ये माताएं शहीदों की माताएं नहीं है और मुक्त बाजार के तिलिस्म में संतान शोक की उनकी कोई कैफियत या सांत्वना नहीं है। स्त्री सशक्तीकरण के जमाने में भी ये माताएं गांधारी की तरह असहाय हैं।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥
अबाध पूंजी प्रवाह।बेलगाम मुक्तबाजार।अंतहीन महाभारत।
गांधारी विलाप अनंत।एक अंतहीन शोकगाथा बनने लगी है मुक्तबाजार के आखेट में मारे जा रहे बच्चों के मां बाप की रोजमर्रे की जिंदगी।शोक की अगली बारी किसकी है,दहशतजदा जिंदगी है।इस दुश्चक्र से बचकर जीने वाले बच्चे जख्मी अश्वत्थामा है,जिसके हिस्से में न कोई भविष्य है,न प्रेम है और न सहानुभूति।ऐसे खलनायक बने बच्चों की माताओं की मनोदशा मुक्तबाजार का भीषण सच है। एक थी मदर, अपढ़ रूसी मेहनतकश औरत, मदर टेरेसा नहीं, जिन्हें तमाम चमत्कारों की वजह से नोबेल पाने के बाद संत की उपाधि भी रोम के सर्वोच्च धर्मस्थल से मिली। क्रांतिकारी कारखाने के कर्मचारियों के बारे में 1906 में लिखे मैक्सिम गोर्की के कालजयी उपन्यास मदर की इस मदर का बेटा क्रांतिकारी था और मजदूर जन विद्रोह का सक्रिय कार्यकर्ता था।बेटे के कैद हो जाने के बाद उसका काम जारी रखने के लिए वह कामरेड बन गयीं।माँ एक आदर्श है रूसी नारी चरित्र का, जिसके द्वारा इस बात का संदेश दिया गया है कि नारी क्रांति की जनक बन सकती है। उसकी भूमिका समाज में सर्वप्रमुख होती है। एक बूढ़ी स्त्री "माँ" क्रांति का बिगुल फूँकती है, किस-किस तरह पुलिस और जासूसों को धोखा देती हुई क्रांतिकारियों तक, एक स्थान से दूसरे स्थान तक, संदेशवाहक का काम करती है। यही इस उपन्यास का मूल विषय है। रूस में भारत से पहले क्रांति आई, भारत में अंग्रेजों की दासता से छुटकारा बाद में मिला। रूस में औद्योगिक क्रांति आने से सामंती किसानों और सूदखोरों से लोगों को छुटकारा मिला। लोग कल-करखानों में मजदूरी करने के लिए भागे और एक समय पर काम पर जाने, एक सा वेतन और सुविधा पाने के कारण उन्हें संगठित होने में आसानी हुई। जारशाही और सामंती व्यवस्था को उखाड़ फेंका गया। दूसरी हैं हजार चौरासवीं की मां।नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर लिखित प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी के बंगाली उपन्यास पर आधारित निर्देशक गोविन्द निहलानी की फिल्म ” हज़ार चौरासी की मां ”।उच्च मध्यवर्गीय परिवार का बेटा व्रती नक्सली आंदोलन में पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने के बाद सबने उसे आसानी से पारिवारिक सामाजिक शर्म मानकर भुला दिया।लेकिन मां सुजाता अपने बेटे को भूल नहीं पायी।व्रती की समृतियों में वे सत्तर के दशक की युवापीढ़ी के ख्वाबों और उनके बलिदान को जीती रहीं। महाश्वेता देवी के मशहूर उपन्यास में सत्तर के दशक में नक्सली आंदोलन में शरीक युवाजनों की मां सुजाता।सत्तर के दशक की समूची युवापीढ़ी की मां सुजाता।
