वर्तमान में पश्चिम बंगाल के जो हालात हैं, वह किसी से छिपे नहीं हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि बंगाल में हिंसा को लेकर राज्य की सरकार द्वारा पक्षपाती राजनीति की जा रही है। सरकार का संचालन करने वाली ममता बनर्जी जहां अप्रत्यक्ष रुप से केन्द्र सरकार को आड़े हाथ ले रही हैं। वहीं संवैधानिक पद पर आसीन राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी की सलाह को भी दरकिनार कर रहीं हैं। ममता बनर्जी का राजनीतिक इतिहास बताता है कि वह राज्य सरकार की जिम्मेदारी के लिए भी केन्द्र सरकार को दोषी ठहराने में पीछे नहीं रहती। जबकि यह सभी जानते हैं कि राज्य की कानून व्यवस्था राज्य सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है। यह बात सही है कि कानून व्यवस्था ठीक नहीं होने पर राज्यपाल सरकार को सलाह देने का संवैधानिक अधिकार रखते हैं। पश्चिम बंगाल में राज्यपाल की सलाह को दरकिनार ही नहीं किया गया, बल्कि उन्हें भाजपा का तोता तक कह दिया। यह वक्तव्य मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा राज्यपाल का अपमान करने की श्रेणी में आता है।
हालांकि देश में कई अवसरों पर ऐसे हालात पैदा हुए हैं, जिसमें मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच मतभेद सामने आए, लेकिन इसके बाद भी संवैधानिक मर्यादाओं का पालन किया गया। पश्चिम बंगाल में मर्यादा टूट रही हैं। वास्तव में राज्य सरकार को हिंसा पर काबू करने का प्रयास करना चाहिए था, लेकिन ममता बनर्जी ने जैसी सक्रियता दार्जिलिंग की हिंसा के बारे दिखाई थी, वैसी 24 परगना में क्यों नहीं दिखाई, यही सवाल वर्तमान में उभर रहा है। पूरी घटना के पीछे का सच देखा जाए तो मात्र इतना ही है कि एक छोटे से बालक ने अपनी फेसबुक पर आपत्तिजनक पोस्ट कर दी थी, वैसे आजकल सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्ट बहुतायत में हो रही हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसको आधार बनाकर हिंसा जैसा रुप दिखाया जाए। एक वर्ग विशेष की हिमायती दिखने की लालसा में ममता बनर्जी ने हिंसा के जिम्मेदार लोगों के विरोध में कोई बयान नहीं दिया। उन्होंने इस मामले में पूरी तरह से राजनीति रुख अपनाया है। वास्तव में राज्य की हिंसा के लिए राज्य सरकार ही पूरी तरह से दोषी होती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि राज्य सरकार ने इस हिंसा के मामले में अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी के साथ निर्वाह नहीं किया।
वास्तव में लोकतंत्र की मर्यादा को ध्यान में रखा जाए तो किसी भी सरकार को पक्षपात पूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहिए। मुख्यमंत्री सबका होता है, किसी एक राजनीतिक दल का भी नहीं। फिर मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर बैठकर ममता बनर्जी इस हिंसा को राजनीतिक नजरिए से क्यों देख रही हैं। हालांकि यह हो सकता है कि अपनी कमी को छिपाने के लिए उसका आरोप किसी और दल पर लगा दिया जाए। यही तो ममता बनर्जी ने किया है। उन्होंने राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद की मर्यादाओं को ताक पर रख दिया है। हमें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के कार्य व्यवहार से कुछ सीखना चाहिए। वर्तमान में देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भाजपा की पृष्ठभमि के हैं और राष्ट्रपति कांगे्रस की पृष्ठभूमि के हैं। अगर दोनों राजनीतिक रुप से विचार करते तो संभवत: एक दूसरे के विरोधी हो जाते, लेकिन कांगे्रसी पृष्ठभूमि के होने के बाद भी राष्ट्रपति ने कभी भी इसका आभास नहीं होने दिया। यही बात प्रधानमंत्री के साथ है, जिसमें उन्होंने राष्ट्रपति को पूरा सम्मान देते हुए उन्हें अपना पिता तुल्य माना। प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रुप से कहा भी है कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पिता तुल्य मार्गदर्शन दिया है। ममता बनर्जी को केन्द्र में प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति पद पर आसीन व्यक्तियों से प्रेरणा लेनी चाहिए। अगर सुश्री बनर्जी को राज्यपाल की किसी बात पर असंतोष था, तब उनका नाराजगी व्यक्त करने का अंदाज सभ्य होना चाहिए। वास्तव में ऐसे ही तालमेल से देश और प्रदेश को विकास और शांति के मार्ग पर चलाया जा सकता है। लेकिन राजनीतिक विद्वेष की अवधारणा को अंगीकार करने वाली ममता बनर्जी ने जिस प्रकार की राजनीति की है, वह संवैधानिक मर्यादाओं का खुला उल्लंघन ही माना जाएगा। क्योंकि राज्यपाल किसी भी प्रदेश का संवैधानिक मुखिया होता है और इस नाते उनकी प्रथम जिम्मेदारी तो यही होती है कि राज्य की राजनीतिक सत्ता का संचालन करने वाली मुख्यमंत्री को उचित समय पर मार्गदर्शन दिया जाए। आखिर राज्यपाल भारतीय शासन व्यवस्था में राज्य सरकार का प्रमुख होता है। मुख्यमंत्री व मंत्रीमंडल में हालांकि व्यावहारिक शक्तियां निहित रहती हैं, लेकिन उनका वास्तविक धारक राज्यपाल ही है। अब अगर राज्यपाल राज्य के शासन में अच्छे-बुरे पर कुछ बोल ही नहीं सकता, तब वह अपने संवैधानिक दायित्वों को भला कैसे निभा पाएगा? ममता बनर्जी द्वारा राज्यपाल के लिए अभद्र भाषा का प्रयोग करना वास्तव में निन्दनीय कृत्य ही कहा जाएगा।
जहां तक पश्चिम बंगाल की बात है, ममता बनर्जी हर मामले में केन्द्र सरकार के साथ टकराव की स्थिति पैदा कर लेती हैं। उन्हें भाजपा सरकार के हर निर्णय में साजिश की बू नजर आती है। अनेक दफा उन्हें राज्य सरकार की नाकामियों को छुपाने के लिए ठीकरा केन्द्र सरकार के सिर फोड़ा है। यह बिना तोल-मोल की भाषा ही है, जिस कारण ममता बनर्जी सुर्खियों में बनी रहती हैं। ताजा घटनाक्रम में ममता बनर्जी ने हदें ही पार कर दी हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री व राज्यपाल के बीच विचार-विमर्श की गोपनीयता की परम्परा का भी अपमान किया है। परिस्थितियां ऐसी हो गई हैं कि पश्चिम बंगाल में संसदीय मर्यादा एक तमाशा बन गई है। जबकि देश में पश्चिम बंगाल के बाहर संसदीय मयार्दाओं की बेहतरीन मिसालें भी हैं।
बंगाल में मालदा दंगो में हिंदुओं पर अत्याचार हो या वीरभूमि में हनुमान भक्त के ऊपर लाठीचार्ज या हाल ही में 24 परगना जिले में आगजनी हो ऐसे ही न जाने कितनी घटनाएं पिछले कुछ सालों के अंदर बंगाल में घटित हुई हैं जिनमें हिंदुओं के साथ अत्याचार की घटनाएं सामने आई हैं। इन सभी घटनाओं ने ममता सरकार और प्रशासन को कठघरे में खड़ा किया है। लेकिन वोट बैंक की राजनीति इन अत्याचारों को दबाती नजर आयी है। इसी के चलते पिछले समय मे हाईकोर्ट ने ममता सरकार पर वोट बैंक की राजनीति करने के लिए फटकार भी लगाई थी। जहाँ एक तरफ बुद्धजीवी मीडिया और अवार्ड वापसी गिरोह पूरे देश मे केवल कथित बीफ विवाद खोज कर केवल केंद्र सरकार को घेरने में लगी है। चाहें उत्तरप्रदेश का अखलाख हो या फिर हरियाणा का जुनैद विवाद चाहे ट्रैन में सीट का हो या और कोई बस ये बुद्धजीवी डिजायनर पत्रकार देश मे एक नया माहौल खड़ा करने में लग जाते हैं और देश को अल्पसंख्यक विरोधी माहौल बताने लग जाते हैं लेकिन यही डिजायनर पत्रकार कश्मीर में शहीद अयूब खान की मौत पर एक शब्द बोलने तक कि जहमत नहीं उठाते। इन्हें पत्थरबाजों पर सैनिकों की पैलेट गन तो दर्द देती है लेकिन सेना के शहीद सैनिक के लिए दो शब्द तक नहीं निकलते। इसी प्रकार बंगाल और कश्मीर में हिंदुओं की हजारों हत्याओं पर इन बुद्धजीवी पत्रकारों को साँप सूंघ जाता है। ऐसी दोहरी मानसिकता देश में एक विभाजन माहौल पैदा कर रही हैं जो देश के लिए खतरनाक साबित हो रही है।
सुरेश हिन्दुस्थानी
झांसी, उत्तरप्रदेश पिन- 284001
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(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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