विशेष : मुंगेर जहां से फैला योग पूरी दुनिया में - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 21 जुलाई 2018

विशेष : मुंगेर जहां से फैला योग पूरी दुनिया में

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जब देश गुलाम था तो महात्मा गांधी सहित अनेक लोग आजादी की लड़ाई में हिस्सा ले रहे थे। इसी दौर में ने स्वामी शिवानन्द  सन् 1924 में चिकित्सा सेवा का त्याग करने के पश्चात संन्यास के लेने के बाद ऋषिकेष में कठिन आध्यात्मिक साधना की। वे वेदान्त के महान आचार्य और सनातन धर्म के विख्यात प्रणेता हुए। सन् 1932 में उन्होने शिवानन्दाश्रम और 1936 में दिव्य जीवन संघ की स्थापना की। आजाद भारत की तस्वीर को उन्होंने योग पर केन्द्रित किया। उनका मानना था कि सांसारिक,तनावग्रस्त जीवन भी स्पष्टता,सहजता,मर्यादा,रचनात्मकता और अपनी आंतरिक प्रकृति का निरंतर सजगता के साथ जिया जा सकता है। जो व्यक्ति इस उच्च आध्यात्मिक प्रकृति का विकास कर,एक रचनात्मक और अनुशासित जीवन जी सकता है,वही दिव्य जीवन है।इसके लिए उन्होंने दो मार्ग अपनाए— योग और वेदांत का। वे मानते थे कि योग को साधना के रूप में अपना कर, मनुष्य के निम्न स्वभाव का रूपांतरण कर शारीरिक मानसिक,भावनात्मक और आध्यात्मिक संतुलन एवं सामांज्य प्राप्त होता है। वहीं वेदांत द्वारा इस भौतिक जीवन में एक आदर्श को जीते हुए स्वयं को परमतत्व से जोड़ने का प्रयास होता है। अपने शिष्यों से भी कहते थे कि—' निजी जीवन में तुम एक सन्यासी हो, इसलिए सन्यासी की तरह जियो,तुम्हारी आध्यात्मिक परंपरा वेदांत की है। लेकिन वाह्य, सामाजिक जीवन में योग का प्रचारक बनना है। उन्होंने आधुनिक समाज की समस्याओं और परेशानियों के निवारण में योग की अहम् भूमिका को पहचाना और योग को शुष्क दर्शन के दायरे से बाहर निकाला। अपने शिष्य स्वामी सत्यानंद से कहा—ऋषिकेश तुम्हारे लिए छोटा पड़ेगा।तुम बाहर जाओ,संसार तुम्हारी राह देख रहा है। योग का प्रचार द्वारे—द्वारे तीरे—तीरे करो। इसी के साथ चंद मिनटों में अपना सारा योग संबधी ज्ञान और अनुभव उन्हें हस्तांतरित किया। स्वामी शिवानंद जी की सेवा,प्रेम,दान,शुद्धि,ध्यान,साक्षात्कार,भला बनने और भला करने का आष्टांगीय योग मार्ग आज आध्यात्मिक राजमार्ग है।

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परिव्राजक जीवन की दो धाराएं होती है- एक साधना का पुष्टिकरण और दूसरा ज्ञान का विवरण। ये कार्य अकेले ही करने पड़ते हैं। इस दौरान उन्होंने पूरे भारत की यात्रा के साथ—साथ पाकिस्तान,  अफगानिस्तान, वर्मा, बाग्लादेश, श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों की भी यात्रा की। परिव्राजक के रूप में बिहार यात्रा के क्रम में छपरा के बाद मुंगेर 1956 में पहली बार मुंगेर आए। यहां उन्हें रहने के लिए गंगा किनारे जहां पादुका दर्शन है,गोलकोठी में जो आज भी है,वहां वे साधना किया करते थे। यह साल मुंगेर योग अनुष्ठान बना। चातुर्मास भी व्यतीत किया। जब वे यहां रहते तो कर्णचौड़ा अवश्य जाते। कभी ध्यान करते तो कभी सो जाते। यहां उन्हें विशेष अनुभूति होती थी। यहीं उन्हें दिव्य दृष्टि से यह पता चला कि यह स्थान योग का अधिष्ठान बनेगा और योग विश्व की भावी संस्कृति बनेगी। आनंद भवन में रहकर उन्होंने सिद्ध भजन पुस्तिका तैयार की। 1961 में अंतर्राष्ट्रीय योग मित्र मंडल की स्थापना की तब तक योग निंद्रा और प्राणायाम विज्ञान, पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी। ‘लेशन आन योग’ का अनुवाद योग साधना भाग-एक, दो आ चुके थे।

