नयी दिल्ली , 12 अप्रैल, केन्द्र ने आज उच्चतम न्यायालय से कहा कि अनुसूचित जाति - जनजाति कानून पर उसके हालिया फैसले ने इसके प्रावधानों को ‘‘ हलका ’’ कर दिया है , जिससे देश को ‘‘ बहुत नुकसान ’’ पहुंचा है और इसमें सुधार के लिये कदम उठाये जाने चाहिए। केन्द्र ने कहा कि शीर्ष अदालत ने एक बहुत ही संवेदनशील प्रकृति के मुद्दे पर विचार किया था और इसके फैसले ने देश में ‘ बेचैनी , क्रोध , असहजता और असंगति का भाव ’ पैदा कर दिया है। केन्द्र यह भी कहा है कि शीर्ष अदालत के फैसले ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है और पुनर्विचार के जरिये इसमें दिये गये निर्देशों को वापस लेकर इसे ठीक किया जा सकता है। अटार्नी जनरल के . के . वेणुगोपाल ने अपनी लिखित दलीलों में कहा है कि इस फैसले के माध्यम से न्यायालय ने अजा - अजजा ( अत्याचार निवारण ) कानून , 1989 की खामियों को दूर नहीं किया बल्कि न्यायिक व्यवस्था के माध्यम से इसमें संशोधन किया है। उन्होंने यह भी कहा कि कार्यपालिका , विधायिका और न्यायपालिका के बीच कार्यो और अधिकारों का बंटवारा है जो ‘ अनुल्लंघनीय ’ है। अटार्नी जनरल ने कहा है कि इस फैसले ने अत्याचार निवारण कानून के प्रावधानों को नरम कर दिया है और इस वजह से देश को बहुत नुकसान हुआ है। शीर्ष अदालत के 20 मार्च के फैसले के विरोध में विभिन्न संगठनों द्वारा दो अप्रैल को आयोजित भारत बंद के दौरान कई राज्यों में हिंसा और झड़पों की घटनाओं की पृष्ठभूमि में केन्द्र सरकार ने यह लिखित दलीलें पेश की हैं। भारत बंद के दौरान हुई हिंसक घटनाओं में कम से कम आठ व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी थी। शीर्ष अदालत ने तीन अप्रैल को अपना फैसला यह कहते हुये स्थगित रखने से इंकार कर दिया था कि इस आदेश में कुछ सुरक्षात्मक उपाय करने के खिलाफ आन्दोलन कर रहे लोगों ने शायद उसके फैसले को पढ़ा भी नहीं होगा या वे निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा गुमराह कर दिये गये होंगे।
शीर्ष अदालत ने कहा था कि निर्दोष व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के लिये अतिरिक्त सुरक्षा उपाय करते समय इस कानून के किसी भी प्रावधान को कमजोर नहीं किया गया है। पीठ ने केन्द्र की ओर से अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल और महाराष्ट्र सरकार की ओर से अतिरिक्त सालिसीटर जनरल तुषार मेहता की इन दलीलों को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था कि केन्द्र की पुनर्विचार याचिका पर निर्णय होने तक फैसले को स्थगित रखा जाये। न्यायालय ने अटार्नी जनरल से सवाल किया था कि यदि इस कानून के तहत कोई असत्यापित आरोप उनके खिलाफ लगाया जाता है तो क्या वह काम कर सकते हैं या कोई लोकसेवक काम कर सकता है यदि उसके खिलाफ इस तरह के आरोप लगाये जाते हैं। पीठ ने कहा था , ‘‘ नहीं , वे काम नहीं कर सकते। निर्दोष व्यक्तियों को कोई राहत दिये बगैर उनके अधिकारों को छीना नहीं जा सकता है। इस मामले में न्याय मित्र की भूमिका निभाने वाले वरिष्ठ अधिवक्त अमरेन्द्र शरण ने केन्द्र की पुनर्विचार याचिका का विरोध किया था और कहा था कि न्यायालय ने अपने फैसले में सरकार द्वारा पेश आंकड़ों और संसद की स्थाई समिति की रिपोर्ट पर भी विचार किया है। उन्होने कहा था कि केन्द्र की पुनर्विचार याचिका शीर्ष अदालत के 20 अप्रैल के फैसले के खिलाफ उस समय तक अपील नहीं हो सकती जब तक कि इसमे स्पष्ट त्रुटि नहीं हो। शीर्ष अदालत ने कहा था कि उसने अपने फैसले में किसी भी दूसरे कानून की तरह ही इस कानून के तहत अपराध के लिये अग्रिम जमानत की व्यवस्था की है क्योंकि इस कानून के तहत निर्दोष व्यक्ति के पास राहत पाने के लिये किसी भी मंच पर जाने का विकल्प उपलब्ध नहीं है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें