- वीरेंद्र यादव की संसदीय पत्रकारिता के 18 वर्ष
हम बिहार विधान सभा में पहली बार दर्शक दीर्घा में सदन की कार्यवाही देखने 1995 में गये थे, लेकिन पत्रकार के रूप में पहली बार कार्यवाही का कवरेज करने 2001 में गये थे। इस घटना के 18 वर्ष गुजर गये। इन वर्षों में कई सरकार आयी और गयी, लेकिन एक पत्रकार के लिए उठा-पटक की घटनाओं की व्याख्या करने के आगे कुछ नहीं कर पाये। इससे आगे कुछ कर पाना संभव भी नहीं था। 1996 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से डिग्री लेने के बाद करीब चार वर्षों तक भोपाल में अखबार और दूरदर्शन भोपाल के समाचार एकांश में काम करते रहे। अंतिम कुछ महीने में हमने आगरा में काम किया और आखिरकार दिसंबर 2000 में हम पटना लौट आये। पटना हमारे लिए नया शहर नहीं था, लेकिन पत्रकारिता का बाजार जरूर नया था। मासिक पत्रिका ‘तापमान’ के कार्यालय में गया काम की तलाश में। थोड़ी देर बातचीत के बाद संपादक अविनाश मिश्र जी ने तीन पन्ने थमाये और कहा कि इसे भर कर लाइए। दूसरे कमरे में बैठकर तीनों पन्ना भरा और लौटा दिया। फोन पर उन्होंने बताया कि जल्द ही दैनिक सांध्य अखबार निकालने वाले हैं। उसके लिए आपकी सेवा ली जाएगी। इसी तापमान अखबार के लिए पहली बार 2001 में विधान परिषद का कार्ड बना था। इसका फायदा हमें मिला कि आकाशवाणी पटना में विधान मंडल की कार्यवाही की समीक्षा का अतिरिक्त काम मिलने लगा। इस अखबार के बंद होने के बाद हमने एक मासिक पत्रिका ‘गरीब दर्पण’ का संपादन किया। कुछ महीने बेरोजगार रहने के बाद हिन्दुस्तान में काम का मौका मिल गया। संपादक नवीन जोशी जी ने ‘संपादक के नाम पत्र’ के आधार पर हमें काम के लिए रखा था। विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए 2010 में हिन्दुस्तान को ‘प्रणाम’ किया और मुखिया चुनाव लड़ने के लिए 2012 में प्रभात खबर को ‘गोड़’ लग लिया। विधान सभा चुनाव तो नहीं लड़ सके, लेकिन मुखिया चुनाव लड़ कर राजनीति उम्मीदों को उड़ान देने की जरूर कोशिश की, लेकिन विफल हो गये। 2015 के विधान सभा चुनाव में हमने ओबरा से भाजपा का टिकट लेने की काफी कोशिश की थी, लेकिन सफल नहीं हुए। इतनी मेहनत राजद के टिकट के लिए करते तो संभव था कि राजद का टिकट ‘लूट’ भी लेते।
2012 में मुखिया चुनाव में हारने के बाद सोशल मीडिया की यात्रा हमने शुरू की। एकदम नयी जमीन, नयी संभावना और नया बाजार भी। इसी यात्रा के दौर में हमने मासिक पत्रिका ‘वीरेंद्र यादव न्यूज’ की शुरुआत की। इसकी वजह थी कि सोशल मीडिया की सामग्री की क्षणभंगुरता। कुछ समय के बाद आपकी सामग्री आपको ही नहीं मिलेगी आसानी से। इसके विपरीत प्रिंट पत्रिका का स्थायित्व है,उत्तरजीविता भी।
हम राजनीति और पत्रकारिता के बीच से अपने लिए नयी संभावना तलाशते रहे। हमारी राजनीति महत्वाकांक्षा ही पत्रकारिता में बने रहने के लिए विवश करती रही। राजनीति की अपनी जरूरत, पत्रकारिता की अपनी जरूरत। दोनों के बीच संतुलन बनाकर चलना और दोनों मोर्चों पर खुद को साबित करना जरूरी था। इसके लिए सतर्कता के साथ अतिरिक्त मेहनत की भी जरूरत थी। पढ़ने के साथ ही व्यावहारिक स्तर पर ज्यादा सचेत रहना पड़ता था। ‘वीरेंद्र यादव न्यूज’ हमारा राजनीतिक व पत्रकारिता दोनों लक्ष्यों को साथ-साथ साध रहा था, है भी। जब हम अपनी पत्रिका का नाम तलाश रहे थे तो एक वरीय पत्रकार का सुझाव था कि ऐसा नाम रखो, जो तुम्हें लालू यादव के साथ जोड़े। कई नामों पर विचार के बाद यही तय हुआ कि ‘वीरेंद्र यादव न्यूज’ ही रखते हैं।
दिसंबर 2016 में लोकसभा सचिवालय ने संसदीय पत्रकारों का तीन दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया था। कन्हैया भेलारी जी के नेतृत्व में 20 पत्रकारों का दल इसमें पटना से शामिल हुआ था। वह कार्यशाला भी एक बड़ा मौका था संसदीय पत्रकारिता को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझने का। वहां से लौट कर हमने पूरा सीरिज ही लिख डाला था।
पिछले 18 वर्षों की संसदीय पत्रकारिता की यात्रा पर नजर डालते हैं तो कितना कुछ बदल गया है। नयी-नयी तकनीकी, नयी भाषा शैली,माध्यम का नया स्वरूप के साथ खबरों का नया बाजार भी। इसी गति के साथ राजनीति ने भी करवट बदली है। चुनाव ने वोट मांगने से वोट खरीदने तक यात्रा पूरी कर ली है। राजनीति और पत्रकारिता दोनों के बाजार में पैसा बड़ी ताकत हो गया है। इस निराशाजनक माहौल में भी उम्मीद मरी नहीं है। उम्मीद हमारे अंदर से पैदा होती है। इसका न बाजार है और न कीमत। इसलिए उम्मीद को जीवित रखकर ही बेहतरी की ‘उम्मीद’ की जा सकती है।
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