मैकलुस्कीगंज के बल पर विधायक बनते थे एंग्लो-इंडियंस समुदाय के लोग - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 15 दिसंबर 2019

मैकलुस्कीगंज के बल पर विधायक बनते थे एंग्लो-इंडियंस समुदाय के लोग

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पटना,15 दिसम्बर। लालू-राबड़ी शासनकाल में एडीजी रोजारियों भी मैकलुस्कीगंज के बल पर एंग्लो-इंडियंस समुदाय के प्रतिनिधि के तौर पर बिहार विधानसभा के विधायक थे। नीतीश शासनकाल में जोसेफ गॉलस्टेन एंग्लो-इंडियंस समुदाय के प्रतिनिधि के रूप विधायक बने। बिहार विभाजन 15 नवम्बर,2000 के बाद झारखंड में मैकलुस्कीगंज पड़ने के कारण स्वत:झारखंड विधानसभा के विधायक बनकर रिकॉड जोसेफ गॉलस्टेन ने बनाया।जोसेफ गॉलस्टेन के निधन के बाद उनके पुत्र ग्लेन जोसेफ गॉलस्टेन को मनोनीत सरकार ने की।वहीं 15 नवम्बर,2000 विभाजन के बाद बिहार विधानसभा में समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। बताते चले कि झारखंड की राजधानी रांची से साठ किलोमीटर दूर है एंग्लो-इंडियंस की बस्ती मैकलुस्कीगंज। यहां पर किट्टी नामक मैम साहब रहती हैं। उनका कहना हैं कि मैंने "40-42 साल फल बेचे और इस दौरान बागों से करीब का रिश्ता रहा। जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव देखे, भूखे रहे, नरेगा में मज़दूरी की, पर मैकलुस्कीगंज नहीं छोड़ा। कहां जाती और क्यों जाती? अब तो स्वास्थ्य भी साथ नहीं देता। छोटी थी, तो मां-बाबा ने बताया था कि यही अपना मुलुक है। यह जगह फिर से आबाद हो जाए, तो अच्छा।" आगे किट्टी मैम अपने फलों के बगीचों को दिखाती हैं। कहती हैं, देखिए कैसे बर्बाद हो रहे हैं ये बागान। झारखंड की राजधानी रांची से साठ किलोमीटर दूर है एंग्लो-इंडियंस की बस्ती मैकलुस्कीगंज। किट्टी मैम के अलावा और भी कुछ एंग्लो-इंडियन परिवार हैं, जो मैकलुस्कीगंज के वजूद को बचाए रखने में जुटे हैं। उनके ये प्रयास रंग भी दिखाने लगे हैं। यहां के लोग उस दौर को भी याद करते हैं जब एक के बाद एक एंग्लो-इंडियन परिवार ये जगह छोड़ते चले गए और अब यह दौर है जब गिने-चुने परिवार मैकलुस्कीगंज को आबाद करने में जुटे हैं। यह संभव हो रहा है स्कूल खोलकर। अब मैकलुस्कीगंज की तस्वीर बदली सी नज़र आएगी। यहां पक्की सड़कें बनी हैं, ज़रूरत के सामान की कई दुकानें भी खुल गई हैं। कुछ-कुछ फर्लांग की दूरी पर एक के बाद एक स्कूल खुले हैं। साथ ही बस्ती की अधिकतर गलियों या बंगलों में छात्रावास होने के साइनबोर्ड भी मिलेंगे।इनके अलावा पहाड़ों और जंगलों के बीच वीरान बंगले यह कहानी बयां करने को काफ़ी होंगे कि कभी यह बस्ती कितनी ख़ूबसूरत रही होगी। 1932-33 में इटी मैकलुस्की ने एंग्लो-इंडियन परिवारों को यहां बसाया था।

एक ज़माना था जब इस समुदाय के तीन सौ से ज़्यादा परिवार यहां रहते थे। तब एंग्लो-इंडियन परिवार इस बस्ती को अपना मुलुक कहते थे और अब भी बातचीत के क्रम में मुलुक शब्द उनकी ज़ुबान पर आ जाता है। किट्टी मैकलुस्कीगंज की वो शख्स हैं, जिन्होंने शोहरत खूब पाई और गुरबत भी तमाम झेलीं। लंबे समय तक मैकलुस्कीगंज रेलवे स्टेशन में उन्होंने फल बेचे हैं। उनका पूरा नाम है किट्टी टैक्सरा। वो पढ़ी-लिखी नहीं, लेकिन अंग्रेजी बोल लेती हैं। वो स्थानीय भाषा भी बड़ी बारीकी से बोलती रही हैं। लिहाजा वो किट्टी मैम के नाम से मशहूर हुईं। हम जिस दिन उनसे मिले, वो सर्दी बुखार से सुस्त पड़ी थीं। बहुत बोलने की स्थिति में भी नहीं थीं। बताने लगीं, ''अब फल नहीं बेचती हूं। छात्रावास खोल रखा है। एक बेटी नर्सरी स्कलू में मामूली पगार पर पढ़ाती हैं।'' किट्टी के घर से हम निकले ही थे कि रास्ते में उनकी बेटी सिल्विया टैक्सरा मिलीं। वह स्कूल से लौट रही थीं। सिल्विया कहती हैं कि उनका मन यहां नहीं लगता। वो बताती हैं कि एक के बाद एक स्कूल खुलते गए, जिससे यहां की जिंदगी में हलचल आई। वरना न जाने।। इतना कहकर वह हंस देती हैं।हमारी मुलाकात हेरेल मैंडिस से भी हुई। मैंडिस मुस्कराए और बेलाग बोले, "अगेन ए स्टोरी ऑन मैकलुस्की।" मतलब, मैकलुस्की पर एक और कहानी। मैकलुस्की में जगह-जगह स्कूल खुले हैं, यह क्या चक्कर है? मैंडिस कहते हैं, यही तो बदलाव है। कई एंग्लो-इंडियन परिवारों के साथ स्थानीय लोगों ने भी स्कूल खोले हैं। यहां बड़ी तादाद में बाहर से बच्चे आकर पढ़ते हैं। इससे सामाजिक, आर्थिक तानाबाना बदला है।क्या मैकलुस्कीगंज की पुरानी बहारें लौट आएंगी? वो कहते हैं, "अब तो गिने-चुने परिवार ही बचे हैं, लेकिन ये परिवार इसी धरती पर रहें, इसकी कोशिशें चल रही हैं।" उनकी बेटी ब्रैंडा गोम्स और दामाद क्लिटन गोम्स अपने घर पर ही टेंडर हार्ट नाम का नर्सरी स्कूल चलाते हैं। इस काम में मैंडिस खुद भी उनका सहयोग करते हैं। क्लिटन गोम्स अपने समुदाय की एसोसिएशन से भी जुड़े हैं। वो बताते हैं कि यहां के स्कूलों की ख्याति दूर-दूर तक फैल रही है। उनकी भरसक कोशिश है कि मैकलुस्कीगंज से एंग्लो-इंडियन परिवारों का नाता हमेशा जुड़ा रहे। अाखिर क्यों एंग्लो-इंडियन परिवार यह जगह छोड़ते चले गए? मैंडिस कहते हैं कि रोजगार नहीं थे। इलाज व यातायात की सुविधाएं मुकम्मल नहीं थीं। बच्चे जब बड़े होने लगे, तो ऊंची पढ़ाई की दिक्कतें होने लगीं। सुरक्षा भी सवाल बन गया।

