देश की प्रशासनिक आधार-शिला के स्तम्भ आई.ए.एस. और आई.पी.एस. अधिकारियों की कार्यशैली पर उन्हें स्वयं, राज्यों की सरकारों को और आम जनता को गम्भीरता पूर्वक बिचार करने का समय अब आ चुका है। गत माह सितम्बर 2016 मे भारतीय जनता पार्टी की भोपाल मे सम्पन्न हुई समन्वय बैठक मे राष्ट्रीय महासचिव एवं म.प्र. शासन के पूर्व केबिनेट मन्त्री कैलाश विजयवर्गीय ने यह आरोप लगाया था कि मध्य-प्रदेश मे राजतन्त्र पर ब्यूरोक्रेसी भारी है और सत्ताधारी पार्टी भाजपा के कार्य-कर्ता अपने आप को निरीह स्थिति मे अनुभव कर रहै हैं। दबी-कुची जुवान से अनेकों जन-नेता भी यह मानने लगे हैं कि नोकरशाही द्वारा कार्यकताओं की अवहेलना की जा रही है और प्रदेश मे बाबू-राज्य (आई.ए.एस. आॅफीसर्स को बाबू कहा जाता है) का वर्चस्व है। इसी कारण मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चैहान को लगा कि गुड गवर्नेन्स के नाम पर भोपाल मे कलेक्टर व कमिश्नरों की कान्फ्रेन्स मे यह मुद्दा रखा जाना चाहिये ?
हम कल्पना कर सकते हैं कि आई.ए.एस. या आई.पी.एस. की परीक्षा में उत्तीर्ण हुये युवक के हृदय में देश के प्रति यह भावना निर्मित होती होगी कि उसने अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर भारत की सर्वोच्च प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा उत्तीर्ण की है और उसके मजबूत कंधों पर भारत की भावी योजनायें व जनहित के कार्यों की जिम्मेदारी है, अतः इस देश की सेवा करना है और निष्पक्षता के साथ विवेकपूर्ण निर्णय लेते हुये जन-हित मे प्रशासनिक कार्य करना है। हम यह धारणा तो नहीं बना सकते कि इनके मन में तत्समय ऐसा भी बिचार आता होगा कि ‘अपने पद के माध्यम से हम व्यापार करने आये हैं, हमें कोई नेता या राजनीतिक दल अपना बना ले तो हम उसके ही बने रहने को तैयार हैं।’ इन अधिकारियों की कार्य-शैली और स्वभाव को देखते हुए इन्हें दो भागों में विभक्त कर सकते हैंः- एक वे अधिकारी हैं जो अपना ज़मीर एक निश्चित दायरे तक सुरक्षित रखना चाहते हैं, उनके खानदानी पारिवारिक संस्कार उन्हें किसी हद् तक निष्पक्ष कार्य करने की और गलत कार्य नहीं करने की प्रेरणा देते हैं। इन्हें एक सीमा तक कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार व राष्ट्रवादी-सोच के अधिकारी कहा जा सकता है और इनमें जनता व देश की सेवा करने की भावना के बीज अंकुरित होकर जीवित बना रहता है। कम से कम प्रधानमन्त्री मोदी को ऐसे ही प्रशासनिक अधिकारियों की आवश्यकता है और हम-जनता की भी यह जिम्मेदारी है कि ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों के नाम मोदी जी तक भेजें। परन्तु इन अधिकारियों भी यह भय रहता है कि महात्वपूर्ण पद या जिला के कलैक्टर, पुलिस आधीक्षक के पद से कहीं हटा न दिया जाये ? यहां मेरा कहना यह है कि यदि आप निष्पक्ष, ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ हैं तो हटाये जाने का यह डर क्यों ? कार्य के प्रति संवेदनशीलता, ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता यदि आपका गुंण है और आप युवा भी हैं, आपमें यदि अपनी प्रतिभा और योग्यता के बल पर समय के जीवित हस्ताक्षर बने रहने की चाह है, तो आपके अन्दर असुरक्षा की भावना क्यों पनपती है ? जहां जिस पद पर पदस्थ हैं, वही पद महात्वपूर्ण है। देश के एक प्रतिष्ठित नागरिक के रूप में अपने सिद्धान्तों के साथ समझौता नहीं करने का सोच बनाना चाहिये। जरूरत तो इस स्वभाव के अधिकारियों को संगठित होने की है। यद्यपि देश की नौकरशाही का इतना अधिक राजनीतिकरण हो चुका है कि राष्ट्रवादी-सोच के प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी अब अत्यन्त अल्पसंख्यक हैं।
