स्वतंत्रता के बुनियादी पत्थर पर नव-निर्माण का सुनहला भविष्य लिखा गया था। इस लिखावट का हार्द था कि हमारा भारत एक ऐसा राष्ट्र होगा जहां न शोषक होगा, न कोई शोषित, न मालिक होगा, न कोई मजदूर, न अमीर होगा, न कोई गरीब। सबके लिए शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा और उन्नति के समान और सही अवसर उपलब्ध होंगे। आजादी के सात दशक बीत रहे हैं, अब साकार होता हुआ दिख रहा है हमारी जागती आंखों से देखा गया स्वप्न। अहसास हो रहा है स्वतंत्र चेतना की अस्मिता का। अब बन रहा है नया भारत। विरोधों एवं विवादों के बीच हमने देखा है कि नरेन्द्र मोदी का नया भारत निर्मित हो रहा है। उनके शासनकाल में यह संकेत बार-बार मिलता रहा है कि हम विकसित हो रहे हैं, हम दुनिया का नेतृत्व करने की पात्रता प्राप्त कर रहे हैं, हम आर्थिक महाशक्ति बन रहे हैं, दुनिया के बड़े राष्ट्र हमसे व्यापार करने को उत्सुक हंै, महानगरों की बढ़ती रौनक, गांवों का विकास, स्मार्ट सिटी, कस्बों, बाजारों का विस्तार अबाध गति से हो रहा है। भारत नई टेक्नोलॉजी का एक बड़ा उपभोक्ता एवं बाजार बनकर उभरा है-ये घटनाएं एवं संकेत शुभ हैं। आज भारतीय समाज आधुनिकता के दौर से गुजर रहा है। इन सब स्थितियों के बावजूद सात दशक की आजादी का आकलन करते हुए हमें इन रोशनियों के बीच व्याप्त घनघोर अंधेरों पर नियंत्रण तो करना ही होगा तभी भारत को पूर्ण विकसित राष्ट्र बना सकेंगे, तभी आजादी को सार्थक दिशा दे पायेंगे।
नरेन्द्र मोदी दूरदर्शी एवं इन्द्रधनुषी बहुआयामी व्यक्तित्व हंै। इस बात को उन्होंने अपने चार साल के शासन में बार-बार दर्शाया है। कभी वे स्वतंत्रता दिवस के लालकिले के भाषण में स्कूलों में शोचालय की बात करते हंै तो कभी गांधी जयन्ती के अवसर पर स्वयं झाडू लेकर स्वच्छता अभियान का शुभारंभ करते हैं। कभी योग की तो कभी कसरत की। कभी विदेश की धरती पर हिन्दी में भाषण देकर राष्ट्रभाषा को गौरवान्वित करते हंै तो कभी “मेक इन इंडिया” का शंखनाद कर देश को न केवल शक्तिशाली बल्कि आत्म-निर्भर बनाने की ओर अग्रसर करते हैं। नई खोजों, दक्षता, कौशल विकास, बौद्धिक संपदा की रक्षा, रक्षा क्षेत्र में उत्पादन, श्रेष्ठ का निर्माण-ये और ऐसे अनेकों सपनों को आकार देकर सचमुच मोदीजी भारत को लम्बे दौर के बाद आजादी को सार्थक अर्थ दे रहे हैं। स्वतंत्रता एवं सहअस्तित्व- मोदी की विदेश नीति इतनी स्पष्ट है कि आज दुनिया में भारत का परचम फहरा रही है। उनकी दृष्टि में कोरे हिन्दू की बात नहीं होती, ईसाई, मुसलमान, सिख की बात भी नहीं होती है, उनकी नजर में मुल्क की एकता सर्वाेपरि है। उनके निर्णय उनके इतिहास, भूगोल, संस्कृति की पूर्ण जानकारी के आधार पर होते हंै।
हम महसूस कर रहे हैं कि निराशाओं के बीच आशाओं के दीप जलने लगे हैं, यह शुभ संकेत हैं। एक नई सभ्यता और एक नई संस्कृति करवट ले रही है। नये राजनीतिक मूल्यों, नये विचारों, नये इंसानी रिश्तों, नये सामाजिक संगठनों, नये रीति-रिवाजों और नयी जिंदगी की हवायें लिए हुए आजाद मुल्क की एक ऐसी गाथा लिखी जा रही है, जिसमें राष्ट्रीय चरित्र बनने लगा है, राष्ट्र सशक्त होने लगा है, न केवल भीतरी परिवेश में बल्कि दुनिया की नजरों में भारत अपनी एक स्वतंत्र हस्ती और