विशेष : मां को खुश करने का सशक्त माध्यम है ‘गरबा‘ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

विशेष : मां को खुश करने का सशक्त माध्यम है ‘गरबा‘

मां अंबे की आराधना के साथ जब लोकगीतों की धुन पर गुजरात के लोकनृत्य गरबा की धूम मचती है तो हर किसी के पैरों में एक थिरकन पैदा हो जाती है। अंबे की मूर्ति के समक्ष नन्हीं-नन्हीं बच्चियों से लेकर युवक-युवतियों का यह नाच मां की प्रसंनता और उनकी आराधना के लिए किया जाता है। देवी पुराण और प्राचीन ग्रंथों में भी संगीत के साथ होने वाले नृत्य को विशेष आराधना में शामिल किया गया है। देवी गीतों और विशेष कर गुजरात लोक संस्कृति के गीत इन गरबों की लय में जान फूंक देते हैं। वैसे भी श्रद्धा से मां की भक्ति में रमना ही इस त्योहार का पवित्र उद्देश्य है। जिसका माध्यम बनता है ‘गरबा‘। या यूं कहें कि मां की भक्ति और उन्हें प्रसन्न करने का सबसे सशक्त माध्यम है ‘गरबा‘। गुजरात के इस लोकनृत्य के बिना मानो मां की उपासना अधूरी सी लगती है। गुजरात के साथ-साथ गरबे की धूम अब अधिकांश क्षेत्रों में दिखाई देती है। यही वजह है कि गरबा आजकल आधुनिक नृत्यकला की श्रेणी में भी शामिल हो गया है 

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सबसे पहले माता के लिए सजाएं गएं उनके पंडालों में आरती-अर्चना के साथ आदिशक्ति मां अंबे और दुर्गा की स्तुति की जाती है। फिर गीतों के माध्यम से मां का आह्वान किया जाता है कि मां हमारे गरबों में पधारों और इस नृत्य साधना के जरिए हमारी पूजा स्वीकार करों। इसके बाद तो पैर ऐसे थिरकते है जैसे मानों मां साक्षात नृत्य की प्रस्तुति दे रही हों। पारंपरिक और रंग-बिरंगे कपड़ों में सजे-धजे बच्चे, युवा, बड़े और बुजुर्ग एक अलग ही अंदाज को प्रस्तुत करते है। बता दें, घट स्थापना के बाद इस नृत्य का आरंभ होता है। जिसके लिए बड़े-बड़े पंडालों को आकर्षक ढंग से सजाया जाता है। गरबा नृत्य में ताली, चुटकी, खंजरी, डंडा मंजीरा आदि का ताल देने के लिए प्रयोग किया जाता है। कहते है लयबद्ध ताल से देवी दुर्गा को प्रसन्न करने की कोशिश की जाती है। जहां भक्तिपूर्ण गीतों से मां को उनके ध्यान से जगाने का प्रयास किया जाता है ताकि उनकी कृपा हर किसी पर बनी रहे। पहले देवी के समीप छिद्र वाले घट में दीप ले जाने के क्रम में यह नृत्य होता था। हालांकि यह परिपाटी आज भी है लेकिन मिट्टी के घट या गरबी की शक्ल अब स्टील और पीतल ने ले ली है। यह घट ‘दीपगर्भ‘ कहलाता है और बाद में यही गरबो और फिर गरबा के रुप में प्रचलित हो गया। तालियों के जरिए किया जाने वाला ताल गरबा डंडों के प्रयोग से किया जाने वाला डांडिया कहलाने लगा। देवी के सम्मान में भक्ति प्रदर्शन के रुप में ‘गरबा‘ आरती से पहले किया जाता है और डांडिया उसके बाद। 

संगीत से थिरक उठते हैं कदम 
‘घूमतो-घूमतो जाए, अंबो थारों गरबो रमतो जाए‘, ‘पंखिंडा ओ पंखिडा...‘ जैसे गीतों के बजते ही हर किसी के कदम थिरक जाते हैं। चारों ओर ढोलक की थाप और संगीत में गरबों का जो समां बंधता है, उसे कुछ घंटों क्या पूरी रात करने से भी मन नहीं भरता है। न सिर्फ गरबा करने वाले बल्कि देखने वालों की स्थिति भी यही होती है। जहां तक नवरात्र में ही गरबा या डांडिया करने की प्रथा का सवाल है तो इसके पीछे मान्यता है कि कुंभ हिंदू धर्म के सांस्कृतिक मानस में स्थूल देह का प्रतीक है। ‘फूटा कुंभ जल जलहि समाना।’ अर्थात भक्त रुपी कुंभ एवं गुरु रुपी वह कुम्हार ‘जो गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट’.यानी अपने भीतर छिपे खोट को ढूढ़ निकाले। इसीलिए नवरात्रि के समय कुंभ के भीतर दीप रखकर उसके गिर्द ‘गरबा’ करने का रिवाज है। क्योंकि दीपशिखा हमेशा ऊपर उठती है। जबकि चेतना का भी यही गुण धर्म है। देह के भीतर चेतना उघ्र्वगामी हो, वह मूलाधार में ही न रहे, सहस्नर तक पहुंचे, सारी सृष्टि को आत्मवत् पहचाने! यही वजह है हर गरबा या डांडिया नाईट में काफी सजे हुए घट दिखायी देते हैं। जिस पर दिया जलाकर इस नृत्य का आरंभ किया जाता है। यह घट दीपगर्भ कहलाता है और दीपगर्भ ही गरबा कहलाता है। गरबों का प्रमुख आकर्षण होता है रंग-बिरंगी, चटकीली पोषाकों का। जिसे पहनकर हर कोई माता की भक्ति में रमा हुआ नजर आता है। साथ ही यह आज के युवा वर्ग द्वारा अपनी संस्कृति से जुड़ने का समय भी है। 

मां और असुरों के बीच हुई लड़ाई का होता है मंचन 
गरबा और डांडिया को मां और महिषासुर के बीच हुई लड़ाई का नाटकीय रूपांतर भी माना गया है। इसीलिए इस नृत्य में इस्‍तेमाल की जाने वाली डांडिया स्‍टीक को मां दुर्गा की तलवार के रूप में माना जाता है। यही वजह है कि डांडिया के लिए रंग-बिरंगी लकड़ी की स्‍टीक्‍स, चमकते लहंगे, कढ़े हुए ब्‍लाउज व कदमों को थिरकाने वाले संगीत की जरूरत पड़ती है। इस नृत्य में सिर के उपर पारंपरिक रूप से सजाए गए मिट्टी बर्तन (गरबी) रखकर प्रदर्शित किया जाता है। गरबा का संस्कृत नाम गर्भ-द्वीप है। गरबा के आरंभ में देवी के निकट सछिद्र कच्चे घट को फूलों से सजा कर उसमें दीपक प्रज्वलित किया जाता है, जो ज्ञान रूपी प्रकाश का अज्ञान रूपी अंधेरे के भीतर फैलाने प्रतीक माना जाता है। इस गर्भ दीप के ऊपर एक नारियल रखा जाता है। नवरात्र की पहली रात्रि गरबा की स्थापना कर उसमें ज्योति प्रज्वलित की जाती है। इसके बाद महिलाएं इसके चारों ओर ताली बजाते हुए फेरे लगाती हैं। समूह में मिलकर नृत्य करती हैं। इस दौरान देवी के गीत गाए जाते हैं।

