विशेष : ’हिन्दुस्तान’ से ’घुसपैठियों’ की आजादी कब? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 14 अगस्त 2018

विशेष : ’हिन्दुस्तान’ से ’घुसपैठियों’ की आजादी कब?

लंबे अरसे बाद भारत की आत्मा को मिली स्वतंत्र अभिव्यक्ति के 71 साल पूरे हो चुके हैं। नियति के साथ करार के नव-संकल्प के साथ आधुनिक राष्ट्र के रूप में संपन्न और सार्थक भविष्य की ओर भारत आगे बढ़ रहा है। बावजूद इसके विविधताओं का महापुंज यह देश आंतरिक खींचतान से ग्रस्त है। मिल-बैठकर कमियों को दूर करने के बजाय जाति, धर्म, लिंग आदि के भेदभाव में उलझे है। ऐसे में सवाल तो यही है अगर अंतरिक्ष में विज्ञान बेहतर कर सकते हैं, तो हम इन भेदभावों से दूर जमीनी मुद्दों से जुड़ी समस्याओं पर क्यों एक नहीं हो सकते? घुसपैठियों को मेहमान बनाने की सियासत कब तक देश सहन करेगा? मौलानाओं का आबादी बढ़ाओं कार्ड कब तक चलेगा? कश्मीर से केरल तक प्राकृतिक आपदा से आजादी कब मिलेगी? गंगा मइया की गंदगी की सफाई कब पूरा होगी? उपर वाला दे रहा है इसलिए कबूल कर रहा हूं आखिर कब तक चलेगा? 71 साल बाद हिन्दुस्तानियों की आजादी क्यों नहीं? ये ऐसे सवाल है जिसका समाधान राजनेताओं को ही करना है, लेकिन राजनीतिक दल अपने ही स्वार्थसिद्धि में तत्पर है। जबकि स्वतंत्रता की मौलिक स्थिति बनाना राजनेताओं का ही दायित्व है 
indipendence-and-refugy
जब अंगरेज भारत छोड़ कर गये, उन्होंने वे सभी प्रयास प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से किये, जिससे उपमहाद्वीप में सदा के लिए दरारें पड़ी रहें। अंग्रेजों की दिली तमन्ना थी कि भारत टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा, क्योंकि इसे एक करने वाला कोई है ही नहीं। लेकिन, उनके मंसूबों पर भारत के नेताओं ने पानी फेर दिया। सरदार पटेल ने पूरे देश को एक सूत्र में बांध दिया, पंडित नेहरू ने एक लोकतांत्रिक चुनाव और गणतंत्र की नींव रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी, और अन्य ने भी भरपूर योगदान दिया। अंततः 1960 आते-आते भारत में एक व्यवस्थित संवैधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था ने पैर जमा ही लिये। लेकिन, बीते दशकों की लंबी यात्रा में हमने एक बहुत गलत रुझान देखा है, जो आज ठीक न किया गया, तो लोगों का विश्वास खो देने का डर सदा बना रहेगा। वह है- जिस आजादी का भरोसा हमें दिलाया गया था, जहां आम जन पूरी आजादी से सशक्त हो पाता, वह कब सत्ता के गलियारों में तब्दील होता चला गया, पता ही नहीं चला। नागरिक हाशिये पर चले गये, व्यवस्था प्रधान हो गयी, जनता की जरूरतें सरकार की नीतियों में दब गयीं, राजतंत्र ने अपनी दबंगई से आम जनमानस के कमजोर हिस्सों पर ऐसा वार किया कि नागरिक कानून के लिए बन गये, कानून नागरिकों के लिए नहीं! 

