कल शर्मा जी गली के नुक्कड़ पर मिले। हमसे कहने लगे हमारी तो आस्था भगवान-वगवान में बिलकुल भी नहीं है। मैं तो बिलकुल ही घोर नास्तिक हूं। मैंने कहा - चलो, भाई ! जिसकी जैसी सोच। फिर अगले दिन शर्मा जी को मंदिर में अपनी धर्मपत्नी के साथ हवन कराते हुए देखकर मेरी आंखें फटी की फटी रह गयी। मैं शर्मा जी केे पास गया और बोला - यार ! शर्मा तुम कल तो गली के नुक्कड़ पर बडा ही अनास्था का ढोल पीट रहे थे। खुद को घोर नास्तिक होने का तमगा दे रहे थे। लेकिन, ऐसा क्या हुआ कि रातोंरात जिससे तुम्हारी फितरत ही बदल गयी। शर्मा ने मुझे अपनी पत्नी से थोडा दूर ले जाकर बताया कि भाई मैं नास्तिक तो कल भी था और मैं नास्तिक आज भी हूं। भले मेरी आस्था भगवान में न हो लेकिन पत्नी देवी में तो है। मैं समझ गया शर्मा पत्नी परमेश्वर का पक्का भक्त है। क्योंकि शर्मा की शादी को हुए कुछ ही दिन बीते है। अभी तो हाथ की मेंहदी भी नहीं उतरी है। मित्र शर्मा भक्त का उम्दा उदाहरण है। भक्त भाव से अपने भगवान की आराधना करता है। जैसे राम भक्त हनुमान थे। शर्मा से मुझे खतरा नहीं है। भक्त होना कोई बुरी बात नहीं है। मुझे खतरा तो अपने दूसरे मित्र वर्मा से है, जो शर्मा की तरह पत्नी-वत्नी का भक्त तो नहीं है, पर नेताओं का अंधभक्त पक्का है। वर्मा नेताओं को ही अपना आराध्य मानता है। किसी पार्टी विशेष का प्रशंसक है। उस पार्टी पर पूर्णतः मुग्ध है और खुद पर आत्ममुग्ध भी। बिलकुल ही अंधा है। यदि उसकी पसंद की राजनैतिक पार्टी और राजनेताओं को जरा भी गलत काम के लिए गलत कह दिया तो वो झगडने, लडने और मारने-कूटने पर उतर आता है। बस ! उसके लिए अपना ही दल और नेता सर्वश्रेष्ठ है। लगता है दल वालों ने उसके विवेक का अपहरण कर दिया है। आंखें फोड दी है और पार्टी का चश्मा पहना दिया है। उसकी रग-रग में जितना खून नहीं दौडता, उतना तो पार्टी के प्रति प्रेम उबाल मारता है। अब उसके सामने उसकी पार्टी के बारे में भला बुरा-भला कहने की कोई हिमाकत भी कर सकता है ! वर्मा तो उदाहरण मात्र है, ऐसे अंधभक्त भारत वर्ष में यत्र-अत्र-सर्वत्र मौजूद है। इनसे ही हर बार भारतीय लोकतंत्र ठगा जाता है। यह अंधभक्त चुनाव के समय बोतलों के भाव बिक जाता है। शर्मा और वर्मा के बाद मेरा तीसरा मित्र विश्वकर्मा है, जो इन दोनों से भी आगे जाकर पागलपंत की श्रेणी में है। यह बिलकुल ही पागल है। जैसे कोई दीवाना किसी की दीवानगी में पागल होता है। वैसे ही यह पार्टी के प्रेम में पागल है। यह पार्टी के लिए जान भी दे सकता है और ले भी सकता है। बडा ही खूनी किस्म का मजनूं है। इसको कितना भी समझाओ सबकुछ व्यर्थ है। अपना ही टाइम खराब करना है। यह इतना पागल है कि दूसरों को भी पागल कर सकता है। ऐसे पागलों की भी भारत में कोई कमी नहीं है। यह पागल जाति में, धर्म में, गौत्र में, वर्ग में, श्रेणीे आदि में है। ये पागलपंत खबरिया चैनलों पर एंकर की भावनाओं का अतिक्रमण करके उत्पात मचाते हुए नजर आता है, तो सोशल मीडिया पर अपनी पोस्टों व कमेंटों के माध्यम से अपने पागल होना का पक्का सबूत भी देता है। ऐसे मित्रों से दूरी ही भली है।
- देवेंद्रराज सुथार
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