गुम हो रही बनारसी मस्ती और सात वार नौ त्योहार सरीखे जीने का मस्तमौला अंदाज पर अपनी रचनाओं के जरिये कभी हास्य तो कभी गम्भीर संदेश देकर लोगों को खूब गुदगुदाया हैं। उनका मानना था कि इस तरह के आयोजनों से हमारी युवा पीढ़ी अपने सरोकारो और थाती को समझें। ढोल नगाड़ों के साथ काशी के डॉ. राजेंद प्रसाद घाट पर हर साल पहली अप्रैल अर्थात मूर्ख दिवस पर महामूर्ख मेले का आयोजन उन्हीें के देखरेख में होता था। उन्होंने अपने हास्य और व्यंग्य के माध्यम से न सिर्फ देश के जन प्रतिनिधियों को आईना दिखाया बल्कि जनता को भी वास्तविक स्थिति से परिचित कराया। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। इसके अलावा वे लेखक, कवि, निबंधकार, एवं कुशल वक्ता भी थे
धर्म एवं आस्था की नगरी काशी के प्रख्यात कवि, साहित्यकार, कानूनविद्, पत्रकार व बनारसी अक्खड़पन के बेमिसाल व्यक्तित्व वाले युगपुरुष पंडित धर्मशील चतुर्वेदी नहीं रहे। शनिवार को श्री चर्तुवेदी जी निधन हो गया। वे पिछले काफी दिनों से अस्वस्थ थे। उनका इलाज बीएचयू में चल रहा था, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली। उनकी उम्र 80 वर्ष थी। उनके निधन से काशी की हर वह आंख ेनम है, जो उनके विचारों व रचनाओं से वाकिफ थे। होली के अवसर पर उनकी हंसी-ठिठोली भरी कविताएं व मुर्खो की बारात में उनका दुल्हा बनना आज भी लोगों के जेहन में है। उनकी कविता ’आइये मन की तरी को मौजे गंगा में बहाए। जानेमन के मन की मौजों में गुरु अब डूब जायें। जनगन का मन तो रुहक है गंगा जैसा मैला। नए भागीरथ की गंगा में आओ चले नहाये’, लोगों के जुबान पर है। का हो ..गुरु उनका ठेका था। वह काशी की संस्कृति ,सभ्यता और परम्परा के निःस्वार्थ वाहक थे। काशी के पौराणिक इतिहास पर न सिर्फ उनकी गहरी पकड़ थी, बल्कि पत्र-पत्रिकाओं में उकेरा भी। डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद घाट पर घाट पर महामुर्ख सम्मेलन की शुरुवात कर उन्होंने इसे वैश्विक उचाई पर पहुंचाया। घुमक्कड़ और फक्कड़ स्वभाव के चर्तुवेदी जी ने कई अखबारों में बनारसी मस्ती एवं होली, मकर संक्रांति, बाबा विश्वनाथ की महिमा जैसे कई कालम लिखा, वह आज हिंदी पत्रकारिता के लिए दुर्लभ व विशिष्ट सामग्री है। हिंदी, संस्कृत, समेत कई भाषाओं पर मजबूत पकड़ रखने वाले चतुर्वेदी जी ने धर्म एवं आस्था की नगरी काशी में कई बड़े साहित्यिक कार्यक्रमों की शुरूवात की थी। जो आज वैश्विक स्तर पर विख्यात हो चुके है। सीनियर रिपोर्टर एके लारी ने उन्हें श्रद्धाजंलि अर्पित करते हुए बताया कि वे न सिर्फ एक अभिभावक की भूमिका रहे, बल्कि काशी की एक संस्कृति एक युगदृष्टा भी रहे। उनकी कविताओं, लेखों एवं रचनाओं की जीवंतता हमेशा प्रेरणा स्त्रोत रहेगी। काशी में इसकी भरपाई अब कोई पूरा नहीं कर पाएगा। उनके साथ बिताये हुए पल अब हमेशा के लिए अमर हो गए। ऐसे कवि, साहित्यकार, कानूनविद्, पत्रकार व बनारसी अक्खड़पन के बेमिसाल व्यक्तित्व को हम अपनी अश्रु पूर्ण श्रद्धांजलि करते है। उनका जाना देश के लिये बहुत बड़ी क्षति है।
वे विख्यात लेखक होने के अलावा सफल व्यंगकार व स्तंभकार भी थे। उन्होने काशी के कई पर्वो पर अपनी लेख लिखा है। हास्य कविताएं व कहानियां लिखना भी उनका शौक था। यूं कहिये कि जुनून था। उन्होंने वकालत भी की, तो एक मुकाम तक पहुंचायी। कहते है उन्होंने जिस मुकदमें की पैरवी की तो हारे नहीं और अपनी दलीलों से मुअक्कील को इंसाफ दिलाई। खास यह है कि वह न केवल हास्य व्यंग्य लिखते थे, बल्कि तमाम कवि सम्मेलनों में अपनी रचनाओं से लोगों को मंत्रमुग्ध भी कर देते थे। वह अपने मस्तमौला और खाटी बनारसी अंदाज के लिए जाने जाते थे। सबसे बड़ी बात, बुनियादी तौर पर एक अच्छे-सच्चे इंसान भी थे। लोगों की मदद करना उनका फलसफा था। संवेदनशील व्यक्ति के नाते उनमें स्वतन्त्र रूप