जो लोग चले गए क्या उन्हें यहां की याद आती है या कभी वे इधर आते हैं? मैंडिस बताते हैं ये जगह छोड़ने वाले कई परिवारों को अब भी अपने मुलुक की याद आती है। उनके मामा फेडी लैबडे अब इंग्लैंड में रहते हैं, लेकिन हमेशा कहते हैं कि मैकलुस्कीगंज आने को जी करता है। इसके साथ ही मैंडिस दीवारों पर टंगी अपने परिजनों की तस्वीरें निहारने लगते हैं। थोड़ी देर पहले कुछ इसी तरह किट्टी भी दीवार पर टंगी अपनी मां की तस्वीर को निहार रही थीं। इस बीच तेज हवा के साथ जोरदार बारिश शुरू हो गई। ओले भी गिरने लगे। मैंडिस मुस्कराते हुए बोले, "देखिए मैकलुस्की की तासीर। धूप तेज हुई कि बारिश होने लगी।" एकीकृत बिहार के समय से संसदीय पंरपरा रही है कि एंग्लो-इंडियन समुदाय से एक प्रतिनिधि को विधानसभा सदस्य के रूप में मनोनीत किया जाता है। अभी ग्लेन जोसेफ गॉलस्टेन झारखंड विधानसभा में मनोनीत सदस्य हैं। वो बताते हैं कि एंग्लो-इंडियन के जन प्रतिनिधि होने के नाते वह और उनके पिता ने मैकलुस्कीगंज को आबाद करने और बुनियादी सुविधाएं बहाल करने के भरसक प्रयास किए हैं। मैकलुस्कीगंज में पुलिस थाना खोलने के लिए उन्होंने अपनी जमीन और घर दे दिया। उन्हें उम्मीद है कि अब बाकी 26 एंग्लो-इंडियन परिवार यहीं रहेंगे और उनके गांव की रौनक भी लौटेगी। मैकलुस्कीगंज के सुरेंद्र पांडेय ने गरीब बच्चों के लिए आदर्श उच्च विद्यालय के नाम से एक स्कूल की स्थापना की है। वह कहते हैं कि स्कूलों के खुलने से परिस्थितयां बदली हैं। वह भी चाहते हैं कि यहां से जाने वाले एंग्लो-इंडियन अपने मुलुक को लौट आएं। एंग्लो-इंडियन परिवारों की स्कूलों के प्रति तन्मयता देखते बनती है। बच्चों को पढ़ाना, गाड़ियों से घर पहुंचाना, छात्रावास में उन्हें अपनों जैसा रखना, साथ खेलना और अंग्रेजी सिखाने पर विशेष ज़ोर विशेषता रही है। पांडेय मनोनीत विधायक के प्रतिनिधि भी हैं। वह बताते हैं कि गॉलस्टेन ने इस बस्ती में डीप बोरिंग और पक्की सड़कें बनाने पर ज्यादा ध्यान दिया है। मैकलुस्कीगंज स्टेशन के सामने चाय-पानी की एक छोटी सी दुकान है। इसके संचालक सुरेश जी बताते हैं कि स्कूल और छात्रावास जैसे-जैसे खुलते गए, यहां स्थानीय लोगों के लिए आमदनी का ज़रिया बढ़ता गया। महेश्वर गोप बता रहे थे कि वह 'खटाल' चलाते हैं। अब तो दूध की डिमांड भी वह पूरी नहीं कर पाते। नर्सरी से बारहवीं कक्षा तक पूरे इलाके में कम-से-कम पचास स्कूल खुले हैं। 37 छात्रावास हैं। आख़िर इतने बच्चे आते कहां से हैं, इस सवाल पर वे कहते हैं कि यहां बड़ी तादाद में बाहर से आकर बच्चे पढ़ते हैं। वो बताते हैं कि डॉन वास्को स्कूल ने यहां की विश्वसनीयता बढ़ा दी है। पटना के एडीजी रोजारियो ने इस स्कूल को खोला है।

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