दुनिया रंग बिरंगी : यह जीवन है! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

दुनिया रंग बिरंगी : यह जीवन है!

life-a-struggle
यातायात के विकसित साधनों ने व्यक्ति को भ्रमणशील तो बनाया ही है, साथ ही उसमें रोज़गार के समुचित अवसरों को तलाशने का अवसर भी प्रदान किया है।पहले के जमाने में पढाई-लिखाई समाप्त कर लेने के बाद व्यक्ति अपने ही शहर-गाँव में रोज़गार तलाशता था।घर से बाहर निकलने में वह सकुचाता था।मां-बाप भी यही चाहते थे कि उनका बेटा उनसे दूर न जाय।ज्यों-ज्यों बड़े शहरों का औद्योगीकरण हुआ और उनका विकास-विस्तार हुआ, त्यों-त्यों इन बड़े शहरों ख़ास तौर पर महानगरों में रोज़गार के अवसर भी बढ़ गये।छोटे शहरों से रोज़गार की तलाश में शिक्षित युवा-वर्ग इन शहरों में आ गया।यहाँ इन बड़े शहरों में उसे अपना भविष्य अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित और रोमांच-भरा लगने लगा।यह बात अलग है कि अपने घर-गाँव से विलग होने की टीस का अंदाज़ उसे बाद में होने लग जाता है मगर तब तक ‘जेहलम’ में खूब पानी बह चुका होता है।अब वह चाहकर भी पीछे मुड नहीं सकता।कभी मन अवश्य करता है कि अपने गाँव चले चलें।उन गली-कूचों,मुहल्ले वालों,यारों-दोस्तों आदि को देखें जिनको देख-देखकर वह बड़ा हुआ है।

आखिर एक दिन लगभग तीस वर्षों तक बाहर रहने के बाद उसने अपने घर-गाँव को देखने का मन बना ही लिया।

तीस वर्षों की अवधि कोई कम तो नहीं होती। तीस वर्ष! यानी पूरे तीन दशक। बच्चे जवान हो जाते हैं, जवान प्रौढ़ और प्रौढ़ जीवन के आखिरी पड़ाव में पहुंचकर 'क्या पाया, क्या खोया की दुविधा मन में पाले दिन-दिन धकियाते जाते हैं। झेलम ने अपना रुख तो नहीं बदला, पर हाँ इन तीस वर्षों में उसकी जन्मभूमि, उसके पैदाइशी नगर में काफी बदलाव आ गया था। जो खस्ताहाल मकान उसके मौहल्ले में खड़े थे, वे या तो नए बन गए थे या फिर उन्हें दूसरों ने खरीद लिया था। दुकानों पर बैठने वाले परिचित चेहरे गायब-से हो गए थे। उन पर अब कोई और ही बैठे नजर आर रहे थे। सड़कें कहीं-कहीं चौड़ी हो चुकी थीं। कुछेक दुकानों ने तो स्थान और सामान दोनों बदल लिए थे।जहाँ पहले अखबार-पत्रिकाएँ बिका करती थीं, वहाँ अब दूध- डबलरोटी बिकती थी। जहाँ पहले डाकघर हुआ करता था, वहाँ अब हलवार्ई की दुकान खुल गई थी। डाकघर कहीं दूसरी जगह चला गया था। फल-सब्ज़ी वाली दुकान अब 'वीडियो-कार्नर’ में बदल गई थी। एक और चौकाने वाला परिवर्तन इन तीस वर्षों में यह हो गया था कि उसके मोहल्ले की सड़क पर कभी टै्फिक जाम नहीं होता था, मगर अबके उसने देखा कि आध-आध घंटे तक आगे सरकने को जगह नहीं मिल रही थी। दरअसल, तीस वर्षों में जनसंख्या बढ़ी तो खूब है, पर लोगों ने वाहन भी तो खूब खरीद लिए हैं।

तीस वर्ष पहले जब वह घर से निकला था तो अनुभवों का विस्तृत आकाश उसके सामने था। तब घर और अपने परिवेश की सीमित-सी-दुनिया को अलविदा कहकर उसने नए परिवेश में प्रवेश किया था। उसे अच्छी तरह याद आया कि जब वह घर से चला था तो मात्र पचास रुपए लेकर चला था। दादाजी ने अलग से दस रुपए उसकी जेब में और डाल दिये थे और सर पर हाथ फेरते हुए समझाया था- 'देखो बेटा, पहली बार घर से बाहर जा रहे हो। एक बात का हमेशा ध्यान रखना, बेटा, परदेश में हम लोग तो तुम्हारे साथ होंगे नहीं, पर हाँ, तुम्हारी मेहनत, लगन और मिलन-सारिता हरदम तुम्हारा साथ देगी। औरों के सुख में सुखी और उनके दु:ख में दु:खी होना सीखना, यही सबसे बड़ा मानव-धर्म है।‘

उसने महसूस किया कि गाड़ी किसी बड़े स्टेशन पर रुक गई है। कुछेक यात्री उतरे हैं और कुछेक चढ़े हैं। अनधिकृत रूप से चढ़े किसी यात्री को कंडक्टर ने बदसलूकी के साथ उतार दिया है। गाड़ी मामूली-सी सरसराहट के साथ फिर धड़धड़ाने लगती है।