1962 में इंटरनेशनल योग फलोशिप का रजिस्ट्रेशन कराया। साथ ही पुस्तकें सत्यानंद पब्लिकेशन सोसायटी नंदग्राम से प्रकाशित हुई। सत्यम स्पीक्स, वर्डस ऑफ सत्यम, प्रैक्टिस ऑफ त्राटक, योग चूड़ामणि उपनिषद, योगाशक्ति स्पीक्स, स्पेट्स टू योगा, योगा इनिसिएशन पेपर्स, पवनमुक्त आसन (अंग्रेजी)में, अमरसंगीत, सूर्य नमस्कार, योगासन मुद्रावंध प्रमुख है। जगह-जगह शिविर लगाते कार्य योजना को अंजाम देना शुरू किया। 1963 से अंग्रेजी में योगा और योगविद्या निकालना आरंभ किया। 14 जुलाई 1963 को स्वामी शिवानंद ने महासमाधि ली। इसके बाद मुंगेर में ही आश्रम बनाने का फैसला लिया। 1956 से 1963 तक वे योग के सिद्धांतों और विधियों का ज्ञान हासिल करते रहे और उन पर विविध परीक्षण करते रहे ताकि यह जाना जा सकते कि वर्तमान सामाजिक जीवन में योग किस तरह अधिक लाभदायक और उपयोगी हो। इसके बाद योग सिखाना आरंभ किया।

19 जनवरी 1964 को वसंत पंचमी, सरस्वती पूजा के शुभ मुहुर्त में आश्रम का उद्घाटन हुआ एवं स्वामी शिवानंद जी अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित की गयी। इसके बाद नि:शुल्क प्रंद्रह —पंद्रह दिनों का सत्र प्रारंभ किया गया। स्वामी सत्यानंद स्वयं कक्षाएं लेते। चौथे दिन शंख प्रक्षालन,कुंजल क्रिया एवं नेती करायी जाती थी। इन अभ्यासों से पेट साफ हो जाता था और हर व्यक्ति् उर्जावान तथा प्रफुल्ल्ति महसूस करता। एक ओर जहां उन्होंने योग विद्यालय की स्थापना की,वहीं दूसरी ओर वे भविष्य में इसके रखरखाव की योजना पर भी काम कर रहे थे ताकि फूल खिलने से पहले कुम्हला न जाय। वे मानते थे कि पवित्र परंपरा के पुनर्जागरण में सिर्फ वर्तमान नहीं भविष्य भी होता है और उस भविष्य की अपनी एक दैवीय योजना होती है। चार साल के स्वामी निरंजन इस दैवीय योजना के तहत मुंगेर आए। उन्हें गुरु ने योगनिद्रा के माध्यम से योग और अध्यात्म का प्रशिक्षण दिया। कम उम्र में ही वे इतने योग्य हो चुके थे कि स्वामी सत्यानंद ने उन्हें दशनामी संन्यास परंपरा में दीक्षित करने के बाद काम पर लगा दिया। उन्हें विदेशों में योग केंद्रों की स्थापना करनी थी। योग को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठापित करने की परिकल्पना स्वामी सत्यानंद सरस्वती के मन में थी। वे कहते थे कि योग विश्व की भावी संस्कृति बनेगी। इसकी मकसद 1964 में मुंगेर प्रथम अंतर्राष्ट्रीय योग सम्मेलन हुए, जिसका उद्घाटन बिहार के तात्कालीन राज्यपाल अनंत शयनम् आयंगर ने किया। इसके उपरांत डेनमार्क,फ्रांस, अमेरिका और आस्ट्रेलिया के योग शिक्षकों को प्रशिक्षित किया। प्रशिक्षण के उपरांत इनलोगों ने अपने— अपने देशों में प्रथम विद्यालय और योग केन्द्रों की स्थापना की। इसके परिणामस्वरूप सत्तर के दशक में योग का कार्य पूरी दुनिया में फैलने लगा। इसी प्रकार 1966 में दूसरा और उसके बाद तीसरा योग सम्मेलन अंतर्राष्ट्रीय स्तर का हुआ। बिहार योग विद्यालय, मुंगेर की गुरू परंपरा आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरी मठ से सम्बद्ध है। 1967 में रायगढ़ में योग विद्यालय की स्थापना की। इसी वर्ष मुंगेर में नौ माह का योग प्रशिक्षण सत्र हुआ। इसकी यह खासियत थी कि इस अवधि में बाहर की दुनिया से सम्पर्क नहीं रहेगा। आज भी यहां के लोगों का बाहरी परिवेश से कोई ताल्लुक नहीं होता है। यहां से प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने— अपने देशों में लौटे और प्रथम विद्यालयों और केन्द्रों की स्थापना की। गोंदिया में चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय योग सम्मेलन में शिक्षा के क्षेत्र में योग के समावेश पर गहन चर्चा हुई। बाद में आश्रम बनाकर समर्पित किया गया।