सौभाग्य का भी प्रतीक है गरबा 
गरबा को सौभाग्य का भी प्रतीक माना जाता है। इसीलिए महिलाएं नवरात्र में गरबा को नृत्योत्सव के रूप में मनाती है। इस दौरान पति-पत्नी हो या अन्य सभी लोग पारंपरिक परिधान पहनते हैं। लड़कियां चनिया-चोली पहनती हैं और लड़के गुजराती केडिया पहनकर सिर पर पगड़ी बांधते हैं। नवरात्र पर्व मां अंबे दुर्गा के प्रति श्रद्धा प्रकट करने तथा युवा दिलों में मौज-मस्ती के साथ गरबा-डांडिया खेलने और अपनी संस्कृति से जुड़ने का सुनहरा अवसर भी है। नवरात्र में माता का पंडाल सजाकर युवक-युवतियां पारंपरिक वस्त्र कुर्ता-धोती, कोटी, घाघरा (चणिया)-चोली, कांच और कौड़ियां जड़ी पोशाक पहन कर पारंपरिक नृत्य डांडिया और ‘गरबे की रात आई, गरबे की रात आई..., सनेडो सवेडो लाल लाल सनेडो‘, ‘अंबा आवो तो रमीये’ गाते हुए गरबा खेलती है। कुछ साल पहले तक गरबा केवल गुजरात व राजस्थान सहित उसके आसपास के जिलों तक ही सीमित था, लेकिन अब धीरे-धीरे पूरे देश में फैल चुका है। नवरात्र के दौरान डांडिया नृत्य और गरबा पूरे नौ दिनों तक प्रदर्शित किया जाता है। हालांकि आज भी गुजरात में खेला जाने वाला गरबा और डांडिया नृत्य दुनिया भर के बड़े नृत्य त्योहारों में से एक हैं। नवरात्र आयी नहीं की हर तरफ गरबा और डांडिया की धूम शुरू हो जाती है। क्या लड़के, क्या लड़कियां, क्या बच्चे और क्या बूढ़े... पारंपरिक अंदाज में सजे हर उम्र के लोग गरबा का जमकर लुत्फ उठाते हैं। 

वजन घटाने का भी माध्यम है गरबा  
चिकित्सकों की मानें तो आज के भाग-दौड़ भरी जिंदगी में जिनके पास कसरत का समय नहीं है उनके लिए माताजी की भक्ति के साथ-साथ गरबा खेल कर शरीर की केलोरी व्यय कर वजन घटाने का भी उचित अवसर है। बशर्ते गरबा खेलते वक्त डिहाइड्रेशन से बचने के लिए आहार को संतुलित मात्रा में लिया जाना चाहिए। गुजरात के कुछ हिस्सों एवं यूपी के मथुरा में नवरात्र के दौरान डांडिया-रास भी बेहद लोकप्रिय है। यह अधिकतर पुरुष (उमद विसा) द्वारा किया जाता है। आज इन नृत्यों के व्यावसायीकरण हो जाने के कारण इस नृत्य की वास्तविकता, पारंपरिकता और नाजुक लय, वैकल्पिक रूपों में खोती जा रही है। रास या रसिया बृजभूमि का लोकनृत्य है, जिसमें वसंतोत्सव, होली तथा राधा और कृष्ण की प्रेम कथा का वर्णन होता है। रास अनेक प्रकर का होता है। यह उस रात को शुरु होती है जब श्रीकृष्ण अपनी बांसुरि बजाते है। उस रात श्रीकृष्ण अपनी गोपियों के साथ बांसुरि बजाते है। यह नृत्य वृंदावन में अधिक देखने को मिलती है। डांडिया रास नृत्य के कई रूप हैं, लेकिन गुजरात में नवरात्रि के दौरान खासा लोकप्रिय है। इसमें केवल एक बड़ी छड़ी प्रयोग किया जाता है। रास लीला और डांडिया रास के समान हैं। 

अनेकता में एकता का प्रतीक भी है गरबा 
जगह-जगह आयोजित समारोहों में जहां बड़ी संख्या में लोग गरबा, डांडिया खेलने एवं देखने के लिए आते हैं। वहीं इसकी खासियत है कि इसके लिए धर्म, जात एवं क्षेत्रीय भाव से ऊपर उठकर लोगों को खुले दिल से आमंत्रित किया जाता है। इस कारण इस त्योहार को अनेकता में एकता का प्रतीक भी माना जाता है। इसमें युवक-युवतियां एक दूसरे के करीब लाने में भी अहम भूमिका निभाते है। इस महोत्सव में हर उम्र वर्ग का व्यक्ति अपने भीतर के उल्लास एवं उमंग को बाहर निकालने का प्रयास करता है। बता दें कि गरबा और डांडिया दोनों डांस के दो फाम्र्स हैं, जो गुजरात और मुख्‍यतः गुजरातियों से संबंधित है। इसके बावजूद अब ये दोनों डांस पूरे देशभर में प्रचलित और नवरात्र के दिनों में तो इनकी लोकप्रियता और भी ज्‍यादा बढ़ जाती है। देश के कोने-कोने में इस मौके पर लोग रंग-बिरंगे कपड़े पहनकर गरबा और डांडिया में भाग लेते हैं। 



--सुरेश गांधी--

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