मैं रेशमा प्रसाद ट्रांसजेण्डर अधिकार कार्यकर्ता पटना बिहार से हूं। मैं समलैंगिक,किन्नर,ट्रांसजेंडर,सेक्स वर्कर समुदाय के लिए आवाज उठाती हूं और दलितों,महिलाओं एवं पर्यावरण के मुद्दे के साथ खड़ी हूं । इन दिनों नो वोटर लेफ्फ बिहाइंड के बैनर तले मतदाता जागरूकता अभियान से जुड़ी हूं।सभी जगहों में जाकर मतदाताओं को उत्प्रेरित करती हूं कि आप जरूर ही मतदान करने जाएं। आप अपने अंतरात्मा की आवाज सुनकर मतदान करें। किसी के बहकावे एवं डर से मतदान न करें। ऐसे लोगों के पक्ष में मतदान करें जो महान देश को आगे बढ़ाएं। संविधान की रक्षा करें और सभी लोगों को सम्मान करें। ट्रांसजेण्डर रेशमा प्रसाद ने अपनी व्यथा कविता के रूप में प्रस्तुत की हैं। पेश है आपलोगों के अवलोकनार्थ....
मेरे अंदर का दर्द अंदर ही है
जब मेरी पहचान बाहर हो
समलैंगिकों को भी है दर्द हमेशा
वह सोचते कि मेरी पहचान सही
मैं बिस्तर पर ना जाऊं तो दुनिया
मुझे पहचान ना पाए मैं हूं कौन
तुम्हे तो बहुत दूर से पहचान लेते
तुम हो कौन जो हम सबसे अलग
मगर मुझे तलाशती तुमसे भी
तुम्हारे दो शब्द सम्मान के, कभी
तो आए तुममे ये जहर बांटा किसने
जो तुम अपनों को पहचान ना पाते
समलैंगिक और किन्नर में जब होती
बाते तो निकलते दर्द ही दर्द की बाते
तौलते समाज के पैमाने पर
वे कहते मेरी इज्जत है समाज में
मैं जब तक बिस्तर पर जाकर
अपनी पहचान को सामने ना लांऊ
यह जो बिस्तर पर जाने की ललक
तुम्हारी वह हर एक जांघ पर हाथ
डालने को तस्दीक कर जाती
पर वो ताने कसते तुम्हारी इज्जत किधर
तुम्हें लोग ताने देते तुम्हें लोग दुत्कार देते
बहुत खुश होते तो कहते थोड़ी
कमर तो हिला और उसके साथ
अपनी जेब से नोटों की गड्डियां
हिला देते क्या यही है हमारी
किस्मत क्या यही है हमारी कीमत
जीने के लिए हम क्या ना करती है
जीना भी क्या जीना है जो मरने से भी
दुश्वार बरसों से हमने अपनी पहचान
बदलने की ठानी कब उजाला आएगा
जब हमें वो सम्मान के बोल, बिना औरत
बिना आदमी बिना किन्नर कहे आसान हो
इंसानियत क्या जागेगी आपके दिलों की
हमारे दिल तो पत्थर हो जाती
चंद दो मीठे बोल के लिए
रोटी के चंद टुकड़ों के लिए
हमें रोटी भी सकून से ना मिलती
हमने घर भी छोड़ा मां भी छोड़ा
बाप भी छोड़ा छोड़ दी वो गलियां
उन दोस्तों को छोड़ा पर हमें ना मिली
हमारी पहचान , मैं किन्नर हूं
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