योग के प्रचार के लिए स्वामी सत्यानंद सरस्वती आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान, चीन, फिलीपीन्स, हांगकांग,  मलेशिया, थाईलैंड, सिंगापुर, अमेरिका, इंगलैंड, आयरलैंड, फ्रांस, इटली, जर्मनी,  युगोस्लाविया, स्विजरलैंड, डेनमार्क स्वीडन, पोलैन्ड, हंगरी, बुल्गारिया, स्लोवेनिया, रूस, चेकोस्लोविया, ग्रीस, सउदी अरब, कुवैत,  बहरीन, दुबई, ईराक, ईरान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान कोलम्बिया, ब्राजील, उरूग्वे, चिली, अर्जेन्टिना, सेंट डोमिंगो, प्युर्टि राको, सूडान, मिस्त्र, नैरोवी, घाना, मारीशस, अलास्का, आईसलैंड गए और पूरी दुनिया में  योग का शंख बजाया। वे मुंगेर के कर्णचौड़ा को वे भूल नहीं सके। अंग्रेजों के जमाने में मीर कासिम ने इस पर अधिकार जमाया, भवन उसने बनवाया। कालांतर में इस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स अपने पत्नी के आरोग्य लाभ के लिए इसी भू-खण्ड पर हवा महल का निर्माण करवाया था।बाद में इस स्थान को अंग्रेजों ने विजय नगर के राजा के हाथों बेच दिया। उस राजा से मुर्शिदाबाद के राजा अन्नदा राय ने खरीद लिया उनके पुत्र यहां रहते थे। संगीत गोष्ठी होती थी। जमींदारी उन्मूलन के बाद राजा आशुतोष राय व उनके पुत्र कमला रंजन राय मुर्शिदाबाद में रहने लगे। लोगों ने सुझाव दिया कि इस स्थान को योग का स्थान बनाए। 1978 में कमला रंजन सरकार से उन्होंने यह स्थान प्राप्त कर लिया। प्रॉपर्टी टैक्स ज्यादा होने के कारण सरकार का अधिकार था वह इसे बेचकर टैक्स वसूलना चाहती थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सहयोग से यह स्थान प्राप्त हो गया। इसके बाद जनवरी 1979 में कर्णचौरा में पदार्पण हुआ। स्वामी जी ने कहा यहां से राजा कर्ण सोना बांटते थे, मैं योग बांटूगां। इस तरह कर्णचौरा का पुनर्जन्म गंगादर्शन के रूप में हुआ।इस परिसर में गंगा-दर्शन एवं उसके बगल में साधना भवन का निर्माण करवाया गया जहां अखण्ड ज्योति जलती रहती है। छात्रावास, इमारत खण्डों, सन्यासी भवनों आदि का निर्माण करवाया गया। अनेक भाषाओं के दर्जनों ग्रन्थ यहां उपलब्ध हैं। योग अनुसंधान के लिए पर्याप्त सामग्रियां हैं और इस आधार पर शोध अनुसंधान के कार्य लगातार चलते रहते हैं।