दूसरे प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी ऐसे होते हैं जो उक्त से भिन्न सोच के होते हैं, इनका देश मे बाहुल्य है। ये अपनी पदस्थापना के माध्यम से धनार्जन का ध्येय मान बैठे हंै। इनका उद्देश्य प्राथमिकता के आधार पर नेताओं को खुश करना होता है, जिससे कि इनके कार्यकाल में बिघ्न-वाधा-कारक तत्व विकसित न हो पायें और ऐसे अधिकारी अपनी पदोन्नति की तरफ दूर-दृष्टि रखते हुए अपने पद को विलासिता व ‘एन्जाॅयमेन्ट’ का साधन भी मानते हैं, इस स्वभाव के अधिकारी अपने बंगले से आॅफिस और आॅफिस से बंगला तक की कार्य सीमा में अपनी नौकरी की पूर्णता मान लेते हैं, इनमे प्रशासनिक संवेदनशीलता का अभाव रहता है। किसी मंत्री के आगमन पर उसकी अगवानी में अपनी पूर्ण प्रशासनिक ताकत झोंक कर ये प्रशासनिक सफलता का प्रमाण-पत्र लेने की परम्परा बनाये हुये हैं। इसके अलावा विभिन्न समारोहों के उद्घाटन, स्वागत भाषण, अध्यक्ष, मुख्य अतिथि जैसे पदो को शोभायमान करते हुए वे स्वमेव गद्-गद् एवं पुलकित बने रहते हैं और आत्म-प्रशंसा के शौकीन होते हैं। ऐसे प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा सिर्फ अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से ही सूचनायें और कागजी जानकारियां हांसिल की जाती हैं और वे कागजी घोड़ों के सहारे ही अपने शासकीय कर्तव्य-पालन की दौड़ पूर्ण कर लेते हैं। ऐसे अधिकारी समस्याओं को अक्सर टालते रहने में विश्वास करते हैं, इनमे रिश्वतखोरी के बिरूद्ध कार्यवाही करने की इच्छा-शक्ति का अभाव रहता है, किसी उलझे विषय पर निर्णय लेने मे ये अक्षम होते हैं और अधीनस्थ अधिकारियों को जनता से सामना करने का दिशा-निर्देश देकर अपने कार्य की इतिश्री मान लेते हैं। ऐसे अधिकारियों को निजी स्वार्थ-वादी सोच के कह सकते हैं।
समय के बदलते क्रम मे आम जनता और राजनेताओं की नज़र में नौकरशाही की छबि अब धूमिल होती जा रही है। इनका साहबीपन, अंग्रेजियत-शैली, अपने को सर्वोच्च समझने का अहम्, जनता से सीधे रूबरू नहीं होने का दोष और अपने पद का व्यवसायीकरण करने की मानसिकता शनैः शनैः इनमे पनप रही है। इस सन्दर्भ मे चर्चा करेंगे तो ऐसे लोगों की एक लम्बी फेहरिश्त बन जायेगी। देश के बिभिन्न राज्यों मे यह अनुभव किया जाने लगा है कि प्रशानिक एवं पुलिस अधिकारी राजनेताओं की इच्छा-पूर्ति के टूल्स बनते जा रहै हैं और इसीलिये सिफारिश की बैसाखी के सहारे तन्त्र के दरवाजे पर पीड़ित अपनी राहत के लिये पहुंचता है। हम राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर यह अनुभव कर सकते हैं कि प्रशासकीय कार्यों एवं अपराधों के अनुसंधान में अवांछित राजनीतिक हस्तक्षेप एक आम बात हो गई है। परिणामतः वास्तविक अपराधी बच निकलते हैं। हम यह भूल गये हैं कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था के मूल स्वरूप में यदि शासकीय स्तर पर कोई अधिकारी गलत कार्य कर रहा हो, तो उसे जननेता उजागर करे, उस पर अंकुश लगावे। लेकिन तंत्र का चक्र उल्टा ही घूमने लगा है। लाभ लेने और देने का क्रम बनने लगा है। प्रश्न तो यह है कि प्रशासन की इस विकृत हो रही तस्वीर के लिये देश का सर्वाधिक बुद्धिमत्तायुक्त विवेकपूर्ण कहा जाने वाला आई.ए.एस./आई.पी.एस. वर्ग पर क्या कोई उत्तरदायित्व नहीं है ? प्रश्न यह भी है कि इस देश के एक कर्तव्यनिष्ठ नागरिक के रूप में ये स्वयं अपने उत्तरदायित्व का कितना निर्वाहन कर रहे हैं। समस्त जिम्मेदारी राजनेताओं और राजनीति पर थोपकर अपना पल्लू नहीं झाड़ा जा सकता।
