ओबीसी जातियों के बाद संघ और भाजपा मानती है कि दलितों को साथ लिए सत्ता पाना आसान नहीं हैं। यही वजह है कि 2017 विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा एवं संघ ने दलित जोड़ों भाईचारा अभियान के तहत दलितों के घर-घर जाकर न सिर्फ उनके साथ भोजन किया, बल्कि समाज व देश की मुख्यधारा से जोड़ने का उन्हें सपना भी दिखाया। अब जब वह सरकार में है और बात उनके हिस्सेदारी की उठी तो टालमटोल कर रही है। ताजा उदाहरण एक भी दलित का मंत्रीमंडल में न होना हैं? जबकि मोदी-अमित शाह चुनौती देते फिर रहे है कि 2017 जीता 2019 भी जीतेंगे, माया-मुलायम का कहीं अता-पता नहीं होगा, वह साथ-साथ ही क्यों न हों? ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या दलितों की उपेक्षा कर मोदी 2019 फतह करेंगे?
बेशक, भाजपा ने अगर यूपी में प्रचंड बहुमत पाई है तो इसमें पिछड़ों व दलितों का बड़ा योगदान हैं। माया-मुलायम के दावों के विपरीत बड़ी संख्या में दलित व ओबीसी ने भाजपा के पक्ष में वोटिंग की हैं। अगर ऐसा हुआ है तो उसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व अमित शाह को ही जाता है। क्योंकि टिकट बटवारे में अमित शाह की शोसल इंजिनियरिंग में दलित व पिछड़ों को टिकट बटवारे में जगह जगह मिली। परिणाम यह हुआ है कि यूपी में बड़ी संख्या में दलित व पिछड़े विधायक चुनकर आएं हैं। यह अलग बात है जब वादे के मुताबिक उनके हिस्सेदारी की बात आई है तो दलित हासिए पर चले गए हैं। योगी के इस जम्बो मंत्रीमंडल में किसी भी दलित को जगह नहीं मिली है। यहां दलित से मतलब चमार जाति से हैं। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह एवं संघ चुनावों को देखते हुए दलितों को जोड़ने के लिए तरह-तरह के प्रयास कर रही है। लेकिन लगता है कि दलितों को जोड़ना भाजपा के लिए मिट्टी में रेत बांधने जैसा हो गया है। इस तरह के आरोप अक्सर मायावती भाजपा पर लगाती रही है। यह अलग बात है कि भाजपा इस तरह के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए दावा करती है कि मोदी सरकार ने बाबा साहेब अंबेडकर के लंदन वाले घर को खरीदकर उसे मेमोरियल बनाया।
हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नागौर में हुई प्रतिनिधि सभा में मंच के बीच में अंबेडकर की तस्वीर रखी और आयोजन मंडप का नाम बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर रखा। इसके अलावा संघ परिवार और भाजपा 90 के दशक से ही दलितों के बीच सामाजिक समरसता अभियान चला रही है। हाल के दिनों में उसे तेज भी किया है और इसमें अनेक बदलाव भी किए गए हैं। सामाजिक समरसता अभियान दलित बस्तियों में जाकर उनके साथ भोजन करना भर ही नहीं है, बल्कि हिन्दुस्तान की पवित्र नदियों और तीर्थस्थलों पर दलितों के साथ नदी में स्नान और दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाना शुरू किया गया है। इन सारे अभियानों का एक ही लक्ष्य है, हिन्दुत्व की राजनीति यानि संघ परिवार और भाजपा से दलितों को जोड़ना है। परिणाम यह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को बड़ी संख्या में दलित वोट मिला है। फिरहाल, माना भाजपा के इस दावे में सच्चाई है, लेकिन जब वह सत्ता में है और खुद कहती फिर रही है कि दलितों का वोट मिला है तो उसे सत्ता सुख से देर क्यों रखा जा रहा है? अगर योगी मंत्रीमंडल में पूरे यूपी से किसी दलित यानी चमार जाति को जगह नहीं मिली है तो सवाल उठना लाजिमी है कि क्या भाजपा दलित विरोधी है।
