मुख्यमंत्री योगी अगर मोदी के नक्शेकदम पर चले तो यूपी न सिर्फ भ्रष्टाचार, गुंडाराज मुक्त होगा, बल्कि सुशासन का राज कायम होगा। क्योंकि चाहे वह कानून-व्यवस्था हो या फिर योजनाओं की गुणवत्ता यह तभी संभव है जब नेतृत्व ठीकठाक हो। यह तभी संभव है जब मुखिया चापलूस मुक्त हो। चापलूस यानी मुख्यमंत्री के करीबी होने का क्षेत्र में ढिढोरा पीटता फिरे और उन पर अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग का दबाव बनाएं, अनर्गल काम कराएं
बेशक, अखिलेश यादव की विफलताओं की समीक्षा करें तो सबसे बड़ा वजह उनका चापलूसों से घिरा होना ही रहा। न चाहते हुए भी उन्होंने आइएएस अमृत त्रिपाठी व यादव सिंह जैसे भ्रष्ट अफसरों की जिलों में तैनाती की, जिसकी पैरवी उनके अपने मित्र, उनकी अपनी बीबी, भाई-भतीजे, चाचा शिवपाल, रामगोपाल, आजम खान समेत क्षेत्रीय माफिया, बाहुबलि व जिला कमेटी के पदाधिकारियों ने की। यही ट्रासंफर-पोस्ंिटग, भर्ती, ठेका न सिर्फ चापलूसों की कमाई का जरिया बन गया, बल्कि अखिलेश के पतन की वजह भी। अब ऐसी गलतियों की पुनरावृत्ति ना हो इसके लिए मुख्यमंत्री योगी को सजग रहना होगा। क्योंकि सत्ता संभालने के बाद योगी का खासमखास होने का ढिढोरा पीटा जाने लगा है। यह ढिढोरा कोई और नहीं बल्कि उनके अपने कार्यकर्ता, पार्टी पदाधिकारी, विधायक-मंत्री व उनके नात-हित ही है। जो लगातार भ्रष्ट अफसरों, सचिवों, आइएएस, पीसीएस, आइपीएस, यहां तक थानों के दरोगाओं व सिपाहियों के संपर्क में है और आश्वासन देते फिर रहे है ‘घबराइए नहीं जल्द ही आपको मलाईदार कार्यालयों, थानों, जिलों एवं विभागों में करा देंगे, बस हमारा ख्याल रखिएगा‘।
मतलब साफ है अगर योगी जी को यूपी को उत्तम प्रदेश, हरा-भरा प्रदेश, गुंडाराज मुक्त प्रदेश, भ्रष्टाचार मुक्त प्रदेश बनाना है तो ‘चापलूसों‘ से दूर रहना होगा। कहीं कोई गड़बड़ी मिलती है तो खुद या भरोसे वालों से छानबीन करानी होगी। बालू खनन से लेकर माइन्स खनन, सड़क समेत अन्य निर्माण कार्यो, खाद्यानों के वितरण व ट्रांसफर पोस्टिंग पर पैनी निगाह रखनी होगी। ठीक उसी तरह जैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने विभागीय कार्यालय के सचिवों, मंत्रियों, सांसदों व पार्टी पदाधिकारियों के दबाव में आएं बगैर निर्णय दर निर्णय ले रहे है और वह सफल हो रहा है। यह प्रधानमंत्री की कड़ाई का ही प्रतिफल है कि नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर अगर विभागों में कोई नए घोटाले अब तक मीडिया की सुर्खिया नहीं बन सकी है। लाखों-करोड़ों लेकर विभिन्न योजना आयोगों के चेयरमैन नहीं बनाएं बनाए जा सके हैं। मोदी यूपी के हालात को भी अच्छी तरह समझ रहे है। वह जानते है कि अगर यूपी जनता के सपनों व खुद के अपने वादों पर खरा नहीं उतरा तो 2019 की डगर आसान नहीं होगी। शायद यही वजह है कि मोदी ने चाय पिलाने के बहाने सांसदों को सख्त हिदायत दी है कि ट्रांसफर पोस्टिंग से दूर रहें। बेवजह पुलिस अधिकारियों पर दबाव न डालें। भदोही सांसद का नाम तो उन्होंने नहीं लिया, लेकिन स्पष्ट शब्दों में कहा खनन माफियाओं व बाहुबलियों से सटने की जरुरत नहीं हैं। ‘सुशासन हमारा मूल मंत्र है। आपने बहुत मेहनत की है और अब इसे बना कर रखना है।’ प्रशासन को अपना काम करने दें। अगर गलत काम करेंगे तो अधिकारी परिणाम भुगतेंगे। कुछ ऐसा ही मुख्यमंत्री योगी जी को भी अपने मंत्रियों, विधायकों, पार्टी पदाधिकारियों को भी हिदायत देनी होगी। उन्हें चैकन्ना रहने की सलाह देते हुए हित-नात तथा सगे-संबंधियों, माफियाओं, बाहुबलियों से दूरी बनाएं रखनी होगी। अगर ऐसा योगी जी करने में सफल रहे तो यूपी में सुशासन का राज स्थापित होने में कहीं कोई अड़चन नहीं आयेगी और अगले कई चुनावों तक जनता का आर्शीवाद मिलता रहेगा।
