मफलर के मौसम में रेनकोट के चर्चे है। कपड़ो का उपयोग उनकी प्रवृति के हिसाब से अब किसी मौसम विशेष तक सीमित नहीं रह गया हैै वो अपनी सीमाए लांघकर हर मौसम में "सर्जिकल- स्ट्राइक" कर अपनी निर्भरता और उपयोगिता का लौहा मनवा रहे है। यह उल्लेखनीय है की ये लोहा , "लौहपुरुष" के मार्गदर्शक मंडल में होते हुए मनवाया जा रहा है। यहीं तो बदलाव है, अगर देश बदल रहा है तो रहन-सहन भी बदलना ज़रूरी है। अगर "सूट-बूट" की सरकार में भी अगर कपड़ो को महत्व नहीं मिलेगा तो फिर विश्वसनीयता का संकट खड़ा हो जायेगा। इसी विश्वसनीयता को बचाये रखने के लिए सरकार ने शिक्षा विभाग के "स्मृति-दोष" को ठीक करते हुए उसे कपडा विभाग में स्थानांतरित किया। कपडे तन ही नहीं ढँकते, आजकल वो राजनीती में आये बौद्धिक दिवालियापन को भी ढांप रहे है। बॉलीवुड में एक्सपोज़ करने से प्रसिद्धि और यश मिलता है लेकिन राजनीती में आपको प्रसिद्धि पाने के लिए ढाँपने में महारत हासिल होनी चाहिए । जो राजनेता अपना अज्ञान, घोटाले और परिवारवाद सफलतापूर्वक ढक लेता है वो ही जनता की आँखों पर पट्टी बांधने में सफल हो पाता है। "रोटी-कपडा-मकान" में से कपडा हमेशा राजनेताओ की प्राथमिकता में रहा है।
वैसे अनुभव करना मुश्किल हो रहा था लेकिन, बयानबाज़ी का स्तर देखकर लगता है कि मेरा देश बदल रहा है। बदलाव की बयार बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है, अगर जल्द ही इसे रोका ना गया तो ये अंधड़ का रूप भी ले सकती है। "सूट-बूट" के पहले "सूटकेस" की सरकार थी , जनता को भी यहीं सब "सूट" करता है। इस सरकार ने खुलेआम "नोटबंदी" की लेकिन सूटकेस की सरकार नोटों को केवल सूटकेस में बंद करने में विश्वास रखती थी, पारदर्शिता का अभाव था। पारदर्शिता को लेकर यहीं असहजता बाथरूम में भी रेनकोट पहनकर नहाने को मज़बूर करती थी। लेकिन पारदर्शिता के इसी अभाव से वर्षो से बनी ये धारणा भी टूटी की "हमाम में सब नंगे है।" पुरानी सरकार दूरदर्शी थी, इसलिए उसने "नमामी-गंगे" परियोजना पर करोडो रुपये खर्च करने के बजाय रेनकोट पहन कर नहाने का उपाय ढूंढा ताकि ना दाग-कीचड़ लगने का खतरा रहे और ना उन्हें मिटाने के लिए गंगास्नान की ज़रूरत। भारतीय राजनीती की यही खूबी है, ये हर रोज़ नए रंग दिखाती है, नवीन वैचारिक प्रतिमानों की स्थापना कर पुरानी हो चुकी रूढ़िवादी धारणाओं और वर्जनाओं पर प्रहार कर जनमानस की रूचि राजनीती में हमेशा नए कपड़ो की तरह बनाए रखती है।
--अमित कुमार--
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