यह उसके दादाजी की दूरदर्शिता ही थी कि वह आगे पढ़ पाया था अन्यथा उसके पिताजी मैट्रिक के बाद उससे नौकरी करवाने के पक्ष में थे। इंजीनियरिंग की डिग्री मिल जाने के बाद उसकी नौकरी बाहर लगी। बस तभी से वह बाहर है। दिन-पर-दिन बीतता गया और उसकी गृहस्थी भी बढ़ती गई। पहले आठ-दस सालों तक घर वालों से, दोस्तों से पत्रों का खूब आदान-प्रदान हुआ। वह भी विभोर होकर उनका उत्तर देता रहा। माता-पिता का हालचाल, दादाजी के समाचार, छोटे-भाई बहनों की बातें, पड़ोसियों की सूचनाएँ पत्रों में पाकर उसे लगता कि परदेश में रहकर भी वह अपने गाँव में ही है।

धीरे-धीरे एक अंतराल आया। घर से दूरी ने संबंधों में कडुवाहट घोल दी। अब पत्रों की संख्या घटने लगी। हालचाल कम और मतलब की बातें ज्य़ादा होने लगी। इस बीच दादाजी का स्वर्गवास हो चुका था। भाई-बहनों की शादियाँ हो चुकी थीं। काका-ताऊ दूसरी जगहों पर चले गए थे। पड़ोसियों में कुछ थे और कुछ भगवान को प्यारे हो गए थे।

गाड़ी फिर रुक गई। इस बार शायद किसी ने चेन खींची थी, अन्यथा इस सुनसान जगह पर गाड़ी रुकने की कोई वजह न थी।

उसने धीमे से आँखें खोलीं। सामने वाली बर्थ पर अधलेटे-से एक भारी भरकम महाशय नीचे उतर आए थे। उन्होंने बत्ती जलाई। कम रोशनी में उनका चेहरा उसे अपने पिताजी के चेहरे जैसा दिखाई दिया। हां, बिल्कुल वैसा ही। वैसी ही रोबदार मूँछे, बाल भी वैसे ही। उस पर उड़ती-सी नजर डालते हुए वे महाशय बाथरूम की तरफ बढ़ गए। उनके चेहरे पर भारी अवसाद की रेखाएँ साफ दिख रही थीं। उसे ध्यान आया डिप्रेशन के समय उसके पिताजी की मुखाकृति भी कुछ ऐसी ही हो जाती थी। परसों की ही तो बात है। पिताजी की किसी बात पर जाने क्यों वह अपने को संयत न रख सका था। इन बीस-तीस वर्षों में हमेशा पिताजी ही बोलते रहे थे और उसने एक आज्ञाकारी बालक या सिपाही की तरह उन्हें हमेशा सुना था, पलटकर जवाब कभी नहीं दिया। पिताजी जब बात शुरू करते हैं तो अपने अनुभवों, संघर्षों और अभावों की आड़ में बहुत कुछ कह डालते हैं। उनकी सारी व्यथा ले-देकर यह होती है कि उनका लड़का उनसे दूर क्यों हो गया ? पास में रहता तो उनके सुख-दु:ख में काम आता। दरअसल, बुढ़ापे के अहसास ने उन्हें भीतर तक हिला दिया है। माना कि उनका सोचना गलत नहीं है, मगर इस परेशानी के लिए जि़म्मेदार कौन है? समय, परिस्थितियों, अवसर आदि इनकी भी तो हमारी नियति को स्थिर करने में खासी भूमिका रहती है। शायद इसी को आबोदाना कहते हैं! 

परसों की घटना उसे फिर याद आई। वे दोनों बातों ही बातों में असंयत हो उठे थे। ऐसा उन दोनों के बीच पहली बार हुआ था। पिताजी की आँखें लाल हो गई थीं। पहली बार किसी ने उनके गढ़ को फोडऩे का दु:साहस किया था। इस चुनौती की उन्होंने कभी कल्पना भी न की होगी। अगली सुबह उसे लौट जाना था। रात को पिताजी बिल्कुल भी सो नहीं पाए थे, ऐसा उसे मां से मालूम पड़ा था। नहा-धोकर वह तैयार हो चुका था। सामान आदि भी बँध चुका था। टोकरी के लिए एक छोटा-सा ताला पिताजी कहीं से ढूँढ़कर लाए थे। निकलते समय सकुचाते हुए उसने पिताजी से हाथ मिलाए तो गीली आँखों से बड़ी ही गम्भीर मुद्रा में उन्होंने उसके बालों पर हाथ फेरा। पोलिथिन का एक छोटा-सा बैग पकड़ाते हुए पिताजी बोले थे-

'इसमें यहाँ की मौसमी सब्ज़ी और फल हैं। कुछ नाश्ता भी रखा है। रास्ते में काम आएगा। पहुँचते ही चिट्ïठी भेजना। चिंता रहती है।‘

भारी मन से सब से विदा लेकर वह चल दिया था।

गाड़ी गंतव्य पर पहुँचने ही वाली थी। उसने अपना सामान समेटा। पोलिथीन के बैग में हाथ डाला। दो मीठे कुलचे निकाले। चाय के साथ वे उसे और भी मीठे लगे। वह सोचने लगा, काश उस दिन वह तकरार न हुई होती- !!

इस बीच गाड़ी स्टेशन पर पहुंच चुकी थी।





शिबन कृष्ण रैणा
2/537 अरावली विहार,
अलवर (राजस्थान)

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