माताएं और भी हैं।जैसे शहीदे आजम भगत सिंह की मां,जैसे खुदीराम बोस की मां, जैसे राजगुरु, बिस्मिल की मां, अशफाकुल्ला की मां। शोकमग्न इन माताओं की सबसे बड़ा गर्व उनकी संतानों की शहादतें हैं। इसके उलट आज मुक्तबाजारी नई पीढ़ी, टीन एजरों की माताएं शोकमग्न तो हैं लेकिन उनकी संतानों ने क्रांति का कोई सपना नहीं देखा है और न बदलाव के किसी जन विद्रोह में उनकी जानें जा रही हैं।उन्होंने कोई शहादतें नहीं दी हैं। वे किसी युद्ध या गृहयुद्ध या विश्वयुदध या प्राकृतिक आपदा में भी मारे नहीं जा रहे हैं।दुर्घटनाओं में मौत है,तो ये दुर्घटनाएं भी उनकी रची हुई हैं। अस्सी के दशक में पंजाब,असम और त्रिपुरा में उग्रवाद की फसल बनकर जो युवाजन मारे गये,आज की नई पीढ़ी उनमें भी शामिल नहीं है।स्कूलों तक में दलबद्ध राजनीति में सक्रिय इन बच्चो को गैर राजनीतिक भी नहीं कह सकते।फिरभी वे होक कलरव या जयभीम कामरेड वाले विश्वविद्यालयों की जमात में शामिल नहीं है। साठ के दशक में एक अदद नौकरी पाने के संघर्ष में गर्म हवा से बचने की जद्दोजहद थी।मोहभंग के उस दौर के बाद सत्तर के दशक में नौकरी युवाजनों की प्राथमिकता नहीं रही।चाहे नक्सल बाड़ी हो या फिर जेपी का छात्र आंदोलन युवापीढ़ी की प्राथमिकता तब एक अदद नौकरी की खुशहाल जिंदगी नहीं थी। वे सिरे से व्यवस्था बदलने का ख्वाब जीते हुए थोक भाव से राष्ट्र की सैन्यशक्ति या सत्तावर्ग के राजनीतिक गिरोह के मुठभेड़ में मारे जा रहे थे। शहीद माताओं की तरह सत्तर के दशक की माताएं भी शोक मग्न थीं।तब इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व के बावजूद ज्यादातर माताएं अपढ़ या अधपढ़ थीं। आज की नई पीढ़ी की माताएं सशक्त महिलाएं हैं।उच्च शिक्षित हैं। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व करते हुए घर और बाहर दोनों मोर्चे पर बहादुरी के साथ लड़ रही हैं,पितृसत्ता के मुकाबले वे हजार चौरसवीं की मां या पावेल की मां की तरह निःशस्त्र नहीं हैं।वे तकनीक जानती हैं।सोशल मीडिया में उनकी मौजूदगी आम है। इसके बावजूद उनके बच्चे आत्मध्वंस के राजमार्ग पर अंधी दौड़ में भागे जा रहे हैं।जिन्हें रोकने का कोई उपाय उच्च शिक्षित या जनपदों की पढ़ी लिखी या अब भी अपढ़ अधपढ़ माताओं के बस में नहीं है। ये माताएं शहीदों की माताएं नहीं है और मुक्तबाजार के तिलिस्म में संतानशोक की उनकी कोई कैफियत या सांत्वना नहीं है।
आजादी की लड़ाई में पंजाब और बंगाल ने कितनी शहादतें दी,उसकी कोई गिनती नहीं हो सकती।सत्तर के दशक में भी पंजाब और बंगाल की नई पीढ़ी ने शहादतें दी हैं। अस्सी के दशक में आपरेशन ब्लू स्टार और सिख नरसंहार में पंजाब की माताओं के शोक की तुलना महाभारत के स्त्री विलाप से भी भीषण और भयंकर हैं। क्रांति के रोमांस और बदलाव के ख्वाब के भातर माता के जिगर के दोनों टुकड़े अब नशे की गिरफ्त में हैं।पंजाब इसतरह नशाग्रस्त है कि वहां की नई पीढ़ी की उनके नशे के अलावा कोई पहचान बन नहीं पा रही है।