पुरुषत्व, व्यक्तित्व और स्त्रीत्व को केंद्र में रखकर ‘वीर कुंवर सिंह की प्रेमकथा’ पुस्तक की मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने रचना की है
- कुंवर सिंह की वीरगाथा से लेकर प्रेमकथा पर केंद्रित रहा नाटक
- दो घंटे से भी ज्यादा देर तक चलने वाले इस नाटक ने श्रोताओं/ दर्शकों को बांधे रखा
- इस नाटक के एक-एक कैरेक्टर अपनी अमिट छाप छोड़ गए
- इस नाटक के लेखक मुरली मनोहर श्रीवास्तव तो निर्देशक राम कुमार मोनार्क हैं
- 1857 का दौर शोषक बनाम शोषित था। 1857 के उस भारतीय कालचक्र का असर दुनिया भर की लोकतांत्रिक शक्तियों पर विशेषरुप से पड़ा। जिसकी वजह से देश के अंदर और देश के बाहर स्वतंत्रता की आवाज बुलंद हुई।
पुरुषत्व, व्यक्तित्व और स्त्रीत्व को केंद्र में रखकर लेखक मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने ‘वीर कुंवर सिंह की प्रेमकथा’ पुस्तक की रचना कर डाली है। लेकिन इस पुस्तक के प्रकाशित होने से पहले मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने रंगकर्मी रामकुमार मोनार्क के कहने पर एक नाटक “कुंवर सिंह की प्रेमकथा” की रचना की और उसका मंचन भी हुआ जो थियेटर की दुनिया में मील का पत्थर साबित हुआ। इस नाटक के प्रदर्शन से पहले कई समस्याएं लोगों को सता रही थी कि कुंवर सिंह की वीरगाथा के साथ प्रेमकथा के कथानक को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। जिसमें तथ्यों से छेड़छाड़ से बचने की पूरी कोशिश की गई है। इतिहास में तथ्यों को आधार मानकर बीते कल को बयां किया जाता है. घटना के साक्षी कई पात्र होते हैं और घटनाओं के साथ-साथ कई घटनाएं चलती रहती हैं. 1857 का विद्रोह भारत के इतिहास में हमेशा अपनी अमिट छाप बनाए रखेगा. यह लड़ाई आजादी के लिए अनवरत लड़ने की प्रेरणा दी और संघर्ष का नया रास्ता दिखाया। विद्रोह में ऐसे महानायक की श्रेणी में महत्वपूर्ण रूप से जगदीशपुर रियासत के राजा वीर कुँवर सिंह का नाम शामिल है। वीर कुंवर सिंह की वीरता और शौर्य से सभी वाकिफ हैं मगर उनकी प्रेमकथा से लोग थोड़े अभियज्ञ हैं। इस नाटक के माध्यम से बाबू वीर कुंवर सिंह के अनछुए पहलुओं को लेखक मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। "कुंवर सिंह की प्रेमकथा" में एक नर्तकी जिसे समाज का अंतिम पायदान मानी जाती रही है, बाबू साहब की जिंदगी में आती है और उनके पूरे जीवन चरित्र को अलग रंग दे देती हैं। यह सकारात्मक प्रभाव ऐसा है कि जगदीशपुर रियासत 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बिहार ही नही बल्कि देशभर की रियासतों से अंग्रेजों के साथ लड़ने के लिए आग्रह करते हैं, लिहाजा अंग्रेजो को हर मोर्चे पर पराजित भी करते हैं और यहीं से वो 1857 के महानायक के रूप में उभरकर सामने आते हैं।
इस नाटक में बड़े ही मनोरंजक ढंग से दिखाया गया है कि कुंवर सिंह किस प्रकार अपनी रियासत में सभी धर्मों और सभी जातियों के लोगों के सुख दुख का ख्याल रखते हैं। नर्तकी धर्मंन बीबी मुसलमान थी जो बाद में उनकी पत्नी भी बनी। धर्म, सभ्यता का परिचय देते हुए उन्होंने धर्मं के कहने पर आरा और जगदीशपुर में मस्जिद का निर्माण कराया, तो करमन के नाम पर आरा में करमन टोला को भी बसाया। कुंवर सिंह जाति और धर्म के नाम पर किसी से भेद नहीं रखते थे। मुस्लिम नर्तकी धर्मंन को अपनी अर्धांगनी बनाया तो महादलित दुसाध जाती की महिला को अपनी बहन बनाकर उसे 52 बीघे का का भूखण्ड उपहार में दे दिया। जिसे आज भी दुसाधी बधार के नाम से जाना जाता है। इस तरह के और भी अनेक उदाहरण हैं। इनके साथ इतिहासकारों ने भी न्याय नहीं किया। धरमन बीबी के साथ जगदीशपुर रियासत के कुंवर सिंह जंग की तैयारी में जुटे हुए थे, उसी दरम्यान 27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और उन्हें कुंवर सिंह का दमदार नेतृत्व मिला फिर तो वे जीवन के अंतिम क्षण तक 9 माह के 15 युद्धों में अंग्रेजों को हराकर विजय का परचम लहराते रहे। अंग्रेजो की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा।
मुरली मनोहर श्रीवास्तव हमेशा से संवेदनशील रहे हैं और समाज में जिन विषयों को लंबे समय से दरकिनार किया जाता रहा है उसको कलमबद्ध करने की कोशिश में जुटे रहते हैं। वीर कुंवर सिंह की चर्चाएं तो कि जाती हैं मगर इनके इतिहास को समाज के सामने प्रस्तुत किया है श्री श्रीवास्तव ने। सच्चा प्यार कभी अपेक्षा नही रखता, बल्कि त्याग और समर्पण का नया इतिहास रचता है। कुंवर सिंह और धरमन ने भी यही प्रदर्शित किया। धरमन और करमन केवल रंग क्षेत्र में हीं नही बल्कि रण क्षेत्र में भी अपने हुनर का लोहा मनवायीं और भारत माता की गुलामी की जंजीरों को काटती हुई वीरगति को प्राप्त हुईं। इस नाटक निर्देशक राम कुमार मोनार्क ने इस नाटक को अपने सहयोगी कलाकार बन्धुओं के साथ मिलकर इस नाटक को बेहतर प्रस्तुति की है जो अंतिम दौर तक इस पूरे नाटक बांधे रखता है। इस नाटक में प्यार, गीत, नृत्य, त्याग, देशभक्ति और बलिदान को एक साथ पिरोकर इस नाटक को बेहतर प्रस्तुति किया है। लंबे समय के बाद किसी लेखक ने ऐतिहासिक नाटक पर तथ्यों को केंद्र में रखकर काम किया है। इस नाटक को लेखक मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने रामकुमार मोनार्क के कहने पर तैयार किया है, जो एक नया प्रयोग है। दर्शकों ने भी इस नाटक की भूरी भूरी प्रशंशा की। जबकि नाटक में गीत मुरली मनोहर श्रीवास्तव द्वारा लिखी गई है तो कुछ गीतों में विशाल स्वरूप का सहयोग भी सराहनीय है।
मुरली मनोहर श्रीवास्तव
(लेखक सह पत्रकार)
मो.9430623520
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