सन् 1983 आते— आते बिहार योग विद्यालय पूरे विश्व में योग शिक्षा और आध्यात्मिक विज्ञान के प्रमाणिक केन्द्र के रूप में विख्यात हो गया। योग तपस्वियों और योगियों की गुफा से निकलकर समाज की मुख्य धारा में शामिल हो गया। स्वामी सत्यानंद ने सभी धर्मों, दर्शनों के स्त्रोत तंत्र के ज्ञान वेदांत,उपनिषदों,पुराणों,बौद्ध धर्म,जैन धर्म सिख धर्म, पारसी धर्म, इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म के परम सत्य पर प्रकाश डाला और पदार्थ और सृष्टि के वैज्ञानिक विश्लेषण का समावेश कर तंत्र और योग की प्राचीन पद्धतियों की विवेचना और व्याख्या की। इसका नतीजा रहा कि बिहार योग विद्यालय दूसरे केंदों से विशिष्ट है। निरंजनानंद सरस्वती ने 1983 तक वह सब किया। सन् 1983 से 2008 तक बिहार योग विद्यालय का अध्यक्ष पद संभालते हुए स्वामी निरंजनानंद ने प्राचीन यौगिक संस्कृति तथा सन्यास परंपरा की निरंतरता को कायम रखा। सन् 1983 में गुरू की आज्ञा के अनुसार बिहार योग विद्यालय, स्वामी शिवानंद मठ तथा योग शोध संस्थान की गतिविधियों के संचालन में व्यस्त हो गए। सन् 1990 में सन्यास परंपरा में दीक्षित हुए। 1993 में सन्यास परंपरा की विभूतियों द्वारा स्वामी सत्यानंद के उत्तराधिकारी के रूप में अभिषिक्त हुए।

 23 साल की उम्र तक जब तक कोई नौजवान काम करने के लिए घर से बाहर कदम रखता है, तब तक स्वामी निरंजन अपने हिस्से का एक बड़ा काम पूरा करके वापस लौट आये थे। जहां योग केंद्र स्थापित हो चुके थे, उनके संचालन को भी सुनिश्चित करना था। उन्हें न सिर्फ योग समझाना था, बल्कि दुनिया की विविध संस्कृतियों को समझना भी था। सांस्कृतिक एकता के यौगिक सूत्रों की खोज करनी थी। अमेरिका से लेकर ऑस्ट्लिया तक। वहां उन्होंने विशेष तौर पर घ्यान और प्राणायाम के क्षेत्र में अनुसंधान का काम अल्फा रिसर्च के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ जो कामिया के साथ काम किया।सैन फ्रांसिस्को, कैलिफोर्निया के ग्लैडमैन मेमोरियल सेंटर के जापानी डॉ टॉड मिकुरिया ने उन पर ध्यान संबधी शोध किये। जिस समय स्वामी निरंजनानंद विदेश के लिए निकले, तो उस समय स्वामी सत्यानंद के योग आंदोलन के परिणामस्वरूप केवल फ्रांस में 77 हजार पंजीकृत येाग शिक्षक थे।उस समय के लिए यह बहुत बड़ी संख्या थी. उन दिनों वे सिर्फ इन योग शिक्षकों को प्रशिक्षित करते थे, ताकि वे अपने स्कूलों मे लौट कर विद्यार्थियों को प्रशिक्षित कर सकें। बाद में यह आंदोलन 'रिसर्च आॅन योगा इन एड्यूकेशन के नाम से पूरी दुनिया में फैल गया। अब उनके हिस्से आगे की जिम्मेदारियां आनेवाली थीं।भारत लौटने के बाद उन्होंने बिहार योग विद्यालय को विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा तक ले गये, लेकिन साथ ही साथ वे समूचे विश्व में स्वामी सत्यानंद के बीजारोपण की माली की तरह रखवाली भी करते रहे। वर्ष 1993 के विश्वयोग सम्मेलन के बाद गंगा दर्शन में बाल योग मित्र मंडल की स्थापना की गयी।इसका आरंभ मुंगेर के सात छोटे बच्चों से किया गया और आज मुंगेर शहर में ही बाल योग मित्र मंडल 5000 से अधिक प्रशिक्षित बच्चे योग शिक्षक हैं। मुंगेर में यह संख्या 35 हजार और पूरे भारत में 1,50000 हैं। इन बच्चों ने तीन आसनों, दो प्रणायामों,शिथिलीकरण एंव धारणा के एक-एक अभ्यास का चयन किया।यह प्रयोग सात सौ बच्चों पर किया गया और उसकी रचनात्मकता, व्यवहार और व्यक्तिगत अनुशासन पर हुए असर की जांच की गयी तो इसमें गुणात्मक परिवर्तन पाया गया। दरअसल स्वामी सत्यानंद सरस्वती का स्पष्ट दृष्टिकोण था कि यदि हम बच्चों तक पहुंच पाते हैं और उनके जीवन की गुणवत्ता और प्रतिभा में सुधार ला पाते हैं, तो वे अपनी रचनात्मकता का अधिकतम उपयोग कर अपने भावी जीवन के तनावों और संघर्षों का सामना बेहतर ढंग से कर पायेंगे। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम दो बार मुंगेर बच्चों के कार्यक्रम में आये. उन्होंने मुंगेर को योगनगरी की संज्ञा दी।स्वामी निरंजनानंद ने वर्ष 1994 में विश्व के प्रथम योग विश्वविद्यालय, बिहार योग भारती की तथा वर्ष 2000 में योग पब्लिकेशन ट्रस्ट की स्थापना की। मुंगेर में विभिन्न गतिविधियों के संचालन के साथ उन्होंने दुनिया भर के साधकों का मार्गदर्शन करने हेतु व्यापक रूप से यात्राएं की।2009 में सन्यास पीठ की स्थापना की।स्वामी शिवध्यानम् कहते हैं कि अपनी विशेषताओं के कारण यह संस्थान की ख्याति योग के आक्सफोर्ड रूप में है। योग सम्मेलन  को जन-जन तक पहुंचाने के लिए  बिहार योग विद्यालय तथा विश्व योगपीठ के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने, जिन्हें गत वर्ष पद्मभूषण से सम्मानित किया गया है, अपनी भारत यात्रा के क्रम में देश के विभिन्न हिस्सों में आयोजित स्वयं को जानो दिव्यता को पाओ कार्यक्रम के तहत मुंबई, काठमांडू, कोलकाता, दिल्ली, गुवाहाटी, लुधियाना, चंडीगढ़, कानपुर सहित दर्ज भर शहरों में योगोत्सवों का आयोजन हो चुका है। इस आयोजन में देश के प्रबुद्ध वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, योग चिकित्सकों, योग शोधकर्त्ताओं, संन्यासियों और योगियों के साथ ही समाज के विभिन्न तबकों के लोगों का इसमें अनूठा समागम होता है।इस कार्यक्रम का नाम ‘स्वयं को जानो योगोत्सव भारत यात्रा’ दिया गया है, जहां लोग जीवन के उद्देश्य को नए रूप में देखते हैं। ‘स्वयं को जानो योगोत्सव भारत यात्रा’ संयोजक स्वामी शिवराजानंद सरस्वती कहते हैं – ‘योग साधना के बारे में अधिकांश लोगों ने सुना है। पर कम ही लोगों ने इसका अनुभव पाया है। अनुभव कहता है कि आत्म-विकास या आत्म-साक्षात्कार का मार्ग बाहरी जगत में नहीं है। वह हमारे भीतर ही है। इसलिए इस योगोत्सव में योग साधना के प्राचीन, परंपरागत ज्ञान का आधुनिक विज्ञान के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया जाएगा। साथ ही लोगों को योग साधना के व्यावहारिक पक्ष के बारे में बताया जाता है, ताकि वे इस ज्ञान का अधिक से अधिक लाभ उठाकर आधुनिक जीवन के नकारात्मक प्रभावों को हटा सकें।’ इस तरह कहा जा सकता है कि सत्यानंद परंपरा के परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती का अभियान शुद्ध और लीक से हटकर है।