देश के लिए कैंसर जैसे जानलेवा बीमारी से भी अधिक घातक हो चुका भ्रष्टाचार, गरीबी, भूखमरी, गंदगी, जातिवाद, बढ़ती जनसंख्या, आतंकवाद और साम्प्रदायिकता पर विजय पाने के बजाय राजनेता अपने ही स्वार्थसिद्धि में मरे जा रहे हैं। देश के सामने कश्मीर से लेकर चीन के सीमा विवाद जैसे विवाद सामने हैं। तब पूरी दुनिया को एकस्वर में बताया गया कि राष्ट्रहित के मुद्दे पर भारत एक है। लेकिन आज राष्ट्र के मसले पर बखेड़ा ही बखेड़ा है। असम से लेकर पश्चिम बंगाल समेत पूरे भारत में बड़े पैमाने पर घुसपैठिये शरण लिए हुए है। 40 लाख से भी अधिक लोग केवल में ही चिन्हित किए गए है। यह सच है कि घुसपैठिये न सिर्फ राष्ट्र की सुरक्षा के लिए घातक है बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी अहितकर है। देश में बड़ संख्या में मौजूद घुसपैठियों के चलते योजनाओं के वास्तविक हकदार जनमानस वंचित है। लेकिन अफसोस है कि ममता बनर्जी, राहुल गांधी समेत कई नेता इन घुसपैठियों को वोटबैंक की चश्में से देखते हैं। माना कि इन्हें एक झटके में देश निकाला करना आसान नहीं हैं। लेकिन असम से ड्राफ्ट एनआरसी से बाहर हुए 40 लाख लोगों को अपने राज्य में शरण देने का ऐलान करने वाली ममता क्या बतायेंगी कि ऐसा वो क्यों करना चाहती है। जबकि 2005 में बनर्जी ने खुद लोकसभा में अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों का मुद्दा उठाए जाने की अनुमति न दिए जाने से नाराज होकर अपने कागजात लोकसभा अध्यक्ष की तरफ फेंक दिए थे। 

कांग्रेस की ‘तुष्टीकरण की राजनीति’ के कारण ही स्थिति काबू से बाहर हो गई थी। ’’आपातकाल के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने वोटों की खातिर ‘अली (मुस्लिम), कुली (चाय आदिवासी) और बंगाली’ की नीति अपनाई थी और लाखों बांग्लादेशी घुसपैठियों को असम में बसाने में मदद की थी,’’ यह जगजाहिर है। मामला तब और संगीन हो जाता है जब जम्मू के चन्नी हिम्मत इलाके में रोहिंग्याओं की झुग्गी बस्ती से पुलिस ने 30 लाख रुपये कैश बरामद किया। यह पूरा कैश एक कचरे के ढेर के नीचे कंटेनर और एक सूट केस में रखा था। हिरासत में लिए गए आरोपी इस्माइल और नूर आलम की उम्र 19 और 21 वर्ष क्रमशः है। दोनों कुछ दिन पहले ही बांग्लादेश से लौटे हैं। पूछताछ में दोनों युवक यह नहीं बता पाए कि बिना पासपोर्ट के वो भारत में इतनी बड़ी रकम लेकर कैसे पहुंचे। शक जताया जा रहा है कि क्या इतनी बड़ी रकम का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों और ह्यूमन ट्रैफिकिंग में तो नहीं हो रहा था। इस वाकये के बाद भी अगर ममता, राहुल, सोनिया सरीखे नेताओं को घुसपैठिये और राहिंग्याओं को लेकर हमदर्दी है तो राष्ट्र की सुरक्षा में सेंध लगेगा ही। बाबा साहेब आंबेडकर ने राष्ट्र सुरक्षा के साथ ही आर्थिक और सामाजिक विषमता को दूर करने का संदेश दिया था और चेतावनी दी थी कि ऐसा नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा। लेकिन अफसोस सब इसके उलटे ही हो रहे है। 

देश की बड़ी आबादी तक समृद्धि और विकास के लाभ नहीं पहुंच सके हैं। गरीबी, बीमारी और अशिक्षा के साये में करोड़ों लोग जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि संकट भीषण रूप ले चुका है और शहर प्रबंधन और अवसरों के अभाव में अनेक समस्याओं से त्रस्त हैं। समाज में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवहेलना की प्रवृत्ति का निरंतर बढ़ते जाना देश की एकता और अखंडता तथा भविष्य की आकांक्षाओं के लिए बेहद नुकसानदेह है। लोकतांत्रिक देश के रूप में सफल होने के लिए नागरिकों में एका और अधिकारों के प्रति परस्पर सम्मान की भावना मूलभूत शर्त है। बलिदान हुए देशभक्तों, महान राष्ट्र निर्माताओं तथा लोकतांत्रिक भारत को सशक्त करने वाले नेताओं और विभिन्न कार्यों में संलग्न होकर अथक मेहनत और मेधा से इसे आगे ले जाने वाले अनगिनत लोगों के प्रति श्रद्धा के भाव के साथ हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि विषमता, अन्याय और शोषण की समाप्ति में हम हरसंभव योगदान करेंगे, और परस्पर मेलजोल की भावना के साथ एक-दूसरे का हाथ थामे राष्ट्र की महायात्रा के सहभागी बनेंगे। एक आम नागरिक की दृष्टि से आज के तंत्र पर नजर डालें, तो यकीन हो जाता है कि संविधान-निर्माताओं ने ऐसे भारत की कल्पना तो नहीं की होगी- स्वर्णिम तो दूर, हम अपने अधिकतर नागरिकों को एक नारकीय जीवन जीने हेतु विवश देखते हैं। बाह्य आक्रमणों से जूझता रहा है, अस्थिर करने के प्रत्यक्ष प्रयासों और अपरोक्ष षड्यंत्रों का भुक्तभोगी रहा है। 

इन 71 सालों में देखे तो देश के अंदर कई मुद्दे, कई समस्याएं ऐसी हैं जो खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। भ्रष्टाचार, गरीबी, भूखमरी, गंदगी, जातिवाद, आतंकवाद और साम्प्रदायिकता इस कदर हावी है कि उसके आगे विकास की बातें बेमानी हो जाती है। मानों देश की जनता इन्हीं समस्याओं से निजात की मांग कर रही है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दावा है कि उनके सपनों का भारत बनाने का वक्त शुरु हो चुका है। ‘‘2022 तक हर हाल में भ्रष्टाचार मुक्त, गरीबी मुक्त, भूखमरी मुक्त, गंदगी मुक्त, जातिवाद मुक्त, आतंकवाद मुक्त और साम्प्रदायिकता मुक्त होगा भारत‘‘। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि क्या ऐसा हो पायेगा। क्योंकि संसद में मोदी के इस आह्वान का स्वागत करने के बजाय, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने यह कहकर बखेड़ा कर दिया है कि मोदीराज में सबकुछ ठीक नहीं हैं। हो जो भी यह सच है कि इन मसलों की जड़े इतनी गहरी है कि इसके लिए एक और संग्राम करना ही होगा और यह काम कोई और नहीं बल्कि आमजनमानस को ही करना होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि जब कभी भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा भ्रष्टाचार, गरीबी उन्मूलन, भूखमरी सफाए के लिए अभियान चलाया जाता है, तो सबसे अधिक पीड़ा देश के भीतर ही मौजूद एक तबके को होने लगता है। चाहे वह नोटबंदी हो या सर्जिकल स्ट्राइक या जीएसटी या किसान आंदोलन, मोदी को सबसे ज्यादा विरोध इन्हीं सेकुलरवादी ताकतों का ही झेलना पड़ा। 

मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन के दौरान की गयी तोड़फोड़ व आगजनी का खौफनाक मंजर हो या जरुरी प्रस्तावों को पास कराने के दौरान संसद कार्रवाई ठप करने से लेकर अन्य मसलों पर किस तरह नंगा नाच किया गया, इसे बताने की जरुरत नहीं। खासकर सोनिया गांधी व राहुल गांधी की टिप्पणी ‘‘देश में बोलने की आजादी नहीं है। चारों तरफ नफरत के बादल छा गए है और साम्प्रदायिकता, विभाजन की राजनीति हावी हो रही है। कानून के राज पर भी गैर कानूनी शक्तियां हावी हो रही हैं और लोकतांत्रिक मूल्य खतरे में हैं। हमें हर तरह की दमनकारी शक्ति से लड़ना है।‘‘ ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है कि क्या आजादी की लड़ाई को कांग्रेस अपनी लड़ाई के एजेंडे के लिए इस्तेमाल कर रही है? क्या सोनिया गांधी ने आजादी के नायकों का बंटवारा कर दिया है? क्या कांग्रेस देश में साम्प्रदायिकता और नफरत का डर दिखाकर अंग्रेजों की ही तरह फूट डालों राज करों की राजनीति कर रही है? फिरहाल, खनन, नदी परियोजना, कृषि, विकास, पशुधन विकास, वन संरक्षण, बड़े बांध, सस्ते व उच्च कृषि तकनीकों का विकास, बेकार पड़ी जमीन पर पौधारोपण, कचरा संरक्षण, शहरों में समुचित जल व्यवस्था, वैकल्पिक उर्जा प्रबंधन, शिक्षा में उच्चस्तरीय शोध, नयी भवन निर्माण शैली, देश क सुरक्षा के लिए खतरा बने घुसपैठये व रोहिंग्नया, पत्थरबाजों पर नकेल आदि पर जो काम हुए है उस पर और तेज लाने की जरुरत है। या यूं कहे अगर इन कामों को पूरा कर लिया जाय तो 71 सालों में अधूरी रह गए कामों को पूरा कर आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, संवैधानिक रुप से एक परिपक्व भारत का निर्माण कर सकते हैं। जहां धर्म, जाति, लिंग भेदभाव से परे रहकर हर कोई सम्मानपूर्वक गुजर-बसर कर सकता है। 




(सुरेश गांधी)

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