खास यह है कि इस मंत्रीमंडल गठन में चाहे दलित हो या अन्य पिछड़ी जातियां उनकी संख्या बल पर नहीं बल्कि अपने चहेतों को जगह दी गयी है। ताज्जुब इस बात का है कि इस मंत्रीमंडल में जीत कर आएं विधायकों की वरिष्ठता एवं अनुभव का बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया है। कुछ विधायक तो ऐसे है जो पहली बार जीते है लेकिन उन्हें न सिर्फ मंत्रीमंडल में रखा गया बल्कि मलाईदार विभागों से भी नवाजा गया है। दुसरे दलों से आएं कार्यकर्ताओं व विधायकों को जगह देने की बात तो समझ में आती है लेकिन पार्टी के ही उन विधायकों की उपेक्षा कर दी गयी जो या तो सीनियर है या पार्टी के लिए दलित वोट बटोरने में महती भूमिका रखते हैं। इतना ही नहीं मंत्रीमंडल में करीब-करीब सभी जिलों व मंडलों से किसी न किसी को जगह मिली है, लेकिन मिर्जापुर मंडल नदारद है। यहां के भदोही, मिर्जापुर और सोनभद्र से एक भी मंत्री नहीं हैं। हालांकि यह संभव है आगे मंत्रीमंडल विस्तार में इस इलाके को मंत्रीमंडल में जगह मिले, फिरहाल अभी तो नहीं हैं।
हो जो भी भाजपा की यही छोटी-छोटी खामियां लोकसभा चुनाव के दौरान माया-मुलायम के हथियार बनेंगे, इंकार नहीं किया जा सकता। मायावती इन्हीं कमियों का हवालाउ देकर कह सकती है कि भाजपा दलित यानी चमार विरोधी हैं। क्योंकि चमार जाति के साथ खाना खाकर न सिर्फ उसे बरगलाया, बल्कि वोट भी हासिल की, फिर भी उसे मंत्रीमंडल से बाहर रखा गया। वह कह सकती है कि जब चुनाव आता है तो भाजपा को दलित याद आता है लेकिन जब उसके हिस्सेदारी की बात आती है तो ठेंगा दिया जाता है। हालांकि भाजपा का दावा है कि अनुसूचित जाति से दो मंत्री कोरी जाति से लिए गए है और एक मंत्री पासी विरादरी से लिये गये है। लेकिन यह सच है कि कोरी विरादरी प्रदेश में सिर्फ और सिर्फ 3 से 4 जिलों में ही पाई जाती है। जबकि प्रदेश में 22 फीसदी आबादी वाले अनुसूचित जाति में 16 फीसदी अकेले चमार जाति के वोटर है। इसके बावजूद चमार जाति का कोई भी विधायक मंत्री मंडल में शामिल नहीं किया गया है।
ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है कि क्या 2019 का सपना देखने वाली भाजपा के पास क्या एक भी कोई कद्दावर चमार जाति का नेता नहीं है, जो मायावती को चुनौती दे सके। या फिर बसपा को कमजोर कर सके। जबकि ऐसा नहीं है, मायावती को मुहतोंड जवाब देने के लिए भाजपा में एक-दो नहीं कई नेता है जो मायावती को खुलकर चुनौती देते रहे है और आगे भी देने की क्षमता रखते हैं। भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके पास मायावती की नींद हराम कर देने वाले दीनानाथ भास्कर है जो औराई विधानसभा से विधायक हैं। ये वहीं भास्कर है जो काशीराम के पैरेलल नेता कहे जाते है और उनके बढ़ते कद को ध्यान में रखकर मायावती लगातार उनकी उपेक्षा करती रही हैं। बावजूद इसके वह दलितों को एकजूट करने में सफल रहे है और औराई में उनकी भारी मतों से जीत प्रमाण हैं। जनाधार वाले नेता भास्कर के इस लोकप्रियता का ही तकाजा रहा कि जब भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला तो सबे पहले उनका नाम मंत्रीमंडल में शामिल किए जाने की बाते प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया की हेडलाइन बन गयी थी। ऐसे में थिंकटैंक कहीं जाने वाली पार्टी से चूक कैसे हो गयी यह भी एक बड़ा सवाल है।
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