बरसों पहले अंग्रेजी के मशहूर लेखक शेक्सपियर ने कहा था, व्हाट इस इन द नेम? यानी नाम में क्या रखा है? अगर गुलाब का नाम गुलाब न होकर कुछ और होता, तो क्या उसकी खूबसूरती और सुगंध कुछ और होती? आज एक बार फिर यह प्रश्न प्रासंगिक हो गया है कि क्या नाम महत्वपूर्ण होते हैं? लेकिन इस पूरे प्रकरण में खास बात यह है कि नाम बदलने पर विरोध के स्वर उस ओर से ही उठ रहे हैं जो भारतीय के बजाए विदेशी लेखकों, उनके विचारों और उनकी संस्कृति से अधिक प्रभावित नजर आते हैं। खैर मुद्दा यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार के ताजा फैसले के अनुसार, इलाहबाद अब अपने पुराने नाम "प्रयागराज" से जाना जाएगा। योगी सरकार का यह कदम अप्रत्याशित नहीं है और ना ही यह देश के किसी शहर का पहला नाम परिवर्तन है। इससे पहले भी अनेकों शहरों के नाम बदले जा चुके हैं। अगर शुरुआत से शुरू करें तो आज़ादी के बाद सबसे पहले त्रावणकोर कोचीन को केरला (1956) नाम दिया गया, मद्रास स्टेट को तमिलनाडु (1969), मैसूर स्टेट को कर्नाटक (1973), उत्तरांचल को उत्तराखंड (2007), बॉम्बे को मुंबई(1995), कलकत्ता को कोलकाता(2001), मद्रास को चेन्नई(1996), फेहरिस्त काफी लम्बी है। तो फिर इलाहाबाद के नाम परिवर्तन पर ऐतराज क्यों क्या इलाहाबाद नाम से विशेष लगाव? या फिर प्रयागराज नाम से परेशानी? या फिर कोरी राजनीति?
वैसे भारत जैसे देश में जहाँ योग्यता के बजाए नाम के सहारे राजनैतिक परंपरा आगे बढ़ाई जाती हो, वहां नाम पर राजनीति होना शायद आश्चर्यजनक नहीं लगता। तो चलिये पहले हम राजनीति से परे इस पूरे विषय का विश्लेषण कर लेते हैं।सबसे पहली बात तो यह है कि शेक्सपियर जो भी कहें, लेकिन भारतीय संस्कृति में नाम की बहुत महत्ता है। हमारे मानना है कि व्यक्ति के नाम का असर उसके व्यक्तित्व पर पढ़ता है। शायद इसलिए हम लोग अपने बच्चों के नाम रावण या सूपर्णखा नहीं राम और सीता रखना पसंद करते हैं। हमारे यहाँ हर शब्द का अपना विशेष महत्व है। क्योंकि हर शब्द का उच्चारण एक ध्वनि को उत्पन्न करता है और हर ध्वनि एक शक्ति को। सकारात्मक शब्द से उत्पन्न ध्वनि अपने आस पास सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं जबकि नकारात्मक शब्द नकारात्मक ऊर्जा का। हमारे यहाँ शब्दों की एक विशेषता और होती है, उनके पर्यायवाची। इसमें शब्दों का चयन बदला जा सकता है लेकिन इससे उसके भाव में कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे हम शिव को शंकर, शम्भू, नीलकंठ, उमापति, किसी भी नाम से पुकारें भाव एक ही है, शिव। शब्दों का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि ॐ से लेकर वैदिक मंत्रों के उच्चारण से होने वाले चमत्कारी प्रभावों के आगे आधुनिक विज्ञान भी आज नतमस्तक है।
यहाँ पर विषय है त्रिवेणी संगम की नगरी को उसका पुराना नाम दिया जाना। दरअसल"प्रयागराज", तीन शब्दों से मिलकर बना यह शब्द हैं, प्र, याग और राज। प्र यानी पहला, याग यानी यज्ञ, और राज यानी राजा। भारतीय मान्यता के अनुसार यह वो स्थान है जहाँ ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के पश्चात पहला यज्ञ किया था। इसके अतिरिक्त यहीं पर गंगा यमुना सरस्वती का संगम होने के कारण इसे त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है। इन्हीं कारणों से इसे सभी तीर्थों का राजा कहा गया और इस प्रकार इस स्थान को अपना यह नाम प्रयागराज मिला।ऋग्वेद, मत्स्यपुराण, रामायण, महाभारत जैसे अनेक भारतीय वांग्मय में प्रयागराज का वर्णन मिलता है। महाभारत में इस स्थान की महिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि, "सर्वतीर्थेभ्यः प्रभवत्यधिकं विभो। श्रवनात तस्य तीर्थस्य नामसंकीर्तनादपि मृत्तिकालम्भनाद्वापी नरः पापत प्रमुच्यते।।"अर्थात सभी तीर्थों में इसका प्रभाव सबसे अधिक है। इसका नाम सुनने अथवा बोलने से या फिर इसकी मिट्टी को अपने शरीर पर धारण करने मात्र से ही मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। तो यह स्थान जो कि प्रयागराज के नाम से जाना जाता था, इलाहाबाद कैसे बन गया? अकबरनामा, आईने अकबरी और अन्य मुग़लकालीन ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है कि 1583 में मुग़ल सम्राट अकबर ने इसका नाम बदल कर इल्लाहबाद रखा था। "इल्लाह" अरबी शब्द है जिसका अर्थ है "अल्लाह" जबकि "आबाद" फारसी शब्द है जिसका अर्थ है "बसाया हुआ"। इस प्रकार इसका अर्थ हुआ ईश्वर द्वारा बसाया गया।
देखा जाय तो प्रयाग नाम में यहाँ प्रथम यज्ञ करके इसकी रचना का श्रेय ब्रह्मा को दिया गया है जबकि इलाहाबाद नाम से अल्लाह को इसकी रचना का श्रेय दिया गया है। और यह तो हर पंथ में कहा गया है कि ईश्वर एक ही है लेकिन उसके नाम अनेक हैं। इससे इतना तो स्पष्ट ही है कि दोनों ही नाम इस स्थान की दिव्यता को और इसकी रचना में उस परम शक्ति के योगदान को अपने अपने रूप में स्वीकार कर रहे हैं केवल शब्दों का फर्क है, भाव एक ही है। अगर यह कहा जाय कि अकबर ने इस स्थान के नाम में उसके भाव को बरकरार रखते हुए केवल भाषा का परिवर्तन किया था, तो भी गलत नहीं होगा। इसलिये अगर आजाद भारत में यह पुण्य स्थान एक बार पुनः अपनी भाषा में अपने मौलिक नाम से जाना जाने लगे तो यह हर भारतीय के लिए एक गौरव का विषय होना चाहिए विवाद का नहीं।
डॉ नीलम महेंद्र
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