जब से पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए आरक्षण हुआ है, तब से महिलाओं की स्थानीय शासन में भागीदारी काफी बढ़ी है। वहीं दूसरी ओर ‘सरपंच पति’ गांव के लिए पंचायत का एक नया पद हो गया है। पूरे भारत में यह पद सरपंच से अधिक प्रभावी है। महिला आरक्षित सीट होने पर परिवार के पुरूष सदस्यों द्वारा अपनी पत्नी, बेटी व बहू को चुनाव में खड़ा कर दिया जाता है और उनके जीतने के बाद पंचायत का काम घर के पुरूष सदस्यों द्वारा किया जाता है। अनुभवहीन महिला सरपंचों की मदद की आड़ में वास्तव में पुरूष वर्ग के लोग उनसे उनका अधिकार छीनने में लगे हुए हैं। यह पुरूष वर्ग महिलाओं की स्थानीय शासन में भागीदारी में सबसे बड़ा बाधक है। पंचायत चुनावों की संशोधित नीतियों की दृष्टि से प्रगतिशील कहे जाने वाला कर्नाटक राज्य भी इन कहानियों से अछूता नहीं है।
एक ऐसी ही कहानी महादेवी चौगुले की है। महादेवी चौगुले उम्र के 47 पड़ाव पार कर चुकी हैं और केवल दूसरी कक्षा तक उन्होंने शिक्षा हासिल की है। महादेवी चौगुले वनटामुरी पंचायत की उपाध्यक्ष हैं। वनमुटारी पंचायत कर्नाटक के बेलगाम जिले के बेलगाम ब्लॉक में आती हैं। महादेवी 2015-16 के पंचायत चुनाव में महिला सीट पर चुनकर आई थीं। वनटामुरी पंचायत में कुल नौ गांव हैं। महादेवी के परिवार में तीन बच्चों को मिलाकर कुल पांच सदस्य हैं। ओ.बी.सी जाति की महादेवी के पति भी 2010 में इसी पंचायत के सदस्य रह चुके हैं। वनटामुरी पंचायत की जनसंख्या 9730 है जिसमें 5092 पुरूष व 4638 महिलाएं हैं।
महादेवी के पति चौगुले सरपंच पति के एक सटीक उदाहरण हैं। उनका कहना है कि महादेवी ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हैं, पंचायत सम्बंधित कागजातों को पढ़ नहीं पाती, इसीलिए वह उनके सभी काम करते हैं फिर चाहे वह प्रशासन के काम हों या विकास के, महादेवी की भूमिका केवल हस्ताक्षर करने भर की है। महादेवी का पंचायत चुनाव में प्रतिभाग करने का कोई मन नहीं था लेकिन उनके पति ने उन्हें चुनाव में जाने के लिए राज़ी किया और उनका नामांकन फार्म भरा। महादेवी के पति ने उपाध्यक्ष पद के लिए मांगे गए सभी दस्तावेज एकत्रित किये। उपाध्यक्ष के पद पर महादेवी जीत भी गयीं। महादेवी को पंचायत के काम काज के लिए सशक्त बनाने के बजाय पंचायत का सारा काम-काज उनके पति करते हैं। महादेवी सिर्फ दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करती है।
महादेवी से जब पंचायत के काम-काज के बारे में पूछा गया तो महादेवी पंचायत के कुछ ही कामों जैसे पीने के पानी का इंतेज़ाम, शौचालय व सड़क निर्माण आदि कार्यों की ही जानकारी दे पायीं बाकी योजनाओं का विवरण उनके पति के ज़रिए दिया गया। पंचायत में विकास कामों के कार्यान्वयन की पूरी ज़िम्मेदारी महादेवी के पति ही देखते हैं। पंचायत के काम-काज के सिलसिले में उनके पति ही अधिकारियों से मिलने जाते हैं। महादेवी अधिकारियों से मिलने में असहज महसूस करती हैं इसलिए यह ज़िम्मेदारी उनके पति ही देखते हैं।
यह कहानी सिर्फ महादेवी की नहीं हैं। राज्य में महादेवी जैसी कहानियों की भरमार है जहां पर सरपंच पति मेन रोल में हैं। एक ऐसी ही कहानी बेलगाम ज़िले के हुक्केरी ब्लाक के शबंदर ग्राम पंचायत की 50 वर्षी फरज़ाना दस्तगीर मुल्ला की है जो पंचायत की मौजूदा अध्यक्ष हैं। शबंदर ग्राम पंचायत में कुल छह गांव हैं। पंचायत की कुल आबादी 3411 हैं जिसमें महिलाओं की आबादी लगभग 3479 है। शबंदर ग्राम पंचायत में कुल 21 सदस्य जिसमें 12 महिलाएं हैं। फरज़ाना का परिवार पुरूष प्रधान है और उनके परिवार में निर्णय पुरूष सदस्यों द्वारा लिया जाता है। तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए फरज़ाना ने बड़ी मुश्किल से कक्षा 10 तक की शिक्षा हासिल की और मात्र 18 साल की उम्र में ही उनकी शादी दस्तगीर मुल्ला से हो गई। फरज़ामा के पांच बच्चे हैं। लिहाज़ा उनका सारा समय पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के निर्वाह में ही चला जाता है।
फरजाना पिछले 15 वर्षों से शबंदर पंचायत की अध्यक्ष चुनी जा रही हैं। उनका परिवार पिछली तीन पीढ़ियों से राजनीति की दुनिया में सक्रिय है। पिछले तीन सत्रों से शबंदर की सीट महिला सीट रही और फरजाना लगातार तीनों बार से अध्यक्ष हैं। हालांकि राजनैतिक पृष्ठभमि होने के कारण फरजाना को पंचायत के कामों के बारे में कुछ जानकारी तो है पर वह पंचायत के काम स्वयं नहीं करती हैं। पंचायत के काम काज उनके पति देखते हैं। चुनाव की प्रक्रिया, नामांकन में जरूरी सूचनाओं के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है। उनका नामांकन फार्म उनके पति ही भरते हैं। राजनीति में काफी लंबा जुड़ाव होने की वजह से उनको इसमें कोई दिक्कत भी नहीं होती है। तीन बार अध्यक्ष चुना जाने के बाद उन्हें पंचायत के कामों के बारे में जानकारी तो है ममगर पंचायत का काम-काज उनके पति ही देखते हैं। पंचायत की समस्याओं जैसे पेयजल, सड़क निर्माण व शौचालयों से जुड़े बुनियादी मुद्दों के बारे में वह जानती हैं। उन्होंन बताया कि उनके कार्यकाल में 150 शौचालयों का निर्माण हुआ है। इसके अलावा उन्होंने बताया कि पंचायत के विकास कामों से जुड़े निर्णय पंचायत सदस्यों और पंचायत डेवलपमेंट आफिसर की सलाह से ही लिए जाते हैं।
फरजाना ने अपने 15 सालों में विभिन्न सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लिया है पर वह कार्यक्रमों में जाकर बोलती नहीं हैं। वह कहती हैं मेरी बोलने की इच्छा तो होती है मगर मैं डरती हूँ कि मैं बोल पाउंगी या नहीं। शायद यही वजह है कि सभी जगह उनके पति की भूमिका फरज़ाना के कार्यक्रमों में शामिल होने से ज़्यादा हो जाती है। इसी वजह से पंचायत के ज़्यादातर काम-काज फरज़ाना के पति ही संभालते हैं। फरज़ाना के बारे में पंचायत के लोगों की भी यही समझ बन गयी है कि पंचायत का काम तो उनके पति ही देखेंगे फरज़ाना तो बस नाम की अध्यक्ष हैं।
एक ऐसी ही कहानी बेलगाम ज़िले के इस्लामपुर पंचायत की उपाध्यक्ष दीपा शिवत्पा की है। इस्लामपुर पंचायत में तीन गांव हैं। 27 वर्षीय दीपा ने कक्षा दो तक शिक्षा हासिल की है। हाल ही के चुनाव पंचायतों में महिला सीट होने की वजह से दीपा को चुनाव में प्रतिभाग करने का मौका मिला। दीपा चुनाव में प्रतिभाग करने को तैयार नहीं थी मगर पति के दबाब के चलते उनको चुनाव के लिए राज़ी होना पड़ा। दिलचस्प बात यह रही कि उन्होंने चुनाव मे प्रतिभाग किया और विजयी हुईं। दीपा का परिवार कृषक पृष्ठभूमि से है और उन्हें राजनीति और पंचायत के बारे में कुछ भी नहीं पता है। इतना ही नहीं दीपा के पति भी अशिक्षित हैं। इसलिए गांव से जुड़ी मुख्य सूचनाओं और समस्याओं के बारे में उनको जानकारी नहीं है। दोनों को पंचायत प्रशासन के बारे में भी कुछ नहीं पता। पंचायत का काम करने के लिए वह अपने मित्र की मदद लेते हैं।
दीपा ने बताया कि शुरू में तो वह घर की चारदीवारी में ही बंद रहती थी। पर, राजनीति में आने के बाद उन्हें सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल होने के अवसर मिलने लगे। घर की चार दीवारी में रहने वाली दीपा आत्मविश्वास की कमी के चलते इन कार्यक्रमों में बोल नहीं पाती हैं। वास्तव में दीपा को ग्राम पंचायत की योजनाओं, कार्यक्रमों और राजनैतिक मामलों की जानकारी और समझ नहीं है। ऐसे में दीपा व उनके पत्नी अपने मित्र के द्वारा सुझाए गए कामों को ही करते हैं। यहां तक कि पंचायत में आने वाली ग्रांट का इस्तेमाल कैसे किया जाए इसकी सलाह भी वह अपने मित्रों से ही लेते हैं।
यह केवल कर्नाटक के बेलगाम की ही तस्वीर नहीं है देश के और भी राज्यों में ऐसी तमाम घटनाएं हैं। सरकार ने स्थानीय शासन में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने के लिए आरक्षण तो दे दिया है लेकिन महिलाओं की सक्रिय भागीदारी के लिए अभी भी बहुत कुछ करने ज़रूरत है। इसके लिए महिलाओं के प्रशिक्षण पर ज़ोर देने की ज़रूरत है ताकि महिलाएं पंचायत का काम-काज समझकर उसे अंजाम तक पहुंचा सकें। अगर ऐसा नहीं हुआ तो कभी भी सरपंच पतियों का वर्चस्व खत्म नहीं होगा और महिलाएं स्थानीय शासन में शमिल नहीं हो सकेंगी।
(सुरेखा)
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