विशेष : जो खुशियां बांटे, वही ‘सांता’ - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 23 दिसंबर 2018

विशेष : जो खुशियां बांटे, वही ‘सांता’

हर त्योहार अपने साथ खुशियों की सौगात लाता है, क्रिसमस भी उनसे अलग नहीं है। क्रिसमस के बारे में सोचते ही ध्यान में आते है सांता क्लाॅज... । वहीं सांता क्लाॅज जो अपने थैले में सबके लिए उपहार भरकर लाते है, जिनके साथ ही आती है चेहरे पर खुशियों की सौगात। यह सांता हर कोई हो सकता है माता-पिता भी, शिक्षक, गुरुजन या और कोई भी। बस, संदेश एक ही है सबको खुशियां बांटना..., जी भरकर, झोली भरकर... ।  
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जी हां, बच्चों के अत्यंत प्यारे एशिया माइनर (तुर्की) के लाल- सफेद वस्त्रधारी बिशप निकोलस से सांता क्लॉज की परंपरा शुरू हुई। ऐसी मान्यता है कि वे 24 दिसंबर की रात सोते बच्चों के लिए चुपचाप कुछ उपहार छोड़ जाते है। डच लोग निकोलस को ‘सिन्टरक्लास’ कहते है। यही ‘सांता क्लॉज’ हो गया। एक मोटा सा हंसमुख आदमी, जिसकी दाढ़ी झक सफेद होती है। सफेद काॅलर और कफ वाले लाल कोट पर लेदर की ब्लैक बेल्ट और बूट पहने सांता से आज दुनिया का कोई बच्चा नावाकिफ नहीं। सांता को इस रुप में पाॅपुलर करने में कार्टूनिस्ट थाॅमस नाॅस्ट का खास योगदान है। मान्यता है सांता क्लाॅज अपने रजिस्टर में अच्छे-बुरे बच्चों की दो सूचियां तैयार करता है। अच्छे बच्चों को चाॅकलेट, केक, कैंडी आदि मिलते हैं तो बुरे बच्चों को कोयले। फिरहाल, धारणाएं कुछ भी हो लेकिन बच्चों के मन में सांता का जो उत्साह रहता है उसे बनाएं रखना हर अभिभावक का फर्ज है। कहा जा सकता है क्रिसमस उत्सव के साथ बच्चों को नेक संदेश देने का बहाना है। बच्चों के साथ मिलकर क्रिसमस ट्री तैयार करें, केक बनाएं... और हां चुपके से किसी मोजे में रखकर उनके सिरहाने चाॅकलेट, कैंडी भी एक रात पहले जरुर रखे। बस इस तरह के बेहतर प्रयास करके आप खुशियों को अपनी झोली में भर सकते हैं।  समाज के किसी एक भी वंचित अलाभान्वित, मायुस, बेघर, अनाथ बच्चों के लिए सांता बनने की एक छोटी सी कोशिश कितना सुकून देगी, समझा जा सकता है। जरुरी नहीं कि चाॅकलेट ही दें, किसी के स्कूल की फीस, किसी मासूम के इलाज का जिम्मा, किसी को नए वस्त्र तो किसी को पढ़ने के लिए कापी-किताब। नहीं खर्च कर सकते तो भी दे सकते है अपना किमती वक्त में से किसी को पढ़ाकर किसी की सेवा करके या और सहयोगपूर्ण कार्य करके। मतलब साफ है आज आध्यात्मिक तथा सार्थक क्रिसमस की आवश्यकता है, जिसमें हर शिशु में यीशु दिखे। यीशु का शिशु बनना हर मानव में ईशमयता की गरिमा देखने का संदेश है। क्रिसमस ऐसा समय है जब हम गरीबों, बेघर, निराश्रित, अनाथ, शरणार्थियों और अन्य कमजोर लोगों के प्रति अपना प्यार व चिंता प्रदर्शित कर सकते हैं। ईश्वर ने खुद को विनम्र किया, खुद को रिक्त कर दिया, एक गरीब, असहाय बच्चे का रूप लिया, जो एक गोशाले में जन्मे क्योंकि उन्हें मनुष्यों के बीच पैदा होने की जगह नहीं मिल सकी। वह शरणार्थी बने। क्रिसमस के पुण्यकाल में  दुनिया भर में गरीबों और बेघर लोगों की देखभाल करने और उनके साथ साझा करने की भावना नजर आती है। क्रिसमस की यह भावना पूरे मानव समाज पर हमेशा बनी रहे। कहा जा सकता है मानव इतिहास की एक अनमोल और पवित्र घटना है यीशु का जन्म।  वैसे भी मानव की निःस्वार्थ सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा-पूजा है। ‘तुमने मेरे इन भाई-बहनों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया‘। हर ईसाई पर्व में मिस्सा (प्रभु भोज) होती है। मिस्सा को अंग्रेजी में ‘मास’ कहा जाता है। ख्रीस्त के नाम से अर्पित मिस्सा को ‘क्राइस्टमास’ कहा गया। यही बाद में ‘क्रिसमस’ हो गया। ईश्वर मनुष्यों को खोजते हैं और इंसान ईश्वर को खोजता है। यही हर धर्म का सार है-ईश्वर की खोज, अमरत्व की तलाश, दुनिया के सभी प्रकार के उत्पीड़न, दुखों व बुराइयों से मुक्ति की खोज  मसीही विश्वास के अनुसार इस शाश्वत खोज के कारण परमेश्वर व मनुष्यों का मिलन यीशु में हुआ है। हम उन्हें बचाने वाला और उद्धारकर्ता कहते हैं। क्रिसमस ईश्वर के अवतार लेने का उत्सव है। ईश्वर बेथलेहम की एक गोशाला में बच्चे के रूप में जन्म लेते हैं। यह मानव इतिहास की एक अनमोल व पवित्र घटना है। इस दुनिया को ईश्वर ने बनाया और वह इस दुनिया में, पूरी सृष्टि में मौजूद हैं, इसलिए यह पूरी दुनिया, पूरी सृष्टि पवित्र है। हम मनुष्यों का इस सृष्टि की हर वस्तु के साथ एक प्राकृतिक व पवित्र बंधन है। इसलिए पर्यावरण, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व ध्वनि की हर तरह के प्रदूषण, गिरावट और विनाश से सुरक्षा व संरक्षण की जिम्मेवारी हमारी है.। पूरी मानव जाति का अस्तित्व सृष्टि के साथ हमारे संबंधों के प्रति हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर है। हमें यह बड़ी जिम्मेवारी मिली है।  हमारा देश बहुभाषी, बहु-सांस्कृतिक और बहु-धार्मिक और एक बहुलतावादी समाज है। यह परस्पर प्रेम व सम्मान की अपेक्षा करता है। बेहतर समझ, बेहतर स्वीकृति, अधिक सहिष्णुता, अधिक विश्वास और गहन मैत्रीपूर्ण रिश्तों की मांग करता है। यीशु का पूरा शिक्षण व प्रचार विभिन्न धर्मों व संस्कृतियों के सभी लोगों के बीच न्याय, शांति, सामंजस्य, समानता और भाईचारे के बुनियादी संदेश पर आधारित है। 

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ईश्वर हमारे बीच बालक बनकर इसलिए आये, ताकि स्वार्थ, पूर्वाग्रहों, बंधनों, असहिष्णुता और हर तरह के शोषण से मुक्ति का संदेश दें। क्रिसमस की इस भावना को दुनिया भर में फैलनें दें, विशेषकर हमारे देश में। इससे मित्रता और सहभागिता के बंधन सशक्त होंगे और सबमें एक बड़े परिवार का हिस्सा होने की भावना आयेगी। क्रिसमस के समय जब लोग उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं, वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि ईश्वर ने हमें अपने पुत्र के रूप में अपना सबसे बड़ा उपहार दिया है। सांता क्लॉज की अवधारणा है कि वह बच्चों को चकित करते हुए उपहार देते हैं, उन्हें खुश करते हैं।  अब हमारे मानव स्वभाव में इन कुवृत्तियों का किसी न किसी मात्रा में बोलबाला बना रहता है-  ईष्र्या-द्वेष, लोभ- लालच, अहंकार, क्रोध, वासना, भोग-विलास और आलस्य। जिस अदन बारी में पाप व मृत्यु ने प्रवेश किया, वहीं प्रथम सुसमाचार की भी घोषणा हुई- सांप का वंश स्त्री के वंश की एड़ी काटेगा, किंतु एक दिन नारी का वंश सांप का सिर कुचल देगा। यह उद्धार कार्य पतित मानव स्वभाव से ग्रसित किसी मनुष्य से संभव नहीं था। दूसरी ओर पतित मानव स्वभाव को मर्यादित करने के लिए तथा विलुप्त जीवन लक्ष्य को फिर से वापस पानेे के लिए एक उन्नत मानव स्वभावधारी मनुष्य की ही जरूरत थी। अतः इसी ईश्वरीय प्रतिज्ञा के तहत समय पूरा होने पर अनादि शब्द ने कुंवारी मरियम से जन्म लिया। मानव की खोयी हुई मर्यादा को मर्यादित करने और मनुष्य की पहुंच से परे अनंत जीवन की पुनः प्राप्ति के लिए वह मानव बना। उसने चरनी से ले क्रूस-मरण तक पाप के सात दुष्परिणामों को अपने ऊपर लेकर सांप का सिर कुचल डाला। मानव बनकर उसने हर युग के प्रत्येक व्यक्ति से तादात्म्य स्थापित किया है, चाहे वह किसी भी राष्ट्र, जाति, धर्म, वर्ग या अवस्था का क्यों न हो। उसके मानव बनने से यह सिद्ध हो गया है कि मनुष्य ईश्वर की दृष्टि में अति मूल्यवान प्राणी है। 

चरनी 
क्रिसमस की चरनी बनाने का प्रचलन  कला के रूप में चैथी सदी से शुरू हुआ। मसीही अपनी दीवारों, पत्थरों व मिस्सा के परिधानों पर चरनी की पेंटिंग करते थे। क्रिसमस के धर्मानुष्ठान में प्रयुक्त लैटिन भाषा को आम जनता नहीं समझती थी इसलिए असीसी के संत फ्रांसिस ने इटली के ग्रास्सियो नामक शहर में 1223 ई. में यीशु के जन्म को जीवंत चरनी का रूप दिया। उन्होंने ईसा मसीह के जन्म को भक्तिमय ढंग से दर्शाने के लिए मनुष्य, जानवर, भेड़ और अन्य जानवरों को रख कर कर जीवंत चरनी बनायी। 

जर्मनी से हुई क्रिसमस ट्री की शुरुआत
ब्रितानी तथा केल्ट जातियों में चिरहरित वृक्ष अर्चना की परंपरा थी। इसे उन्होंने क्रिसमसोत्सव में भी शामिल किया। बाद में 15वीं सदी में  क्रिसमस ट्री की शुरुआत जर्मनी में हुई। इसे घर के बाहर अदन वाटिका के रूप में सजाया जाता था और पेड़ पर सेव के फल लगाये जाते थे। बाद में इस पेड़ को आनेवाले मुक्तिदाता का प्रतीक मानकर घर के अंदर लगाया जाने लगा और उस पर यीशु की उपस्थिति के प्रतीक होस्तिया (मिस्सा में प्रयुक्त रोटी) को चिपकाया जाता था। बाद में होस्तिया की जगह तारे, घंटी, स्वर्गदूत व फूल इत्यादि लगाये जाने गये। ये सभी ईश्वर की उपस्थिति के प्रतीक है। 

कैरोल की परंपरा
इटली में गोलाकार लोकनृत्य को कैरोल कहा जाता था। वहीं क्रिसमस कैरोल की परंपरा 14वीं सदी में हुई। कैरोल के साथ- साथ मसीह के जन्म की घटनाओं पर नाटक का मंचन भी होता था। मेक्सिको व लैटिन अमेरिकी देशों में कैरोल का स्वरूप अलग हैै। जोसेफ और मरियम की व्यथा को आत्मसात करने के लिए हर संध्या बच्चे व युवा जोसेफ और गर्भवती मरियम बनकर भक्ति गीत गाते हुए घर- घर जाकर लास पोसादस (आश्रय) की खोज करते है। घर के अंदर बैठे लोग गाते हुए आश्रय देने में अपनी असमर्थता जाहिर करते है। अंतिम परिवार उनके लिए दरवाजा खोलता और उन्हें आश्रय व भोजन देता है। यह क्रम क्रिसमस के नौ दिन पूर्व से चलता  है। 



---सुरेश गांधी---

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