विशेष आलेख : होली मे मिलती हैं आपसी सदभाव की मिसालें - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

मंगलवार, 22 मार्च 2016

विशेष आलेख : होली मे मिलती हैं आपसी सदभाव की मिसालें

holi-social-unity
हमारे पास पांच हजार साल पुरानी विरासत के जीवंत पैटर्न एवं पद्धतियों के अनमोल एवं अपार भंडार हैं। 1400 बोलियों तथा औपचारिक रूप से मान्यरता प्राप्ता 18 भाषाएं हैं । विभिन्नं धर्मों, कला, वास्तुकला, साहित्य, संगीत और नृत्य की विभिन्न शैलियां हैं तो वहीं  विभिन्न जीवन शैलीयां भी हैं ।इसी लिये  प्रतिमानों के साथ  भारत विविधता में एकता के अखंडित स्वारूप वाले सबसे बड़े प्रजातंत्र का प्रतिनिधित्व् करता है।हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां पर मनाये जाने वाले सभी त्योहार समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम, एकता एवं सद्भावना को बढ़ाते हैं।इसी लिये कहा जाता है कि भारत में त्योहारों एवं उत्सवों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर सम्भाव से है। यहां मनाये जाने वाले सभी त्योहारों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को आगे बढ़ना होता है। राजनीतिक पटल पर भले ही देश मे भारत माता की जय पर जिरह होती हो,जय के आधार पर ही देशभक्त और देशद्रोही तय किए जातें हों।कथित जबरन धर्म परिवर्तन और धर्मांतरण के मुद्दे पर सड़क से लेकर संसद तक बवाल होता हो लेकिन बात जब त्योहारों एवं उत्सवों की आती है तो सभी धर्मों के लोग त्‍योहार आदर के साथ मिलजुल कर मनाते हैं।इस लिये देश के कई कोनों मे उत्सव धर्मों के उत्सव नहीं रह जाते बल्कि उत्सव अपने आप में एक ऐसे धर्म का रूप धर लेता है जिसमें सब सहभागी होते हैं।यही बात रंगों,उमंगों के त्यौहार होली पर भी लागू होती है।
                        
ऐतिहासिक दस्तावेजों मे तो इस बात के तमाम प्रमाण मिलतें हैं कि मुगलकाल या और पहले देश मे हर त्योंहारों की तरह होली भी हिंदू–मुसलमान मिलजुल कर मनाते थे ।आधुनिक भारत मे भी कई ऐसे इलाकें हैं जहां आज भी देश के राजनीतिक माहौल का विशेष प्रभाव नही पड़ता और त्योहारों पर मजहब की सीमाऐं टूट जाती हैं ।उत्तर प्रदेश के झांसी ,मुरादाबाद,आगरा जिलों के कुछ इलाकों के साथ राजस्थान और मध्य प्रदेश के कई इलाके हैं जहां आज भी सभी एक-दूसरे के पर्व को बड़े प्यार से मनाते है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है मुरादाबाद का बीरपुरबरियार गांव , जहां सैकड़ों वर्षों से आज भी सांप्रदायिक एकता की मिसाल कायम है।मेहमान नवाजी के लिए मशहूर इस गांव के मुसलमान  सदियों से होली खेलते आ रहे हैं। यहां का होली खेलने का अंदाज भी निराला है।जहां मुसलमान भी होली के रंग में रंग कर चौपाई खेलते हैं।यहां होली के दौरान हिंदू और मुस्लमानों के हर घर में रंगाई-पुताई जरूर होती है।इस गांव के लोग 21 वीं सदी मे भी अपने पुरखों की सदियों पुरानी परम्परा का निर्वाह करते आ रहे हैं।इसी तरह बुंदेलखंड के झांसी जिले में वीरा एक ऐसा गांव है, जहां होली के मौके पर हिंदू ही नहीं, मुसलमान भी खूशी मे गुलाल उड़ाते हैं। यहां हरसिद्धि देवी का मंदिर है ,बताया जाता है कि इस मंदिर मे जिसकी मनौती पूरी होती है वह होली के मौके पर गुलाल लेकर पहुंचते हैं बाद मे यही गुलाल उड़ाया जाता है।परम्परा के मुताबिक यहां फाग के गायन की शुरुआत मुस्लिम समाज का प्रतिनिधि ही करता आरहा है, उसके गायन के बाद ही गुलाल उड़ने का क्रम शुरू होता है।आगरा जिले कुछ गांवों मे भी इस तरह होली सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश देने वाली होती है।वीरों की शौर्यगाथाओं का गवाह रहने वाला राजस्थान मजहबी सदभाव की मिसाल के लिये भी जाना जाता है।राज्य के रेगिस्तानी इलाके के कोने मे आबाद गांवों मे तो चीता और मेहरात समुदाय के लोग सदियों से हिंदू और इस्लाम धर्म का ऐसा रूप अपनाए हुए हैं, जो बात-बात पर धर्म की दुहाई देने वालों को लिए अमन से रहने की सीख देता है। सही मायने में ये लोग पूरे इंसान हैं क्यों कि अगर मस्जिदों मे इनके हाथ दोआओं के लिये उठतें हैं तो मंदिरों मे उसी शिद्द से आरती भी करतें हैं ।तो ज़ाहिर है कि ये होली के रंगों मे सराबोर हुये बिना कैसे रह सकतें हैं ।ये अपनी आस्था और अपनी पहचान के मुताबिक  बसंत ऋतु का स्वागत  मस्ती भरे होली का पर्व मना कर करतें हैं ।
                         