पहचान लेकर उपस्थित है। चीन की दादागिरी और पाकिस्तान की दकियानूसी हरकतों को मुंहतोड़ जबाव पहली बार मिला है। चीन ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि सीमा विवाद को लेकर डोकलाम में उसे भारत के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा। किसी भी राष्ट्र की ऊंचाई वहां की इमारतों की ऊंचाई से नहीं मापी जाती बल्कि वहां के राष्ट्रनायक के चरित्र से मापी जाती है। उनके काम करने के तरीके से मापी जाती है। इस उजाले को छीनने के कितने ही प्रयास हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। उजाला भला किसे अच्छा नहीं लगता। आज हम बाहर से बड़े और भीतर से बौने बने हुए हैं। आज बाहरी खतरों से ज्यादा भीतरी खतरे हैं। आतंकवाद, नक्सलवाद और अलगाववाद की नई चुनौतियां हैं- लालकिले पर फहराते ध्वज के सामने। लोग समाधान मांग रहे हैं, पर गलत प्रश्न पर कभी भी सही उतर नहीं होता। हमें आजादी प्राप्त करने जैसे संकल्प और तड़प उसकी रक्षा करने के लिए भी पैदा करनी होगी। जब तक लोगों के पास रोटी नहीं पहुँृचती, तब तक कोई राजनीतिक ताकत उसे संतुष्ट नहीं कर सकती। रोटी के बिना आप किसी सिद्धांत को ताकत का इंजेक्शन नहीं दे सकते।
125 करोड़ के राष्ट्र को लालकिले का तिरंगा ध्वज कह रहा है कि मुझे आकाश जितनी ऊंचाई दो, भाईचारे का वातावरण दो, मेरे सफेद रंग पर किसी निर्दोष के खून के छींटे न लगें, आंचल बन लहराता रहे। मुझे फहराता देखना है तो सुजलाम् सुफलाम् को सार्थक करना होगा। मुझे वे ही हाथ फहरायंे जो गरीब के आंसू पोंछ सकें, मेरी धरती के टुकड़े न होने दें, जो भाई-भाई के गले में हो, गर्दन पर नहीं। अब कोई किसी की जाति नहीं पूछे, कोई किसी का धर्म नहीं पूछे। मूर्ति की तरह मेरे राष्ट्र का जीवन सभी ओर से सुन्दर हो। लेकिन बिन राजनीति चरित्र के सबकुछ धुंधला रहा है, सून हो रहा है। आज भी घने अंधेरे कायम है। इन घने अंधेरों के बीच अच्छे दिन की कल्पना करते हुए यह भी माना जाने लगा था कि जल्द ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। चूंकि अपेक्षाओं की कोई सीमा नहीं होती और कई बार सक्षम सरकारों के लिए भी जन आकांक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरना मुश्किल हो जाता है इसलिए इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन है कि भारत की जनता आजादी का जश्न मनाते हुए कितनी उत्साहित है और कितनी नाउम्मीद? लेकिन इतना तो तय है ही कि अधूरी उम्मीदों और बेचैनी के भाव के बाद भी लोगों का भरोसा कायम दिख रहा है। यह भरोसा ही सबसे बड़ी ताकत है।
हर बार आजादी के जश्न को मनाते हुए अनेक प्रश्न खडे़ रहे हैं, ये प्रश्न इसलिये खड़े हुए हैं क्योंकि आज भी आम आदमी न सुखी बना, न समृद्ध। न सुरक्षित बना, न संरक्षित। न शिक्षित बना और न स्वावलम्बी। अर्जन के सारे स्रोत सीमित हाथों में सिमट कर रह गए। स्वार्थ की भूख परमार्थ की भावना को ही लील गई। हिंसा, आतंकवाद, जातिवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रीयवाद तथा धर्म, भाषा और दलीय स्वार्थों के राजनीतिक विवादों ने आम नागरिक का जीना दुर्भर कर दिया। जनता के हितों पर कुछ सार्थक निर्णय लेने के लिये चुनी गयी संसद अपने ही हितों के लिये संसद की कार्रवाही का अवरोध करना, कैसा लोकतांत्रिक आदर्श है? प्रश्न है कि कौन स्थापित करेगा एक आदर्श शासन व्यवस्था? कौन देगा इस लोकतंत्र को शुद्ध सांसे? जब शीर्ष नेतृत्व ही अपने स्वार्थों की फसल को धूप-छांव देने की तलाश में हैं। जब रास्ता बताने वाले रास्ता पूछ रहे हैं और रास्ता न जानने वाले नेतृत्व कर रहे हैं सब भटकाव की ही स्थितियां हैं।
