एक अच्छा, सफल एवं सार्थक जीवन के लिये जरूरी है अच्छी आदतें। अच्छी आदतों वालों व्यक्ति सहज ही अच्छे चरित्र वाला व्यक्ति बन जाता है। बुरी आदतों वाला व्यक्ति खुद-ब-खुद बुरे चरित्र का व्यक्ति बन जाता है। अच्छे और बुरे का मापदण्ड यह है कि जो परिणाम में अच्छा या बुरा हो, वही चीज, विचार या व्यक्ति अच्छा या बुरा होते हैं। मेरे या आपके अथवा किसी के भी द्वारा किसी भी चीज, विचार या व्यक्ति को अच्छा या बुरा कहने पर वह अच्छा या बुरा नहीं होता। क्योंकि सबका अपना-अपना नजरिया होता है। इसलिये यजुर्वेद में की गयी अच्छे होने की यह कामना हर व्यक्ति के लिए काम्य है जिसमें कहा गया है कि ‘‘देवजन मुझे पवित्र करें, मन से सुसंगत बुद्धि मुझे पवित्र करें, विश्व के सभी प्राणी मुझे पवित्र करें, अग्नि मुझे पवित्र करे।’’हर व्यक्ति अच्छा ही बनना चाहता है, फिर क्या कारण है कि दुनिया में बुराइयां पनप रही है। व्यक्ति हिंसक एवं क्रूर होता जा रहा है। भ्रष्टाचार एवं कालाबाजारी बढ़ती जा रही है। कुरुक्षेत्र के मैदान में हम कौरवों और पाण्डवों के बीच हुए युद्ध का हाल महाभारत में पढ़ते हैं। उसे पढ़कर हमारा मन रोमांचित हो उठता है, किन्तु क्या हम कभी यह भी अनुभव करते हैं कि असली कुरुक्षेत्र का मैदान हमारे अंतर में विद्यमान है। कुरुक्षेत्र की लड़ाई तो कुछ दिनों में समाप्त हो गई थी, लेकिन हमारे भीतर की लड़ाई सतत चलती है, कभी समाप्त नहीं होती।
मानव के अंदर दो प्रकार की मानसिकताएं काम करती हैं। एक सद् दूसरी असद्। दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। सद् मानसिकता मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने को प्रेरित करती है, असद् मानसिकता उसे कुमार्ग पर चलने को प्रोत्साहित करती है। सद् सोच कहती है, सच्चाई के रास्ते पर चलो, भले ही तुम्हें कितने ही कष्ट क्यों न उठाने पड़ें। असद् सोच कहती है कि वह रास्ता तो कांटों से भरा है। वैसे रास्ते पर चलने पर तुम्हारे पैर लहूलुहान होंगे। मिलेगा क्या? जरा दूसरे रास्ते पर चल कर देखो, कितनी सफलता मिलती है। जब कभी भले और बुरे के बीच निर्णय करने का अवसर आता है तो आपने देखा होगा कि मन में कितना संघर्ष चलता है। उस तर्क-युद्ध में जो जीत जाता है, आदमी उसी के इशारे पर चल पड़ता है। असल में आदमी अपने भीतर के युद्ध से किसी निर्णय की बजाय द्वंद्व कर स्थिति में ही पहुंचता है। इसी कारण हम बहुत बार अपने द्वारा लिए गए निर्णय, संजोए गए सपने और स्वीकृत प्रतिज्ञा से स्खलित हो जाते हैं, क्योंकि हम औरों जैसा बनना और होना चाहते हैं। हम भूल जाते हैं कि औरों जैसा बनने मंे प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, दुःख, अशांति व तनाव के सिवाय कुछ नहीं मिलने वाला है। इसीलिए महापुरुष सिर्फ अपने जैसा बनाना चाहते हैं। हजरत मुहम्मद पैगम्बर की यह शिक्षा सतत स्मृति में रखनी चाहिए- ‘‘अच्छा काम करने की मन में आए तो तुम्हें सोचना चाहिए कि तुम्हारी जिंदगी अगले क्षण समाप्त हो सकती है। अतः काम तुरंत शुरू कर दो। इसके विपरीत अगर बुरे कामों का विचार आए तो सोचो कि मैं अभी वर्षों जीने वाला हूं। बाद में कभी भी उस काम को पूरा कर लूंगा।’’ इसलिये जब यह मनुष्य जीवन मिला है तो चलना तो होगा ही है, लेकिन मानवता का तकाजा है कि वह सही रास्ते पर चले। यह तब संभव हो सकता है, जबकि व्यक्ति अपनी वृत्तियों पर अंकुश रखे और मन की चंचलता के वशीभूत न हो।
अक्सर देखा गया है कि हम विकास की ऊंचाइयों को छूते-छूते पिछड़ जाते हैं, क्योंकि हमारी सोच अंधविश्वासों, अर्थशून्य परम्पराओं, भ्रान्त धारणाओं और सैद्धान्तिक आग्रहों से बंधी होती है। जबकि सफलता के शिखर पर आरोहण करने वाले कहीं किसी से बंधकर नहीं चलते, क्योंकि बंधा व्यक्तित्व उधारा, अमौलिक और जूठा जीवन जी सकता है किन्तु अपनी जिन्दगी में कभी क्रांतिकारी एवं मौलिक पथ नहीं अपना सकता जबकि महानता का दूसरा नाम मौलिकता है और जीवन जीने का तरीका भी मौलिक होना चाहिए। जैसाकि ग्रोचो माक्र्स ने कहा कि हर सुबह जब मैं अपनी आंखे खोलता हूं तो अपने आप से कहता हूं कि आज मुझमें स्वयं को खुश या उदास रखने का सामथ्र्य है न कि घटनाओं में। मैं इस बात को चुन सकता हूं कि यह क्या होगी। कल तो जा चुका है, कल अभी आया नहीं है। मेरे पास केवल एक दिन है, आज तथा मैं दिन भर प्रसन्न रहूंगा।’ हमारे चिन्तन का विषय है कि जब हम खुली आंखों से सही-सही देख न पाएं तो समझना चाहिए कि यह अंधेरा बाहर नहीं, हमारे भीतर ही कहीं घुसपैठ किये बैठा है और अध्यात्म जगत के अनुभवी एवं दक्ष लोग अपने भीतर देखने का, प्रकाश में होने की शिक्षा देते हैं, वे ऐसी शिक्षा के द्वारा अंधेरों की उम्र कम करते हैं। इसीलिये महात्मा गांधी ने कहा कि ‘आपको मानवता में विश्वास नहीं खोना चाहिए। मानवता एक सागर की तरह है, यदि सागर की कुछ बूंदे खराब हैं तो पूरा सागर गंदा नहीं हो जाता है।’
जीवन के उतार और चढ़ाव का क्रम चलता रहता है, हृास और विकास जीवन का अभिन्न अंग है, अंधकार और प्रकाश भी जीवन से ही जुड़ा है। इसीलिये प्रार्थना हमेशा प्रकाश की, विकास की और आरोहण की जाती है। उतार, हृास और अंधकार स्वभाव नहीं, विभाव हैं। ये प्रतीक हैं हमारी वैयक्तिक दुर्बलताओं के, अपाहिज सपनों और संकल्पों के। निराश, निष्क्रिय, निरुद्देश्य जीवनशैली के। स्वीकृत अर्थशून्य आग्रही सोच के। जीवन मूल्यों के प्रति टूटती निष्ठा के। सकारात्मक चिंतन, कर्म और आचरण के अभावों के। मैरी क्यूरी ने कहा कि ‘हममें से जीवन किसी के लिए भी सरल नहीं है। लेकिन इससे क्या? हम में अडिगता होनी चाहिए तथा इससे भी अधिक अपने में विश्वास होना चाहिए। हमें यह विश्वास होना चाहिए कि हम सभी में कुछ-न-कुछ विशेषता है तथा इसे अवश्य ही प्राप्त किया जाना चाहिए।’ हम जिसकी आकांक्षा करते हैं और जिसे पाने के लिए अंतिम सांस तक भटकते हैं, महापुरुष उन्हें बोझ समझकर छोड़ देते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अति-महत्वाकांक्षा और अनावश्यक संग्रह की लालसा का अंतिम परिणाम दुःख ही होता है। विलियम फ्रेडरिक हाल्से, जूनियर ने कहा कि इस दुनिया में कोई भी महान व्यक्ति नहीं है, केवल महान चुनौतियां ही हैं, जिनका सामान्य व्यक्ति उठ कर सामना करते हैं।”
हम उस समय बहुत बौने बन जाते हैं जब सुख-दुःख के परिणामों का जिम्मेदार ईश्वर को या अन्य किन्हीं निमित्तों को मान बैठते हैं। स्वयं की सुरक्षा में औरों की दोषी ठहराकर कुछ समय के लिए बचा जा सकता है किन्तु सचाई यह है कि हर प्राणी स्वयं सुख-दुःख का कत्र्ता, भोक्ता और संहर्ता है। तभी तो सफल एवं कीर्तिमान स्थापित करने वाले लोग कर्म-क्षेत्र से भागते नहीं, वे पुरुषार्थ और विवेक के हाथों से कर्म की भाग्यलिपि बदलते हैं। हमारा मन बहुत होशियार है। हम जब औरों के बीच अपनी योग्यता से व्यक्तित्व को नयी पहचान नहीं दे सकते, तब हमारा आहत मन दूसरों की बुराइयों को देख खुश होता है ताकि स्वयं की कुरूपताएं उसे सामान्य-सी नजर आएं। सफल व्यक्ति न अपनी गलती को नजरन्दाज करते हैं और न औरों की गलतियों को प्रोत्साहन देते हैं, क्योंकि चिनगारी भले ही छोटी क्यों न हो, आग बन जला सकती है। जिन लोगों ने नया इतिहास रचा है, उन्होंने मन को नियंत्रित करने पर जोर दिया गया है, क्योंकि जब मन काबू में आ जाता है तो बुद्धि स्वतः ही हमारे वश में हो जाती है। तब भले-बुरे के बीच भटकना नहीं पड़ता। निर्मल बुद्धि की आंखों पर से चश्मा उतर जाता है। उसे अच्छा-ही-अच्छा दिखाई देता है। उसके स्पंदनों का प्रभाव सारे वातावरण पर पड़ता है। जिस प्रकार किसी देवालय के भीतर का वातावरण पावन-पवित्र होता है, उसी प्रकार निर्मल बुद्धि से व्यक्ति के चारों ओर पवित्रता फैल जाती है। हमारे सामने भगवान महावीर तथा गांधीजी के दृष्टांत हैं। उनका स्वयं का जीवन महकता था और उनके चारों ओर महक व्याप्त रहती थी। निर्मल बुद्धि प्रकाश की भांति होती है जिसके पास अंधकार फटक नहीं पाता। सेसील एम. स्प्रिंगर ने कहा कि ‘सबसे बड़ी बात है कि स्वयं को चुनौती दें। आप स्वयं पर हैरान होंगे कि आप में इतना बल या सामर्थ्य है, तथा आप इतना कुछ कर सकते हैं।’
मनुष्य के भीतर जो अमृत-घट विद्यमान है, वही आनंद का स्रोत है और वही सफलता की सीढ़ी भी है। वहीं से सच्ची आवाज आती है, उस आवाज को सुनना चाहिए। उस पर से मेल का आवरण हटा कि उसका मुंह अनावृत्त हो जाता है, जिसके फलस्वरूप जीवन दुःख, निराशा एवं अविश्वास से मुक्त होकर सुख, आशा एवं विश्वास से ओतप्रोत हो जाता है और ऐसा ही जीवन नये पद्चिन्ह स्थापित करता है, कीर्तिमान के स्वस्तिक उकेरता है।
(ललित गर्ग)
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