इतिहास गवाह है कि समानता तथा मस्ती भरे होली के पर्व ने अन्य धर्मावलम्बियों को भी बेहद प्रभावित किया है। जिससे वे लोग भी इसके रंगों में रच गए। कुछ ने दूर से इसका आनन्द लिया तो कुछ इसकी फुहारों में कूदकर मस्ती के आलम में खो गए।इतिहास में अकबर की होली के अलबेले किस्से प्रचलित हैं। इतिहासकारों के मुताबिक मुगल काल में अकबर के शासन के समय होली ने राज्यमहल में प्रवेश किया और उसके बाद यदि औरंगजेब को अपवाद के रूप में छोड दें तो सम्पूर्ण मुगल शासनकाल में होली बडे उत्साह के साथ राज्य महलों में मनायी जाती रही।आगरा देखने वालों ने देखा होगा कि आगरा के लाल किले में जोधाबाई के महल के सामने पत्थर का एक अनूप कुण्ड है। बताया जाता है कि  होली के दिन इसी कुण्ड में रंग घोला जाता था और बादशाह अकबर अपने परिजनों वा महल के दूसरे लोगों के साथ होली खेलता था।इतिहासकारों की मानें तो जायकेदार मिठाइयां, खुशबूदार और वरकदार पान की गिलेरियां पेश करके आये हुए मेहमानों की जमकर खातिरदारी भी की जाती थी। होली की मुबारकवाद देने के लिए भी अकबर के महल में अमीर एवं गरीब लोगों का तांता लगा रहता था। तजुक ए जहाँगिरी मे जहाँगीर के समय मनाई जाने वाली होली का जिक्र मिलता है। शाहजहाँ भी होली की मस्ती में पूरी रुचि लेता और रंग और गुलाल के साथ पूरे उत्साह से उसमें भाग लेता। मुगल शासन काल के अन्तिम बादशाह, बहादुरशाह जफर शायर थे और होली के दीवाने भी। अंग्रेजों द्वारा डाली जाने वाली बाधाओं के बावजूद, बहादुरशाह जफर बडे उत्साह और आत्मीयता के साथ होली मनाते थे । होली के शौकीनों में अवघ के नवाब वाजिद अली शाह का नाम भी विशेष रूप से लिया जा सकत है।इतिहासकारों का दावा है किउनके जमाने मे भी होली शानोशौकत से मनाये जाने के प्रमाण मिलतें हैं । सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते थे।शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को रंगों की बौछार कहा जाता था। उर्दू साहित्य में फायज देहलवी, हातिम, मीर, कुली कुतुबशाह, महज़ूर, इंशा और तांबा जैसे कई नामी शायरों ने होली की मस्ती को अपनी शायरी में बहुत ख़ूबसूरती से पिरोया है। उर्दू के जाने माने शायर नज़ीर अकबराबादी की एक कविता, जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की। और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की, से ये सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि भारत मे त्योहारों पर मजहब की सीमाओं के टूटने की परम्परा बहुत पुरानी है ।यही नही होली खेलने के समान यानी पिचकारी, डोलची, गुलाल घोटा आदि के निर्माताओं में तो मुसलमानों की संख्या काफी अधिक है ही।इसके अलावा रामनामी चुनरी ,कलेवा,रंग और पूजा मे काम आने वाली बहुत सी सामग्री को मुस्‍लिम कारीगर ही बनाते हैं। अब हमारी जिम्मेादार है कि होली के इस स्वरूप को निरन्तर आगे बढाते रहें ताकि होली के प्रेम, मित्रा और आपसी सद्भाव वाला मूल स्वरूप  आँखों से ओझल न होने पाये ।कम से कम त्योहारों के मौकों पर तो जय के आधार पर देशभक्त और देशद्रोही तय करने वाली राजनीति मानवीय समानता से परास्त हो सके ।ये खुशनुमा पर्व मौका है जाने-अनजाने कर्मो के प्रदूषण से शुध्दिकरण के संकल्प लेने का ।
                   

live aaryaavart dot com

** शाहिद नकवी **

कोई टिप्पणी नहीं: