विशेष आलेख : लोकतंत्र को जीवंत बनाने में अहम कड़ी है ‘पत्रकारिता’ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।

मंगलवार, 29 मई 2018

विशेष आलेख : लोकतंत्र को जीवंत बनाने में अहम कड़ी है ‘पत्रकारिता’

बहस-मुबाहिसा, चर्चा और संवाद तथा मतभेदों के बीच सहमति बनाना संसदीय लोकतंत्र को जीवंत बनाये रखने के लिहाज से अहम है। लोकतंत्र संख्या बल को सत्ता बल में बदलने की युक्ति नहीं, बल्कि एक-दूसरे के मत और मन को समझते और सराहते हुए आपसी भेदों के बीच राष्ट्र-निर्माण की इच्छा से साथ चलने की प्रतिज्ञा का भी नाम है। चूंकि सार्वजनिक हित के मसलों पर चर्चा, बहस और विचार के आदान-प्रदान की मुख्य भूमिका मीडिया निभाता है, इसलिए लोकतंत्र की मजबूती के लिए स्वतंत्र, निष्पक्ष, साहसिक और तटस्थ पत्रकारिता की जरुरत है 

journalisam-for-democracy
वैसे भी राष्ट्र को मजबूत बनाने में मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान है। क्योंकि मीडिया के बगैर बेहतर लोकतंत्र की कल्पना बेमानी है। किसी भी चीज को अच्छा या बुरा बताना मीडिया का सामाजिक धर्म है। लेकिन बदलते परिवेश एवं हालात में यह सच है कि खबरों की साख का संकट है। या यू कहे पत्रकारिता विश्वसनीयता के संकट का सामना कर रही है। हाल यह है कि अखबारों में अब जनसरोकार के मुद्दे गायब हो चले हैं। अब किसानों के प्रदर्शन की खबरें सुर्खियां नहीं बनतीं। बेरोजगारी और पूर्वोत्तर की घटनाएं मीडिया के एजेंडे में पहले से नहीं हैं। बाजार के दबाव में अखबार भी शहर केंद्रित हो गये हैं। अखबार उन लोगों की अक्सर अनदेखी कर देते हैं, जिन्हें उसकी सबसे अधिक जरूरत होती है। यह अलग बात है कि नये किस्म के मीडिया ने पुराने प्रिंट मीडिया का वैसा बैंड नहीं बजाया है, जैसा उन्नत पश्चिमी देशों में। लेकिन अखबारों के सिकुड़ते पाठकीय जनाधार और घटती विज्ञापनी आय के कारण अंग्रेजी मीडिया बाजार में मंदी और छंटनियों की पदचाप सुनायी पड़ने लगी है। पर हिंदी वाले बताशे बांटना न शुरू करें। आने वाले दशक में जैसे-जैसे ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी बढ़ेगी और छोटे शहरों और देहात के पाठक-दर्शकों को त्वरित भाषाई अनुवाद की सुविधा वाले सस्ते स्मार्ट फोन और लैपटॉप मिलने लगेंगे, वैसे-वैसे भाषाई अखबारों और टीवी पर भाषाई न्यूज देखने वालों की तादाद कम होती जायेगी और आज का जमाना भाषाई मीडिया की नयी पीढ़ी के ग्राहकों के लिए एक बीते वक्त की याद बनकर रह जायेगा। 

ऐसे में जरुरी है कि पत्रकारिता को लोकतंत्र की ताकत बनने के लिए अपनी साख बचाएं रखनी होगी। इसे एक सामयिक चेतावनी की तरह ली जानी चाहिए। पुराने समय से यह समझ चली आ रही है कि ‘सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास’। मतलब साफ है मंत्री, वैद्य और गुरु- ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से, हित की बात न कहकर, प्रिय बोलते हैं, तो राज्य, शरीर एवं धर्म- तीनों का शीघ्र नाश हो जाता है। मानस की इस सीख में आये ‘गुरु’ शब्द का अर्थ-विस्तार करते हुए अगर उसके दायरे में शिक्षा, पत्रकारिता जैसे बौद्धिक कर्म को शामिल मान लें, तो कहा जा सकता है कि पत्रकारिता को लोभ या भय को परे रखते हुए लोकतंत्र में सत्ता के आगे सच कहने की अपनी समयसिद्ध भूमिका निभानी होगी। लेकिन अफसोस है कि आज पत्रकारिता एक व्यवसाय बन गयी है। जबकि पहले पत्रकारिता का मतलब मिशन होता था। हर बड़ा उद्योगपति अपने व्यवसाय के साथ-साथ समाचार पत्र या टीवी चैनल चला रहा है। इसके पीछे उसका मकसद सिर्फ और सिर्फ अपने धंधों को बचाये रखने के लिये समाचार पत्र या न्यूज चैनल चला रहा है। समाचार पत्र और चैनलों के माध्यम से वह अधिकारियों पर दबाव बनाने का काम करता है। कोई पत्रकार या संवाददाता किसी के अधिकारी की कमियों को उजागर करना चाहे भी तो मालिक लोग ऐसा करने नहीं देते है। क्योंकि उनको अपना धंधा चलाना है। जिनकी लेखनी में दम भी हुआ करता था वह मालिकों के इशारे पर चलने के लिये मजबूर है। जो पत्रकारिता में चाटूकारिता करते थे उन्होंने पैसा भी बहुत कमाया और समाचार पत्रों एवं चैनलों में बड़े पदों पर भी पहुंच गये। यही वजह है कि अब जब पत्रकाकिरता में नयी पीढ़ी भी आ रही है तो उसका मकसद वास्तविक पत्रकारिता नहीं, बल्कि कैसे ज्यादा पैसा कमाया जाए के चक्कर में दलाली और ब्लैक मेलिंग की पत्रकारिता में लगा हुआ है। कोई भी नया पत्रकार खोजी पत्रकारिता, या खबरों को निकाल कर लाने की कोशिश नही करता, जो दूसरे के पास नहीं हो। उसका कारण है कि पत्रकारिता की उनको समझ भी नहीं है। प्रेस नोट वाली पत्रकारिता करने में लगे हुए है। आज समाचार पत्रों के सम्पादक मात्र सिम्बल बनकर रह गये है। आज कोई भी सम्पादक सरकार के खिलाफ एक भी सच्ची खबर लिखने के लिये स्वतंत्र नही है, खबर प्रकाशित करने से पहले हर सम्पादक सोचता है कि कहीं इसका असर हमारे विज्ञापन पर तो नहीं पड़ेगा। अगर खबर के कारण विज्ञापन बंद हो गया तो मालिक को क्या जवाब देंगे? क्योंकि विज्ञापन बंद हो गया तो मालिक कहीं निकाल न दे। इन सब बिन्दुओं पर सोचकर सम्पादक का तो पूरा ध्यान नहीं इसी बात पर रहता है कि कहीं किसी संवाददाता ने कोई सरकार विरोधी खबर तो नहीं लिखी। क्योंकि उसको इस बात की भी जानकारी है कि सरकार का मुखिया सम्पादक की जगह इसकी शिकायत मालिक से करता है और सीधे सम्पादक को बाहर करने के लिये कहता है।

खास बात यह है कि पत्रकारिता के इन्हीं हालातों के चलते सोशल मीडिया लगातार अपना प्रभाव जमाती जा रही है। लोग सोशल मीडिया की ओर आकर्षित होते जा रहे है। इसमें कोई शक नहीं है कि आज भी अखबार खबरों के सबसे प्रामाणिक स्रोत हैं। आपने गौर किया होगा कि सोशल मीडिया पर रोजाना कितनी सच्ची झूठी खबरें चलतीं हैं। टीवी चैनल तो रोज शाम एक छद्ध विषय पर बहसें कराते हैं। चोटीकटवा जैसी अफवाह को जोर-शोर से प्रसारित किया जाता है। इस सामूहिक उन्माद को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत नहीं किया जाता। यह नहीं बताया जाता कि इस अफवाह के शिकार केवल निम्न वर्ग के लोग हैं। दूसरी ओर किसानों के धरने की खबरें मीडिया में स्थान नहीं पा पातीं। कभी टीवी में महंगी सब्जियों की रिपोर्टिंग पर गौर करें। एंकर उन्हीं सब्जियों की महंगाई पर अपना ध्यान केंद्रित करता या करती है जो उस सीजन की नहीं होतीं। बेमौसमी सब्जियां तो हमेशा से महंगी मिलती हैं। लेकिन, इन शहरी नवयुवक अथवा नवयुवती को इसका ज्ञान नहीं होता। टीवी में एक और विचित्र बात स्थापित हो गयी है। वहां एंकर जितने जोर से चिल्लाये, उसे उतनी सफल बहस माना जाने लगा है। लेकिन सच तो यही है कि पूंजीवादी बाजार व्यवस्था और सत्ता के दबावों से मीडिया को बाहर निकालने के साथ ही जनपक्षीय पत्रकारिता को आगे बढ़ाने की जरुरत है। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के बीच खबरों की विश्वसनीयता ही मीडिया की साख बचायेगी। फीलगुड वाली खबरें नहीं, बल्कि सच्ची, अच्छी और तह तक जाने वाली पत्रकारिता की जरुरत है। 

मौजूदा दौर की सबसे बड़ी चुनौती है युवा मन को समझना। क्योंकि युवाओं की खबरों में कोई दिलचस्पी नहीं है। युवाओं पर किये गये एक सर्वे के जरिये कई चैंकाने वाले तथ्य सामने आएं है। कहा जा सकता है युवाओं में खबरों को लेकर खासी दिलचस्पी है, लेकिन वे पारंपरिक तरीके से इन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में युवाओं तक खबरें पहुंचाने के लिए उसके तौर तरीके बदलने होंगे। उनकी तरह सोचना होगा। तकनीक की बात करें तो मीडिया के क्षेत्र में भी खूब प्रयोग हुए हैं। वोइस से टैक्सट जैसे कई सॉफ्टवेयर भी विकसित हुए हैं। ऐसा माना जा रहा है कि बदलते तकनीकी परिदृश्य का असर अखबारों के साथ-साथ टीवी पर भी आयेगा। लोग वेबसाइट और अन्य नये माध्यमों के जरिये खबरें प्राप्त कर रहे हैं, वे भविष्य में अन्य माध्यमों की अनदेखी कर सकते हैं। हालांकि सभी माध्यमों की अपनी एक भूमिका बनी रहेगी। ऐसे में युवा पत्रकार पहले पत्रकारिता के मूल गुणों को समझें। यदि पत्रकारिता की ऊचाईयों को छूना है तो उनको हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा पर भी अच्छी पकड़ रखनी चाहिए। साथ ही प्रेस नोट वाली पत्रकारिता की जगह जनहित में खोजी व तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि आपको लोग तभी जानेंगे जब आप पाठकों को कुछ नया एवं तथ्यात्मक खबरें एवं स्टोरी प्रस्तुत करेंगे। इस लिये युवा पत्रकारों को खबरों के पीछे क्या है उसपर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। सच्चाई को ईमानदारी के साथ लिखने की कोशिश करना चाहिए। जोखिम उठाकर खबर देने वाले खबरनवीस पहले भी खबर बनते रहे हैं और आज भी खबर बन रहे हैं। किसी का पैर तोड़ दिया जा रहा है तो किसी के सिर में तलवार घोंप दी जा रही है, कहीं कैमरे तोड़ दिए जा रहे हैं तो कहीं ओबीवैन तक आग के हवाले कर दी जा रही हैं, तो कहीं पत्रकारों पर फर्जी रपट दर्जकर उनके घर-गृहस्थी लूटवा लिए जा रहे है। गोली खाने वालों की फेहरिस्त ही काफी लम्बी है। दिनोदिन बढ़ती जा रही इन घटनाओं के बारे में भी हम सभी को गंभीरता से सोचना होगा और सभी पत्रकार साथियों मीडिया संस्थानों को संगठित भी होना होगा पत्रकारों को मनभेद मतभेद भुलाकर इस पर मंथन भी करना होगा वरना हमलावरों के हौसले बढ़ते जायेंगें। अभी कवरेज में संकट है, आगे बहुत कुछ न केवल छोडना ही पड़ेगा बल्कि सत्ता के इशारों पर नाचने पर भी मजबूर होना पड़ेगा। 

एक तरफ नाम मात्र का वेतन उससे दस गुना कार्य कराते रहते है। परिवार का खर्च चलाने के लिए पत्रकारों को अन्य रास्ते तलाशने पड़ते हैं। अब अच्छा पत्रकार वहीं बन सकता है जो अखबार मालिक को राजस्व की कमी को पूरा कर सके। दो दशक से पत्रकारों का नेताओं और अफसरों से जबरदस्त गठजोड़ हुआ है। जिसकी वजह से पत्रकारिता के सम्मानजनक पेशे पर भी उंगलिया उठनी लगी हैं। लगभग तीन दशक से संपादकों का स्तर बहुत ही गिर गया है। एक समय था जब प्रदेश का मुख्यमंत्री संपादक से समय लेकन मिलने आता था। आज प्रदेश का मुखिया संपादक का नाम सुनते ही वापस कर देता है। अब अखबार और चैनलों में खबरों का प्रकाशन और संचालन अखबार मालिक पर निर्भर रहता है। अब संपादक को मात्र साइनिंग एथारिटी बन कर रह गया है। अब वही संपादक सफल हैं, जो समाचार पत्र को राजस्व जुटाने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। या यूं कहें आज के दौर में कुछ पत्रकारों में आत्मसम्मान की बोली भी लगानी पड़ रही है। इसके लिए खुद कलमकार, पत्रकार ही जिम्मेदार है। यही कारण है कि समाज में हम कलमकारों, पत्रकारों  का अस्तित्व भी दिन व दिन कमजोर होता जा रहा है जो की बेहद अफसोस जनक है। हम कलमकारों ने अपने को देवदूत अल्लामियां व भगवान् समझ लिया है, आम जनता से हमारा कोई जुड़ाव ही नहीं रह गया है, हम मुफलिसी में जी रहे लोगों, गरीब किसानों से मिलना ही नहीं चाहते उनके दुख और तकलीफों में सरीक होना हमें अपनी शान के खिलाफ  लगता है, पूरा देश महंगाई से जूझ रहा है लोग कर्ज के बोझ से बोझिल हैं, गरीबी भुखमरी इस हद तक की लोग आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं। सरकारी आंकड़े बता रहे हैं की हर साल हमारे देश का 12000 किसान आत्महत्या कर रहा है बावजूद ऐसे विषम समय में हम कलमकार पत्रकार न तो जनता के दर्द को खबरों का आधार बना रहे हैं और न ही समस्या के जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कोई अभियान चला रहें हैं। जरूरत है राजनेताओं की मनसा को समझने व एकजुट होकर देश के आम नागरिकों की सम्सयायों को उजागर करते हुए सरकारों को आइना दिखाने की, वरना वो दिन दूर नहीं की देश के नागरिकों में पत्रकारों व कलमकारों का विश्वास तो टूटेगा ही साथ ही सरकारें भी कलमकारों पत्रकारों को सबक देने से नहीं बाज आयेंगीं। 

इसमें कोई दो राय नहीं कलमकार पत्रकार समाज का आइना होते हैं। कल तक यही समाज इन्हें सम्मान की नजर से देखता रहा है। आखिर कारण क्या है की आज कलमकार पत्रकार न अपनी कोई पहचान ही बना पा रहें हैं न ही सम्मान पा रहे हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब कथित बड़े साहित्यकार कलमकार पत्रकार को उनके मोहल्ले वाले ही तरजीह नहीं देते। कहीं ऐसा तो नहीं की वे खुद को इतना महान और उच्च समझ बैठे है कि वह न तो किसी के दुख-दर्द में शामिल होना चाहते हैं और न ही वह इस बात का ख्याल रखते हैं कि उनके क्षेत्र के लोग किस समस्या से जूझ रहे हैं। या कहीं ऐसा तो नहीं की वो आम आदमी के बीच जाकर उनकी समस्याओं को सुनने व देखने में अपनी तौहीन समझते हैं, यदि ऐसा है तो फिर यह कहते ही क्यों हैं कि समाज में उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल पा रहा है। आखिर क्यों मिले आम जनता का सम्मान? ऐसा क्या किया है आपने उनके लिए? क्या कभी किसी निर्दोष को पुलिस से छुड़ाने के लिए आप किसी पुलिस थाने में गये क्या? कभी आपने उनके घर चूल्हा ठंडा होने के कारण को उनसे मिलकर जानना चाहा। अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या पत्रकार, कलमकार भी अन्य लोगों की तरह केवल कलम को सिर्फ धनार्जन के लिए इस्तेमाल कर रहे है या उसका समाज के प्रति भी कुछ दायित्व बनता है। अगर समाज के प्रति वह अपने दायित्व को नकारता है तो वह किस मुंह से कहता है कि समाज में कलमकारों पत्रकारों को उचित मान-सम्मान नहीं मिल रहा। यह प्रश्न भी अनुत्तरित ही है, याद रखिए अगर हमने अपने दायित्वों का पालन नहीं किया तो भावी पीढियां हमें कदापि माफ नहीं करेंगी। जब हम अपनी कलम से किसान के दर्द को गरीब, मजदूर, दलित-पिछड़ों और  परेशान युवा बेरोजगारों, उत्पीड़त महिलाओं की खबरों को प्राथमिकता न देकर धन्ना सेठों और राजनेताओं की चाटुकारिता में संलिप्त रहेंगे और निर्धनों दुखियों समस्याग्रस्त लोगों के प्रति तिरस्कार का भाव रखेगें तो हाल ऐसा ही होगा तिरस्कार के शिकार खुद भी होंगे।




liveaaryaavart dot com

--सुरेश गांधी--

कोई टिप्पणी नहीं: