न्यायपालिका का सर्वनाश करने में इंदिरा गांधी की सबसे बड़ी भूमिका: प्रो एम सिंह - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

न्यायपालिका का सर्वनाश करने में इंदिरा गांधी की सबसे बड़ी भूमिका: प्रो एम सिंह

भगत सिंह आंबेडकर विचार मंच और परिवर्तनकामी विद्यार्थी मोर्चा के तत्वावधान में हाल ही में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का ‘सामाजिक दृष्टि से कितने कारगर‘ विषयक संगोष्ठी का आयोजन 

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वाराणसी (सुरेश गांधी)। कोलेजियम व्यव्था में कुनबा परस्ती है, से इनकार नहीं किया जा सकता। यह व्यवस्था सिर्फ वर्तमान सरकार ही नहीं, बल्कि एक जमाने से चली आ रही है। जहां तक अदालती फैसलों में सरकारी हस्तक्षेप का सवाल है इसमें सिर्फ वर्तमान सरकार ही नहीं, बल्कि पूरी जूडिसियली को अगर किसी ने सबसे ज्यादा सर्वनाश किया है तो वो इंदिरा गांधी थी। श्रीमती गांधी ने तीन सीनियर मोस्ट जजेज जस्टिस खन्ना, जस्टिस ग्रोवर आदि को हटाकर जस्टिस एन रे को लाई और यहीं न्यायपालिका की संप्रभुता को खतरा उत्पंन होना शुरु हो गया, जो आज भी जारी है। वर्तमान सरकार भी यही चाहती है कि सारे जजेज के दिमाग के एक हो। इसके पीछे उसका क्या मकसद है ये तो वहीं जानें। लेकिन इतना सच है कि अब न्यायपालिका में भी सबकुछ ठीक नहीं हैं। जहां तक हाल के आएं ताबड़तोड़ फैसलों का सवाल है तो उस पर त्वरित टिप्पणी करना न्याय संगत तो नहीं है, लेकिन सामाजिक लिहाज से सवाल जरुर खड़े किए जा रहे है, जिस पर पुर्नविचार की जरुरत है। 

यह बातें इस मौके पर बीएचयू विधि संकाय के प्रोफेसर एमपी सिंह ने कहीं। वे शनिवार को लंका स्थित स्वयंबर लाॅन में भगत सिंह आंबेडकर विचार मंच और परिवर्तनकामी विद्यार्थी मोर्चा की ओर से आयोजित  हाल ही में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का ‘सामाजिक दृष्टि से कितने कारगर‘ विषयक संगोष्ठी को मुख्य अतिथि के तौर पर संबोधित कर रहे थे। श्री सिंह ने कहा कि वैवाहिक कानून में बदलाव और सबरीमाला के मुद्दे पर आए फैसले को नारी-पुरुष समानता की बात करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसले में केरल के सबरीमाला मंदिर को महिला श्रद्धालुओं के लिए खोलने का आदेश दिया है, जहां विशेष आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश पर रोक थी। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के उदार सामाजिक रुख के अनुरूप है। जिस तरह कोर्ट ने मुंबई के हाजी अली में महिलाओं के प्रवेश की इजाजत दे दी थी, उसी प्रकार अब उसने केरल के संबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं को जाने की इजाजत दे दी है। कोर्ट ने उचित ही कहा कि महिलाओं को मंदिर में घुसने की इजाजत ना देना संविधान के अनुच्छेद 25 (धर्म की स्वतंत्रता) का उल्लंघन है। लिंग के आधार पर भक्ति (पूजा-पाठ) में भेदभाव नहीं किया जा सकता। बहरहाल, इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि पांच सदस्यीय संविधान पीठ में शामिल एकमात्र महिला जज ने इस निर्णय से असहमति जताई। नतीजतन, संविधान पीठ ने 4-1 के बहुमत से फैसला दिया। जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ मुख्य न्यायाधीश के फैसले से सहमत थे। जबकि जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने उनसे अलग फैसला लिखा। बहुमत निर्णय में कहा गया कि महिलाएं पुरुषों के मुकाबले किसी रूप में कम नहीं हैं। 

इसलिए धर्म के नाम पर पितृसत्ता को आस्था के ऊपर हावी होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। जैविक या शारीरिक कारणों को महिलाओं की स्वतंत्रता में बाधा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। चार जजों ने कहा कि धर्म मूल रूप से जीवन का मार्ग है, लेकिन कई प्रथाएं विसंगतियां हैं। कोर्ट ने यह भी साफ किया है कि सबरीमाला मंदिर में स्थापित अयप्पा के भक्त एक अलग धार्मिक संप्रदाय नहीं हैं। अतः कोर्ट ने केरल सार्वजनिक पूजा (प्रवेश का प्राधिकरण) 1965 के नियम 3 (बी) को असंवैधानिक माना और इस प्रावधान को खत्म कर दिया। इसी प्रावधान के तहत सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा हुआ था। इस प्रतिबंध के पीछे विचार यह था कि महिलाओं की उपस्थिति अयप्पा के ब्रह्मचर्य को परेशान कर सकती है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने उचित ही कहा कि इस तरह पुरुषों के ब्रह्मचर्य का बोझ महिलाओं पर डाला जा रहा था। यह महिलाओं के प्रति रूढ़िवादी प्रवृति का प्रतीक था। सबरीमाला मंदिर प्रबंधन ने उच्चतम न्यायालय को बताया था कि 10 से 50 वर्ष की आयु तक की महिलाओं के प्रवेश पर इसलिए प्रतिबंध लगाया गया है क्योंकि मासिक धर्म के समय वे शुद्धता बनाए नहीं रख सकतीं। इसी आधार पर इस प्राचीन मंदिर में 10 साल से लेकर 50 साल तक की उम्र की महिलाओं का प्रवेश वर्जित रहा है। लेकिन अब इस प्रथा पर रोक लगेगी, जो समानता के संवैधानिक मूल्य के अनुरूप नहीं थी।

वैवाहिक कानून पर प्रो. सिंह ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 1860 में बने 158 साल पुराने वैवाहिक कानून में तब्दीली करते हुए; व्यभिचार से संबंधित आईपीसी की धारा 497 को असंवैधानिक करार दिया है। इसमें कोर्ट ने कहा कि अडल्ट्री तलाक का आधार हो सकता है, लेकिन अपराध नहीं। यह कई लिहाज से महत्वपूर्ण है जिसमें कहा गया कि पति-पत्नी का मालिक नहीं है। लेकिन इसका समाज पर बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। कहा, समलैंगिकता गैरकानूनी नहीं है। धारा 377 अतार्किक, मनमाना और समझ से परे है। समलैंगिक लोग अभी तक समाज में जिल्लत और तिरस्कार की जिंदगी झेलते थे। इस फैसले ने समाज के एक तबके को आवाज दी और उन्हें समाज में सम्मान से जीने का हक दिया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए बीएचयू के पूर्व छात्रनेता सुनील यादव ने भी समलैंगिता, आरक्षण, वैवाहिक कानून में बदलाव आदि पर अपने विचार रखे। बताया कि संवेदनशील सवालों पर समझ बनाने के लिए कोशिश होगी कि संवाद का यह सिलसिला जारी रहे। इस दौरान एसपी राय, कुलदीप मीणा, प्रवीण नाथ, भुवाल यादव आदि मौजूद रहे। 

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