बुद्ध, महावीर, गांधी हमारे आदर्शों की पराकाष्ठा हंै। पर विडम्बना देखिए कि हम उनके जैसा आचरण नहीं कर सकते- उनकी पूजा कर सकते हैं। उनके मार्ग को नहीं अपना सकते, उस पर भाषण दे सकते हैं। आज के तीव्रता से बदलते समय में, लगता है हम उन्हें तीव्रता से भुला रहे हैं, जबकि और तीव्रता से उन्हें सामने रखकर हमें अपनी व राष्ट्रीय जीवन प्रणाली की रचना करनी चाहिए। गांधी, शास्त्री, नेहरू, जयप्रकाश नारायण, लोहिया के बाद राष्ट्रीय नेताओं के कद छोटे होते गये और परछाइयां बड़ी होती गईं। हमारी प्रणाली में तंत्र ज्यादा और लोक कम रह गया है। यह प्रणाली उतनी ही अच्छी हो सकती है, जितने कुशल चलाने वाले होते हैं। लेकिन कुशलता तो तथाकथित स्वार्थों की भेंट चढ़ गयी। लोकतंत्र श्रेष्ठ प्रणाली है। पर उसके संचालन में शुद्धता हो। लोक जीवन में ही नहीं लोक से द्वारा लोक हित के लिये चुने प्रतिनिधियों में लोकतंत्र प्रतिष्ठापित हो और लोकतंत्र में लोक मत को अधिमान मिले- यह वर्तमान समय की सबसे बड़ी अपेक्षा है।
हमारी सबसे बड़ी असफलता है कि आजादी के 70 वर्षों के बाद भी हम राष्ट्रीय चरित्र नहीं बना पाये। राष्ट्रीय चारित्र का दिन-प्रतिदिन नैतिक हृास हो रहा था। हर गलत-सही तरीके से हम सब कुछ पा लेना चाहते थे। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कत्र्तव्य को गौण कर दिया था। इस तरह से जन्मे हर स्तर पर भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय जीवन में एक विकृति पैदा कर दी थी। देश में एक ओर गरीबी, बेरोजगारी और दुष्कार की समस्या है। दूसरी ओर अमीरी, विलासिता और अपव्यय है। देशवासी बहुत बड़ी विसंगति में जी रहे हैं। एक ही देश की धरती पर जीने वाले कुछ लोग पैसे को पानी की तरह बहाएँ और कुछ लोग भूखे पेट सोएं-इस असंतुलन की समस्या को नजरंदाज न कर इसका संयममूलक हल खोजना चाहिए। संविधान के अन्तर्गत बनी आचार संहिता मुखर हो, प्रभावी हो। केवल पूजा की चीज न हो। जन भावना लोकतंत्र की आत्मा होती है। लोक सुरक्षित रहेगा तभी तंत्र सुरक्षित रहेगा। लोक के लिए, लोक जीवन के लिए, लोकतंत्र के लिए जरूरत है कि उसे शुद्ध सांसें मिलें। लोक जीवन और लोकतंत्र की अस्मिता को गौरव मिले। इसी सन्देश में स्वतंत्रता की सार्थकता निहित है। हमारे राष्ट्रनायकों ने, शहीदों ने एक सेतु बनाया था संस्कृति का, राष्ट्रीय एकता का, त्याग का, कुर्बानी का, जिसके सहारे हम यहां तक पहंुचे हैं। हर नागरिक इस सेतु बनाने के लिये तत्पर हो। यही वह क्षण है जिसकी हमें प्रतीक्षा थी और यही वह सोच है जिसका आह्वान है अभी और इसी क्षण शेष रहे कामों को पूर्णता देने का, क्योंकि हमारा भविष्य हमारे हाथों में हैं। ऐसा करके ही हम स्वतंत्रता दिवस को मनाने की सार्थकता सिद्ध कर पाएंगे।
(ललित गर्ग)
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