‘योग निद्रा’ योग परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की ओर से दुनिया को दिया गया ऐसा अमूल्य उपहार है, जिसके चमत्कारिक प्रभाव से लोगों को अनेक असाध्य रोगों से छुटकारा मिल रहा है। कैंसर जैसी असाध्य बीमारी पर काबू रखने में सफलता मिल रही है। उन्होंने अपने अध्ययनों और अनुसंधानों से साबित कर दिया कि ‘योग निद्रा’ के अभ्यास से संकल्प-शक्ति को जगाकर कर आचार-विचार, दृष्टिकोण, भावनाओं और सम्पूर्ण जीवन की दिशा को बदला जा सकता हैं।मनोवैज्ञानिक रोग, अनिद्रा, तनाव, नशीली दवाओं के प्रभाव से मुक्ति, दर्द का निवारण, दमा, पेप्टिक अल्सर, कैंसर, हृदय रोग आदि बीमारियों पर किए गए अनुसंधानों से योग निद्रा के सकारात्मक प्रभावों का पता चल चुका है। अमेरिका के स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन में किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि योग निद्रा के नियमित अभ्यास से रक्तचाप की समस्या का निवारण होता है। अमेरिका के शोधकर्ताओं ने योग निद्रा को कैंसर की एक सफल चिकित्सा पद्धति के रूप में स्वीकार किया है। टेक्सस के रिडियोथेरपिस्ट डॉ. ओसी सीमोनटन ने एक प्रयोग में पाया कि रेडियोथेरपी से गुजर रहे कैंसर के रोगी को योग निद्रा के अभ्यास से उसका जीवन-काल काफी बढ़ गया था।आधुनिक शिक्षा पद्धति में भी योग निद्रा का प्रयोग किया जाने लगा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक जहां कहीं भी इस विद्या का प्रयोग किया गया है, उसके बेहतर नतीजे देखने को मिले हैं। बल्गेरियन मनोवैज्ञानिक व इंस्टिट्यूट ऑफ सजेस्टोपेडी इन सोफिया के संस्थापक डॉ. जॉर्जी लोजानोव योग निद्रा का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में एक नया वातावरण तैयार करने के लिए कर रहे हैं ताकि बिना प्रयास के ज्ञान अर्जन किया जा सके। उन्हें इसमें सफलता भी मिल रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बिहार योग कितना असरदार है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि स्वामी निरंजनानंद सरस्वती मंगल मिशन के पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल हैं, जो ऐसी तरकीब निकालने में जुटे हुए हैं कि मंगल ग्रह पर यदि मानव का वास होगा और वह बीमार पड़ेगा तो उसका इलाज धरती से ही कैसे किया जा सकेगा? वह इकलौते संत हैं जो मंगल मिशन से जुड़े पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल है।

वैज्ञानिक कसौटी का बिहार योग 
1968 में पटना के एक चिकित्सक डॉ श्रीनिवास ने हृदय रोग पर अनुसंधान करके यह सावित किया कि हृदय रोग का उपचार योग से संभव है। भारत सरकार के  प्रतिष्ठानों बी.एच.ई.एल, एस.ए.आई.एल, ओ.एन.जी.सी, आई.ओ.सी और कोल इंडिया में योग केन्द्र की स्थापना कर पाया कि कार्यक्षमता में 37 फीसदी बृद्धि हुई। तात्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल बी.सी.जोशी के कार्यकाल में उंचे पवर्तीय क्षेत्रों, रेगिस्तानी इलाकों और सियचीन के बेसकैंप के सैनिकों के बीच योग का प्रयोग किया गया। भारत के प्रथम एस्ट्रानाट राकेश शर्मा को योग प्रशिक्षण दिया गया। बिना आक्सीजन के माउंट एवरेस्ट पर जाने का योगिक प्रशिक्षण बिहार योग विद्यालय द्वारा दिया गया। बिहार के नौ मेडिकल कालेजों में प्रतिवर्ष एक माह के संचालित सत्र में योग थेरेपी,योग फीजियोलाजी और योग एनाटामी की जानकारी दी गयी।



--कुमार कृष्णन--

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