राजनीति : जयललिता की विरासत और राजनीतिक लड़ाई - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

राजनीति : जयललिता की विरासत और राजनीतिक लड़ाई

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भारत में राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों के लिए सत्ता की लड़ाई होना कोई नई बात नहीं है। फिर चाहे वह क्षेत्रीय राजनीतिक दल हों, या फिर राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक पहचान स्थापित कर चुके राजनीतिक दल हों। हर राजनीतिक दल अपने अपने हिसाब से राजनीति करने की कवायद करता हुआ दिखाई दे रहा है। इस सबमें खास बात यह है कि जनता की भावनाओं को किनारे रखकर यह राजनीतिक दल केवल और केवल सत्ता केन्द्रित राजनीति का ही संचालन करते हुए दिखाई देते हैं। तमिलनाडु में एक जादुई व्यक्तित्व की तरह राजनीति में चमकने वाली जयललिता की मौत के बाद अन्नाद्रमुक में जिस प्रकार की राजनीतिक लड़ाई लड़ी जा रही है। वह दो धड़ों में विभाजित अन्नाद्रमुक के किसी एक धड़ को ही सफलता दिला पाएगी, लेकिन सत्ता प्राप्ति के लिए चल रही यह लड़ाई कहीं न कहीं राजनीतिक दलों के स्वार्थी रवैये को प्रमाणित करने के लिए काफी है। इस प्रकार की राजनीतिक कभी देश और प्रदेश की जनता का भला नहीं सोच सकती। हम जानते हैं कि जयललिता के पास समर्पित जनता की बहुत बड़ी फौज थी, लेकिन उनके जाने के बाद जिस प्रकार से पार्टी पर एकाधिकार स्थापित करने की लड़ाई लड़ी जा रही है, वह कहीं न कहीं खुद का अस्तित्व मिटाने की ओर कदम बढ़ाने की कवायद मानी जा सकती है। इन लोगों को यह भी पता होना चाहिए कि जयललिता ने जिस मेहनत से पार्टी को संभालकर रखा, उनके अनुयायी कहे जाने वाले नेता उस पर पानी फेरते हुए दिखाई दे रहे हैं।


तमिलनाडु में राजनीतिक गतिरोध के बीच शशिकला और वर्तमान मुख्यमंत्री पनीरसेल्लम के बीच राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए जंग जारी है। हालांकि अन्नाद्रमुक की ओर से शशिकला को विधायक दल का नेता चुन लिया है, लेकिन यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि पनीरसेल्लम भी पार्टी में वजूद वाले नेता माने जाते हैं। वह पार्टी में जयललिता की प्रमुख पसंद माने जाते थे। जयललिता की अनुपस्थिति में पनीरसेल्लम मुख्यमंत्री का कार्यभार संभालते रहे। शशिकला और पनीरसेल्लम दोनों ही अन्नाद्रमुक पर अपना दावा जता रहे हैं। दोनों समूहों ने एक दूसरे को पार्टी से निकालने का आदेश दे दिया है। यहां पर एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अन्नाद्रमुक के एक और प्रभावशाली नेता ई मधुसूदन भी पाला बदलकर पनीरसेल्लम के पक्ष में आ गए हैं। ऐसे में तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक राजनीतिक विघटन की ओर कदम बढ़ाती हुई दिखाई देती है।

तमिलनाडु की राजनीति में एमजी रामचंद्रन की मौत के बाद जयललिता धूमकेतु की तरह चमकीं। हालांकि एमजी रामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन भी राजनीति में प्रभाव दिखाने के लिए आईं, लेकिन तमिलनाडु की जनता ने जयललिता को ही राजनीतिक ताकत प्रदान की। जयललिता ने तमिलनाडु में एक मुख्यमंत्री के रुप में बेहतर शासन दिया। उनके बीमार होने के बाद शशिकला अन्नाद्रमुक का सारा कामकाज देखने लगीं, और सारे कार्यकर्ताओं के बीच शशिकला ही ऐसे नेता के रुप में सामने आती जा रही थी, जो जयललिता को विरासत को संभाल रही थी। पिछले विधानसभा चुनाव के समय टिकट वितरण करने में भी शशिकला की प्रमुख भूमिका रही। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अन्नाद्रमुक पार्टी में आज भी शशिकला ही पनीरसेल्लम से ज्यादा प्रभावी नेता के रुप में स्थापित हैं। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि शशिकला बहुत पहले से ही जयललिता की राजनीतिक विरासत को संभालने की तैयारियां कर रही थीं। अन्नाद्रमुक के विधायकों पर भी शशिकला की अच्छी पकड़ थी। इसके बाबजूद भी जयललिता ने कभी भी शशिकला पर विश्वास नहीं किया, उन्हें राजनीतिक रुप से कोई भी जिम्मेदारी भी नहीं दी गई। इससे यह भी साबित होता है कि कहीं न कहीं शशिकला अविश्वास की श्रेणी में ही आती थीं। वर्तमान में यही बात शशिकला की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनकर सामने आ रही है। पनीरसेल्लम के पक्ष में यही बात सबसे प्रभावकारी सिद्ध हो रही है। इसे दूसरे अर्थों में कहा जाए तो एक पक्ष जयललिता के समर्थकों का है, तो दूसरा पक्ष विरोधी यानी शशिकला के समर्थकों का। इन दोनों में से कौन कितना भारी साबित होगा, यह आने वाला समय बता पाने में समर्थ होगा।

हालांकि जयललिता ने कई अवसरों पर शशिकला के बारे में कहा है कि शशिकला को उनके राजनीतिक जीवन से कोई मतलब नहीं है, वह केवल घरेलू संबंधों तक ही सीमित है। इसके अलावा शशिकला को राजनीतिक क्रियाकलापों की कोई जानकारी भी नहीं है। जबकि पनीरसेल्लम राजनीति के माहिर खिलाड़ी भी हैं और उनके पास राजनीतिक अनुभव भी है। इसी कारण ही वे जयललिता के सबसे विश्वास पात्र व्यक्तियों में शामिल रहा करते थे। इसे तर्कसंगत भाषा में कहा जाए तो यही कहना ठीक होगा कि शशिकला केवल घरेलू या पारिवारिक विरासत की उत्तराधिकारी मानी जा सकती हैं, जबकि पनीरसेल्लम, जयललिता के राजनीतिक उत्तराधिकार के रुप में सबसे उपयुक्त राजनेता हैं। लेकिन यहां लड़ाई केवल सत्ता प्राप्त करने की है। ऐसी लड़ाईयां न तो अपने दल का भला कर सकती हैं, और न ही जनता का भला कर पाने में समर्थ हो सकती हैं।

तमिलनाडु में सत्ता प्राप्त करने का खेल भले ही शशिकला की तरफ से खेला गया हो, लेकिन पनीरसेल्लम की रणनीति भी कमजोर दिखाई नहीं दे रही। वह भी अपनी सरकार को बचाने के लिए दूसरे दलों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए दिखाई देने लगे हैं। शशिकला की ओर से दावा किया जा रहा है कि उनके पक्ष में पार्टी के अधिकतम विधायक हैं, जबकि पनीरसेल्लम की ओर से कहा जा रहा है कि वह बहुमत सिद्ध करेंगे। ऐसे में अब पूरा खेल राज्यपाल के पाले में हैं। लेकिन इसमें सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि जब अधिकांश विधायक शशिकला को अपना समर्थन कर रहे हैं, तब उन्हें घेरकर एक जबह क्यों रखा गया है? क्या विधायकों की निष्ठा पर शशिकला को संदेह है। अगर ऐसा है तो विधायक भी पाला बदलकर खड़े हो सकते हैं। विधायकों को कैद करके रखना और अपना समर्थन करने के दावे करना बिलकुल ऐसा ही है, जैसे एक पालतू जानवर को अपने अनुसार काम करवाना। वास्तव में विधायकों को अपने स्वयं के विवेक के आधार पर फैसला लेने के लिए खुला छोडऩा होगा। तभी यह सिद्ध होगा कि वास्तव में विधायक चाहते क्या हैं। नहीं तो यह लोकतंत्र पर करारा आघात भी हो सकता है।



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सुरेश हिन्दुस्थानी
झांसी (उत्तरप्रदेश)
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