नशा माफिया वहां सत्ता पर काबिज है। बंगाल में बेरोजगारी का संकट साठ के दशक से एक अनंत सिलसिला है। इस अंतहीन बेरोजगारी के आलम में तस्करी,अपराध,आत्मध्वंस,उपभोक्तावाद और नशा के शिकार बच्चों के अपराध और आत्मध्वंस की वारदातें रोज रोज टीवी की सनसनीखेज सुर्खियां हैं और परदे पर रोज रोज गांधारी विलाप है। अभी कृष्णनगर में नौवीं में पढ़ने वाले एक छात्र की उसके नौवीं और दसवीं में पढञने वाले दो बच्चों ने नशे के बाबत कर्ज में जिये डेढ़ सो रुपये मांगने के जुर्म में निर्ममता से हत्या कर दी। उन्होंने बेहद शातिराना अंदाज में हत्या की वारदात को अंजाम दिया और फिर सबूत मिटाने के लिए शव को जमीन में दफना दिया। पुलिस ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया है। वारदात से स्तब्ध स्थानीय लोगों ने हत्यारों को कड़ी सजा देने की माग पर रविवार सुबह कृष्णानगर-नवद्वीप रोड पर छह घंटे तक चक्का जाम किया। पुलिस के हस्तक्षेप से स्थिति सामान्य हुई। यही इन दिनों रोज रोज का जिंदगीनामा है।नाबालिग मासूम बच्चे नशे के शिकंजे में हैं और आपराधिक वारदात में पेशेवर अपराधी की तरह वे बड़े पैमाने पर शामिल हो रहे हैं।इस अराजकता से तो बेहतर सत्तर दशक की राजनीतिक चेतना थी। बंगाल के जनपदों में और सीमावर्ती इलाकों में गांवों और शहरों से बड़े पैमाने पर बच्चे रोजगार की तलाश में रोज सियालदह,कोलकाता और हावड़ा से ट्रेनों में भर भर कर दूसरे राज्यों को निकल रहे हैं।
जो बाकी बचे हुए हैं,उनके लिए रोजगार नशा है।अपराध,तस्करी है।
वे तेजी से गिरोहबंद हो रहे हैं।
माफिया में शामिल हो रहे हैं।
ऐसे तमाम गिरोहों और माफिया दुश्चक्र को राजनीतिक संरक्षण है।
राजनीति और माफिया के शिकंजे में हैं परिवार,समाज।
अब गावों तक में बार रेस्तरां खुल गये हैं।शहरों के हर मोहल्ले में कई कई शराब की दुकानों के अलावा बार रेस्तरां हैं।ऩशे का इंतजाम इफरात है।सिगरेट,बीड़ी,खैनी पर पाबंदी है,लेकिन शराब पर पाबंदी नहीं है।
सिगरेट,बीड़ी,तंबाकू,खैनी से कैंसर का डर है।
शराबखोरी पर कोई रोक नहीं है।
खस्ताहाल राजकोष के लिए शराब राजस्व का खजाना है।
बिहार में शराबबंदी हो जाने से झारखंड और बंगाल में शराबी पर्यटन बढ़ा है।बिहार और झारखंड से लगे इलाकों में शराब फायदे का कारोबार है।
इसमें हर्ज भी शायद कोई नहीं है।
मुक्त बाजार में उपभोक्तावाद संस्कृति है उपभोक्ता को भोग की आजादी है।
जाहिर है कि शराब भी उपभोक्ता वस्तु है।
शिक्षा भी उपभोक्ता वस्तु है।
शिक्षा क्रयशक्ति पर निर्भर है।
शिक्षा में अब शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं है।हर गली मोहल्ले में कोचिंग सेंटर मशरूम की तरह उग आये हैं और तकनीकी ज्ञान की तमाम दुकाने हैं,जिनका कोई रेगुलेशन नहीं है।न शिक्षकों और ट्रेनरों के नियंत्रण में बच्चे हैं। अव्वल तो स्कूल कालेज विश्वविद्यालय परिसर भी शिंकजे में है।इसपर तुर्रा यह कि कोचिंग सेंटरों और प्रशिक्षण केंद्रों में बच्चे अब संस्थागत शैक्षणिक प्रतिष्ठानों की निगरानी या नियंत्रण में नहीं है। मोबाइल और सोशल मीडिया के जरिये उनकी दोस्ती किससे कहां और कैसी हो रही हैं,माताओं के लिए जान पाना बेहद मुश्किल है।जब जान लेती है तब तक बच्चे समाजविरोधी आराधिक मानसकिता के शिकार होकर आत्मध्वंस के राजपथ पर निकल चुके होते हैं। स्त्री सशक्तीकरण के जमाने में भी ये माताएं गांधारी की तरह असहाय हैं।
(सबिता बिश्वास)
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