वैसे भी प्रधानमंत्री ने यूपी की कमान एक ऐसे संन्यासी के हाथ में दी है, जिसके पूर्व संन्यास की अस्मिता जिंदा है। कहा जाता है कि जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। लेकिन एक ऐसा साधु, जिसकी जाति और अस्मिता सबको पता है। बावजूद इसके योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बना कर साल 2019 के लिए एक सामाजिक संदेश भेजने का प्रायोजन मोदी द्वारा किया गया है। दो उपमुख्यमंत्रियों- केशव प्रसाद मौर्य और दिनेश शर्मा- का बनाया जाना, इस बात का संकेत है कि यूपी की राजनीति साल 2019 के आम चुनावों की बिसात के लिए ही बिछायी गयी है। यहां महत्वपूर्ण सवाल है 20-22 प्रतिशत दलितों और 19 प्रतिशत मुसलिमों के लिए उपमुख्यमंत्रियों का पद नहीं हो सकता था क्या? लेकिन, साढ़े सात प्रतिशत क्षत्रिय के लिए मुख्यमंत्री का पद और सात प्रतिशत ब्राह्मण के लिए उपमुख्यमंत्री का पद दिया गया है। इसका संदेश बिल्कुल साफ है कि अगले पांच सालों तक राज्य में दलितों और मुसलमानों को फिर से एक बार नजरअंदाज किया जायेगा। यानी राज्य में विकास की धारा के अंदर इन दो वर्गों के लिए कोई विशेष प्रकार का प्रायोजन नहीं होगा। यह बात प्रमाणित है कि जब दलित और मुसलिम जैसी खंडित अस्मिताओं के लिए योजनाएं बनती हैं, तो उनके साथ भेदभाव होता है, इसलिए उनके लिए कुछ चीजें आरक्षित कर दी जाती हैं या विशेष प्रायोजन किये जाते हैं, जिसे लोग तुष्टिकरण या आरक्षण कहते हैं। अब क्या इस आरक्षण पर संकट आने की संभावना दिखती है, आने वाले दिनों में यह एक बड़ा प्रश्न होगा।
फिरहाल, मोदी एक कुशल, बुद्धिमान राजनीतिज्ञ है, सं इंकार नहीं किया जा सकता। वह उस युवा भारत के अधूरे अरमानों को पूरा करने में जुटे है जो सालों से उपेक्षित हैं। उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग व जातियता के खेल के विरुद्ध ‘सबका साथ, सबका विकास’ का चयन कर जनता को अपने साथ जोड़ा है या जुड़ने की मुहिम चला रखी है। उन्होंने स्वयं कठिन परिश्रम तो प्रारंभ किया ही, मंत्रियों तथा नौकरशाही द्वारा भी अपना अनुकरण किये जाने पर जोर दिया। भ्रष्टाचार के निवारणार्थ उन्होंने चतुर्दिक चैकस निगाहें स्थापित कीं। वैश्विक आर्थिक मंदी की चपेट का सामना करते हुए उन्होंने अर्थव्यवस्था की स्थापित धारणाओं को नवोन्मेषी प्रयासों से विस्थापित करना चाहा, जिसका जीडीपी पर कुछ विपरीत असर भी पड़ा। बिहार के चुनावों के वक्त विपक्ष ने उनके इन प्रयासों के नतीजों की कमियां भुनाने की कोशिश करते हुए एकजुट होकर उन्हें शिकस्त भी दी, पर अपने भीतर सीखने की तीव्र प्रवृत्ति के बूते उन्होंने वे संकेत समझे, अपने तरीके में नयी जान डाली और सामाजिक वर्ग-विभेदों को एक सूत्र में संगठित कर उन्हें विकासात्मक अर्थव्यवस्था के आवरण तले ला खड़ा किया। यूपी-उत्तराखंड चुनावों के नतीजों ने जहां राजनीतिज्ञों के भ्रम दूर किये, वहीं राजनीतिक पंडितों को स्तब्ध कर दिया। उन्होंने अपनी अहम राजनीतिक जमापूंजी दांव पर लगा कर भी विमुद्रीकरण जैसे बदलावमूलक अस्त्र के इस्तेमाल से ‘सामाजिक न्याय’ और ‘आर्थिक समृद्धि’ के उन्हीं नारों को ‘विकासात्मक अर्थव्यवस्था’ से युक्त करने की कोशिश की है। भ्रष्ट तथा प्रभावित तत्व उन पर समाज को धनी और गरीब वर्गों में बांटने का आरोप मढ़ रहे हैं, पर वह विभेद तो वैश्विक रूप से पहले से ही मौजूद है, जो अनेक राष्ट्रों में दक्षिणपंथी एवं संरक्षणवादी शक्तियों के उदय की वजह भी बना है। मोदी उसी के साफ संकेतों का उपयोग कर विभेदों के तानेबाने से अलग बंटे समाज को एकजुट करने और एक समृद्ध भारत के निर्माण में लगे है।
(सुरेश गांधी)
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