चूंकि सकारात्मक सोच ही हमारी योजनाओं को फलीभूत करता है, इसी आशा के साथ अब समय आ चुका है कि ऐसे प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारी, जिनमें एक राष्ट्रभक्त, ईमानदार नागरिक होने और अपने पद के प्रति निष्ठा, देश के प्रति कर्तव्यपरायंणता, जन-सेवा की भावना, दुखी और पीड़ित की समस्या को शासकीय-तन्त्र के प्रथम दरवाजा पर ही निदान करने की प्रतिबद्धता के बीज यदि हृदय में जीवित बचे हैं, तो मेरा आव्हान है कि आप एक श्रंखला बनाकर संगठित हो जाईये। हिम्मत जुटाइये कि गलत कार्य को गलत ही कहेंगे और गलत नहीं करेंगे, चाहे सर्वोच्च शिखर पर बैठा राजनीति से प्रेरित अधिकारी ही क्यों न कहे। अपने ही जैसों से आपस में सम्पर्क बनाये रखिये, अपना एक पृथक सुनुयोजित संगठन बनाइये जिसका सदस्य सिर्फ उक्त गुणों, स्वभाव व आचरण का अधिकारी ही बन सकै। बर्तमान मे जो भी आई.ए.एस. आॅफीसर्स एसोसियेशन अस्तित्व मे हैं, वे अपने निजी-हित के सन्दर्भ में ही केन्द्रित हैं। संभवतः इनकी एसोसियेशन मे राष्ट्रभक्ति, जनसेवा, आॅनेस्टी व इन्टीग्रिटी जैसे विषयों पर कोई चर्चा व संवाद नही होते हैं और इसी कारण इनकी कार्य-शैली मे बिगाड़ आ रहा है। वस्तुतः संगठन का उद्देश्य सार्वभौमिक एवं स्वस्थ व्यवस्था हेतु होना चाहिये। देश-हित में समर्पित एक ऐसा संगठन का निर्माण होना चाहिये, जिसका सदस्य मात्र बनने पर आई.ए.एस./आई.पी.एस. अधिकारी स्वयं को गौरान्वित समझे, प्रारम्भ मे भले ही इनकी संख्या अत्यन्त अल्प होगी लेकिन बिचारों का प्रचार-प्रसार होने पर नव-चयनित युवा अधिकारियों को प्रोत्साहन तो मिलेगा, उन्हें एक प्लेटफाॅर्म तो मिलेगा, उनका नैतिक बल तो बड़ेगा। आम जनता का भी यह कर्तव्य है कि निष्ठावान और सक्रिय प्रशासनिक अधिकारियों को समाज का एक महात्वपूर्ण अंग समझते हुए उन्हें समय-समय पर उनके मनोबल को ऊंचा उठाने मे सहयोग करें, क्योंकि ऐसे अधिकारियों को आम जनता द्वारा ही जो इनाम दिया जाता है वह उनके जीवन की धरोहर होती है।
एक जन-सामान्य की मानसिकता यह होती है कि वह चुस्त-दुरूस्त प्रशासनिक व्यवस्थायें देखना पसन्द करता है, भले ही उसमें थोड़ी बहुत कठोरता ही क्यों न हो। व्यववहारिक रूप में प्रशासनिक कार्यशैली यदि व्यक्तिवादी नहीं हैं तथा प्रशासनिक व्यवस्था में भेद-भाव नहीं है और सबके साथ एक समान व्यवहार है तो ऐसी व्यवस्थायें प्रशंसनीय एवं सफल होती हैं जिन्हें जनता भी पसन्द करती है। प्रत्येक विभाग मे प्रत्येक स्तर पर प्रशासनिक व्यवस्थायें चुस्त-दुरूस्त एवं त्वरित कार्य करने की निर्मित होना चाहिये, भले ही उनमे कठोरता ध्वनित होती हो। समय के बदलते क्रम में आई.ए.एस. एवं आई.पी.एस. आॅफीसर्स की पदोन्नति, स्थानान्तरण, उनके कार्यों की गोपनीय रिपोर्ट, उनके आचरण, उनकी पदस्थापनायें हेतु न्यायपालिका अथवा चुनाव आयोग जैसा एक पृथक एवं स्वतंत्र सेल बनना चाहिये और इस सेल के अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एवं साफ-सुथरी छबि के अनुभवी सेवा-निवृत आई.ए.एस./आई.पी.