से देखने-सोचने-समझने की अपार क्षमता थी। स्मरण शक्ति तीव्र थी, ग्रहण क्षमता अद्भुत। उनको काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। उन्होंने कई संस्थाओं की स्थापना में अपना योगदान दिया। दीन-दुखियों, साहित्यकारों तथा मित्रों की सहायता करना वे अपना कर्तव्य समझते थे। महाशिवरात्रि को मैदागिन से निकलने वाली शिव बारात में भी वह भाग लेते थे। होली के मौके पर दशाश्वमेघ घाट पर उनकी बरसाने से लेकर भोजपुर तक की होली के रंग की भंग की मस्ती न्यूज चैनलों पर भी छायी रहती थी। होली पर निकलने वाली बारात में वह कई सालों तक दुल्हा भी बनते रहे। उनके साथ दुल्हन रणजी ट्राफी खिलाड़ी जावेद अख्तर बन चुके हैं। ऐसे युगदृष्टा तथा गुरु तुल्य की निधन की खबर पाकर पूरी काशी शोक में डूबा है। वह पियरी पर रहते थे। लेखन कला उन्होंने अपने पिता साहित्यकार पं सीताराम चर्तुवेदी से सीखी थी। वह कहते थे लोकजीवन में त्योहार के साथ साहित्यिक सरोकार भी जरूरी है। उन्होंने साहित्यिक संस्था के बैनर तले साहित्यकारों और हास्य व्यंग्य के कवियांे की मौजूदगी में राजनेताआंे और देश के वर्तमान हालत पर भी अपनी रचनाएं प्रस्तुत कर चुके हैं।
छोटी पियरी स्थित वेद भवन में आधुनिकता और स्मार्ट सीटी में गुम हो रही बनारसी मस्ती और सात वार नौ त्यौहार सरीखे जीने का मस्तमौला अंदाज पर अपनी रचनाओं के जरिये कभी हास्य तो कभी गम्भीर संदेश देकर लोगों को खूब गुदगुदाया हैं। उनका मानना था कि इस तरह के आयोजनों से हमारी युवा पीढ़ी अपने सरोकारो और थाती को समझें। साहित्यिक अनुष्ठान उलूक महोत्सव में उनकी काव्य सुनने को दर्शक पूरी रात ब्ेठे रहते थे। ढोल नगाड़ों के साथ काशी के डॉ. राजेंद प्रसाद घाट पर हर साल पहली अप्रैल अर्थात मूर्ख दिवस पर महामूर्ख मेले का आयोजन उन्हीें के देखरेख में होता था। इस आयोजन में देश के कई भागों से आये हास्य व्यंग्य कवियों ने मस्त मौला बनारसी अंदाज में व्यंग्य और हास्य की कविताएं प्रस्तुत करते थे। उन्होंने अपने हास्य और व्यंग्य के माध्यम से न सिर्फ देश के जन प्रतिनिधियों को आईना दिखाया बल्कि जनता को भी वास्तविक स्थिति से परिचित कराया। इन आदर्शों-सरोकारों को पत्रकारिता और अखबारी जीवन से कभी अलग नहीं माना। वे उन दुर्लभ साहित्यकारों में से रहे हैं जो सिद्धांत और व्यवहार को अलग-अलग नहीं जीते थे। उनका कार्यकाल युग की सन्धि पर खड़ा है। उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ्य परम्परा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोए।
उन्होंने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। इसके अलावा वे लेखक, कवि, निबंधकार, एवं कुशल वक्ता भी थे। मुह में पान व चेहरे पर मुस्कान हमेशा झलकती थी। जीवन की शुरुवात उन्होने अधिवक्ता के रुप में की और अपनी लोकप्रियता के चलते ही वह दी सेंट्रल बार ऐसोसिएशन बनारस और कमिश्नरी बार एसोसिएशन के अध्यक्ष भी रहे। हर बनारसी के उन्हें अपना दोस्त समझता था। वे अपने अनोखे बनारसी मिजाज के कारण भीड में भी अकेले दिखते थे। काशी की गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक धर्मशील चतुर्वेदी सरीखा व्यक्तित्व का जल्द मिलना काफी मुश्किल है। हर आयुवर्ग के साथ सहोदर सरीखा व्यवहार रखने वाले पं. धर्मशील चतुर्वेदी का ठहाका काफी प्रसिद्ध है। बनारसीपन को पूरी तरह से जीने वाले पंडितजी का मनमौजी स्वभाव हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त था। वकालत उनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत था। कचहरी में भी वे साथी अधिवक्ताओं में काफी सम्माननीय रहे। शहर की कई कवि और साहित्यिक गोष्ठियां उनकी अनुपस्थिति में अधूरी मालूम पड़ती थी। वे इस क्षेत्र के सशक्त हस्ताक्षर थे।
(सुरेश गांधी)
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