी आने वाले वक्त के गर्भ में है।
के पी सिंह
ओरई
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