एस. अधिकारियों की होना चाहिये। इस सेल के कार्यक्षेत्र में अधिकारियों की गतिविधियां और शिकायतें व उनके आचरण वगैरह के सन्दर्भ में समय-समय पर टिप्पणियां दर्ज होती रहना चाहिये एवं गम्भीर शिकायतों की जांच व निलम्बन करने का अधिकार-क्षेत्र भी, इस सेल के अधिकार-क्षेत्र में होना चाहिये। सेल की सिफारिश पर राज्य सरकार इनका स्थानान्तरण करै। सेल की कार्यशैली में पारदर्शिता बनी रहै इस हेतु इसकी टिप्पणियां व आदेश सार्वजनिक जानकारी के लिए उपलब्ध होना चाहिये। सेल के किसी आदेश को सिर्फ उच्च न्यायालय में ही चुनौती दिये जाने का प्रावधान निहित होना चाहिये। इसकी व्यवस्था व प्रक्रिया के प्रारूप पर विस्तृत बिचार करके कानून का निर्माण होना चाहये । इससे अधिकारियों को यह आभास रहेगा कि एक पृथक एवं न्याय-विभाग अथवा भारत के निर्वाचन-विभाग जैसा एक स्वतंत्र विभाग की गिद्ध-दृष्टि उनके आचरण व उनकी कार्यशैली पर निरन्तर बनी हुई है।
तहसील स्तर के रेवेन्यू विभाग से जुड़ी आम-जनता की परेशानियों पर यदि चर्चा नही की जाये तो बात अधूरी ही रहेगी। कृषि भूमि के नामांतरण, बटवारा एवं सीमांकन के प्रकरण लम्बित बने रहना, एक आम समस्या है। सामान्यतया कानूनी प्रक्रिया यह है कि जैसे ही तहसील न्यायालय मे कोई नामांतरण, बटवारा एवं सीमांकन का आवेदन प्रस्तुत होता है तो उस प्रकरण को दायरा रजिस्टर मे दर्ज होना चाहिये और उस पर प्रकरण का क्रमांक अंकित होना चाहिये। इस प्रक्रिया की सुसंगतता इस कारण से भी है कि लंबित प्रकरणों की संख्या की जानकारी तत्काल कभी-भी किसी भी समय मिलती रहे। परन्तु इस प्रक्रिया का पालन होता नहीं दिख रहा है। इसके बिपरीत म.प्र. के कम से कम दतिया जिला मे, संभवतः सभी जिलों मे भी यह हो रहा है कि जब प्रकरण का निराकरण अंतिम रूप से हो जाता है तब उसके बाद वह दर्ज होकर उस पर प्रकरण का क्रमांक अंकित होता है। ऐसा होना पूर्णतः विधि बिरूद्ध और नियमों के बिपरीत हैं। इस प्रकार की चल रही प्रक्रिया मे ’आॅन दि रिकाॅर्ड’ लम्बित प्रकरणों की संख्या का भी पता नही लग सकता हैं अथवा लम्बित प्रकरण की पत्रावली यदि खो भी जाये तो उस पर कोई शिकायत अथवा जांच नही हो सकती, क्यों कि वह दायरा रजिस्टर मे दर्ज ही नहीं है। राज्य-सरकार को मेरा सुझाव है कि रेवेन्यू न्यायालयों मे लंबित प्रकरणों की जानकारी इन्टरनेट पर आॅन-लाईन अपलोड होना चाहिये, जैसा कि हाई-कोर्ट एवं जिला स्तर पर जुडीसियल कोर्ट मे है। प्रकरण कब दायर हुआ, प्रकरण के पक्षकारों के नाम, प्रकरण क्रमांक, कौन से विषय/कानून पर प्रकरण है, प्रकरण की प्रत्येक तारीख पेशी व उसकी कार्यवाही की दिनांक भी इन्टरनेट पर अपलोड होना चाहिये। इससे घर बैठे कृषक जानकारी प्राप्त कर सकेगा। इसकी माॅनिटरिंग रेवेन्यू विभाग के कलेक्टर, कमिश्नर एवं राज्य स्तर पर सचिवालय के द्वारा होती रहना चाहिये और समय-सीमा मे निराकरण नहीं होने की दशा मे अथवा अनावश्यक रूप मे तारीख पेशी बढ़ने पर संबंधित अधिकारी के बिरूद्ध ‘‘कारण बताओ नोटिस’’ जारी होना चाहिये। इससे यह लाभ होगा कि संबंधित अधिकारी को निरंतर यह आभास होता रहेगा कि उसके कार्य पद्धति पर राज्य मुख्यालय की सीधी दृष्टि है एवं कार्य मे पारदर्शिता भी रहेगी। इसी सन्दर्भ मे मैने मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चैहान को एक पत्र भी भेजा था परन्तु लगता है कि ब्यूरोक्रेसी के स्पीड-ब्रेकर के चलते ऐसी सलाह कहीं अटकी पड़ी होगी।
राजेन्द्र तिवारी, अभिभाषक, छोटा बाजार दतिया
फोन- 07522-238333, 9425116738
नोट:- लेखक एक पूर्व शासकीय एवं वरिष्ठ अभिभाषक व राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक आध्यात्मिक विषयों के समालोचक हैं।
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