दुनिया रंग बिरंगी : माँ के हाथ की बनी "पराठा-भुजिया" ही मांगूगा - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 30 दिसंबर 2018

दुनिया रंग बिरंगी : माँ के हाथ की बनी "पराठा-भुजिया" ही मांगूगा

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बात तब की है जब टीवी पर क्रूर सिंह के "यक्कू" बोलने पर डर लगने लगता था कि ये कलमुहां फिर से कोई षडयंत्र करके पंडित जगन्नाथ को फसाने वाला है, उस समय हमारे घर में माँ पराठा और भुजिया बना रही होती थी और हम सारे बच्चे आधे टुकड़े पराठे को एक व्यवसायिक  विश्राम तक चलाते थे... माताराम पीछे से बोलती हुई आती थी अब एम्प्रो का प्रचार शुरू हुआ अब तो खाना खत्म करो, आग लगे इस चन्द्रकान्ता सीरियल को... आज सालों बाद भी उस पराठे-भुजिया का कॉम्बिनेशन जहन में है, कोई दूसरा डिस वो फील नही दे पाता, ठीक वैसे ही जैसे सुसज्जित लाइब्रेरी में रखी किताबें आपको वो फील नहीं देती जो गांव की लाइब्रेरी के लकड़ी के आलमीरे में रखी हुई किताबों की सुगंध... 

पिछले 8 सालों से भारत के विभिन्न राज्यों,शहरों,गांवो में घूम रहा हूँ और अपने काम के साथ स्थानीय भोजन का भी लुफ्त उठा रहा हूँ... एक दिलचस्प किस्सा मध्य प्रदेश के धार जिला के मनावर  से है। मैं मनावर में कपास प्रशिक्षण के सिलसिले में गया था एवं गेस्ट हाउस में ठहरा था... मनावर दो राज्यों के अड़ोस-पड़ोस में था, महाराष्ट्र एवं गुजरात.. हर चीज में हींग इम्पोर्टेन्ट था, दाल में मूंगफली भी इम्पोर्टेन्ट था। पहले अजीब सा लगा कि यार ऐसे कौन खाना बनाता है, सब चीज में अपनी चीजें घुसेड़ देते हैं, फिर लगा खाना तो खाना है... नहीं कुछ से कुछ अच्छा... 2 महीने के प्रवास में मुझे मिक्स कल्चर वाले भोजन से प्रेम सा हो गया। अभी भी वो दाल मिस करता हूँ... 

ओह! पोहा और मिर्ची वाली पकौड़ी के बारे में बताना भूल गया था, सुबह का नाश्ता हर अमीर-गरीब का लगभग वही होता था, उसका टेस्ट अंग्रेजी के शब्दों में "इनक्रेडिबल" था।  उसके बाद चैन्नई के "शिवगंगा" में "धान प्रशिक्षण" के लिए जाना हुआ। सुबह का नाश्ता तो इडली-सांभर ने संभाल दिया लेकिन दिन का खाना... फिर से इडली-सांभर... "ई ना चोलबे दादा..." मैंने अपने फेसबुक पेज पर इडली-सांभर की फ़ोटो चेपते हुए गुहार लगाई की भाइयों एवं बहनों... बिहारी आदमी इस जगह कैसे जियेगा... बिना भात के... आधे घंटे में कुछ क्लू मिले और भात पेट के अंदर गया... मल्लब आप हम बिहारियों को पाताल लोक भेज दो वो चलेगा लेकिन भात नहीं खायेंगे तो कैसे चलेगा... आप ही बताइये। कुल मिलाकर अच्छा प्रवास रहा, बहुत कुछ सीखा,देखा और समझा वंहा के कल्चर को.. दक्षिण के लोग मृदुभाषी तो होते ही हैं लेकिन उनकी धार्मिक मान्यताएँ,उनका पहनावा, उनका रहन-सहन,उनका खान-पान, वंहा की हरियाली पूरे भारत में सबसे जुदा है। 

इसी बीच में खबर आई कि माँ बीमार चल रही है, तुरन्त छुट्टी मिली... घर गया कुछ दिन के लिए... एक उम्र के बाद शरीर आराम चाहता है, माँ को भी चाहिए था। मेरे आने की खबर से माँ की आधी बीमारी कम हो गयी थी... घर पहुंचने के बाद माताराम पूरे फॉर्म में दिखी, पसन्द के सारे व्यंजन बने पड़े थे... मैं रोता रहा और माँ चुप कराते हुए "कनी भात और ल ले" करके खिलाती रही।  मेरे जैसे बहुत से अभागे आपके अगल-बगल में दिखेंगे जो घर की जरूरत पूरी करने के लिए घर से, माँ-बाप से, समाज से और अपने दोस्तों से दूर हैं। रात के 1:20 बज रहे हैं, आँखों से नींद कोसों दूर है, कल मैं रहूँ न रहूँ लेकिन जब कभी भविष्य में घर से बाहर रह कर काम करने वालों की दशा पर बात होगी तो मेरी पंक्तियां मेरा परिचय करवायेगी। अगर कोई मरने से पहले आखिरी इच्छा पूछे तो मैं माँ के हाथ की बनी "पराठा-भुजिया" ही मांगूगा।




---राजीव रंजन---

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