विशेष : शरणार्थियों और घुसपैठियों में फर्क जरूरी - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

विशेष : शरणार्थियों और घुसपैठियों में फर्क जरूरी

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मौजूदा दौर बाहर के देशों से आने वाले शरणार्थियों और घुसपैठियों में फर्क करने का है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नागरिकता संशोधन विधेयक पर अपनी स्वीकृति की मुहर ही नहीं लगाई है बल्कि भारतीय विवेक का भी परिचय दिया है। देश अपने देश के किसी भी व्यक्ति को बाहर नहीं निकाल रहा है बल्कि यह सुनिश्चित करने में जुटा है कि वह किस शरणार्थी को अपने देश में जगह देगा और किसे नहीं देगा। ऐसे में धर्म और भाषा को आधार बनाकर सरकार का विरोध करना किसी भी लिहाज से तर्कसंगत नहीं है। अच्छा होता कि सरकार पर अंगुली उठाने की बजाय देश की सुरक्षा चिंता और नागरिक आबादी के संतुलन का विचार किया जाता।   केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के गैर मुस्लिम नागरिकों को धार्मिक उत्पीड़न से बचाने वाले नागरिकता संशोधन बिल को पास कर दिया है। उम्मीद है कि जल्द ही उसे संसद से भी स्वीकृति मिल जाएगी लेकिन केंद्र सरकार के इस रुख से विपक्षी दल खुश नहीं है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के कुछ सहयोगी दलों ने भी इस पर अपनी आपत्ति जाहिर की है। विपक्ष इस मामले में बेहद हमलावर है। सरकार के इस प्रस्ताव को   असंवैधानिक और भारत की अवधारणा का उल्लंघन बताया जा रहा है जबकि भाजपा का तर्क है कि विधेयक संविधान की आत्मा और मूल भावना के अनुरूप है। घुसपैठियों के जरिये विपक्ष अपने वोट बैंक बचाने की संकीर्ण कोशिश कर रहा है। कुछ विशेष धर्म के लोगों को नागरिकता देकर केंद्र सरकार पड़ोसी देशों में उनका उत्पीड़न रोकना चाहती है। उन्हें वहां हो रहे दुर्व्यवहार और ज्यादती से बचाना चाहती है।
   
कांग्रेस सांसद शशि थरूर  की इस बात में दम है कि नागरिकता का आधार धर्म नहीं हो सकता। नागरिकता का आधार धर्म होना भी नहीं चाहिए लेकिन शरणार्थी और घुसपैठी का फर्क तो समझा ही जाना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को नागरिकता देना आसान है लेकिन यह सुनिश्चित करना कि इससे भारत की सुरक्षा को खतरा नहीं होगा, बेहद कठिन है। कांग्रेस का तर्क है कि धर्म से राष्ट्रीयता तय करना पाकिस्तान की अवधारणा  हो सकती है लेकिन भारत में नागरिकता की अवधारणा तो सर्वधर्म समभाव की है।  महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. भीमराव आंडकर कहा करते थे कि धर्म राष्ट्रीयता तय नहीं कर सकता। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, माकपा और कुछ अन्य राजनीतिक दल भी विधेयक का विरोध कर रहे हैं और  कह रहे हैं कि धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं दी जा सकती। असम के पूर्व मुख्यमंत्री रहे तरुण गोगोई ने तो विधेयक को असंवैधानिक और विभेदकारी बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय जाने तक की चेतावनी दे दी है। माकपा नेता सीताराम येचुरी को लगता है कि नागरिकता संशोधन विधेयक का उद्देश्य भारत के आधार को नष्ट करना है। अभी कुछ समय पूर्व जब केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने की पहल की थी तब भी विपक्ष ने उस पर धार्मिक भेदभाव का आरोप लगाया था। असम और पश्चिम बंगाल में तो जरूरत से कहीं अधिक ही इसका विरोध हुआ था। पूर्वोत्तर में एनआरसी विवाद अभी पूरी तरह थमा भी नहीं है कि केंद्र सरकार ने नागरिक संशोधन बिल का केंद्रीय मंत्रिमंडल से पास कराकर विपक्ष के विरोध के विरोध के पटाखे में पलीता सुलगा दिया है।  नागरिकता संशोधन बिल अगर संसद से पास हो जाता है, जिसकी पूरी संभावना है तो भारत में बसने वाले शरणार्थियों को मिलने वाली नागरिकता के अनेक नियम बदल जाएंगे। विपक्ष का विरोध इस बात को लेकर है। मोदी सरकार नागरिकता अधिनियम 1955 में परिवर्तन करना चाहती है। इसके तहत बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान समेत आस पास के देशों से भारत में आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी धर्म वाले लोगों को नागरिकता दी जाएगी। इसके लिए उन्हें भारत में 6 साल  रहना होगा। पहले 11 साल से अधिक  समय तक भारत में रहने पर नागरिकता मिलती थी। विपक्ष का आरोप है कि इस विधेयक में उक्त देशों से आने वाले मुस्लिमों की उपेक्षा हुई है। यह भी सच है कि देश में बड़ी तादाद में मुस्लिम घुसपैठी रह रहे हैं। उन्हें बाहर निकालना वक्त की जरूरत भी है लेकिन ये मुस्लिम घुसपैठी वोटर भी बन चुके हैं और भारत में नागरिक सुविधाएं भी प्राप्त कर रहे हैं। विपक्ष की चिंता के केंद्र में केवल मुस्लिम शरणार्थी हैं। गैर मुस्लिम शरणार्थी पहले भी उनकी चिंता के विषय नहीं रहे,आज भी नहीं है। नए नागरिकता संशोधन विधेयक में मुस्लिमों को छोड़कर अन्य धर्मों के लोगों को आसानी से नागरिकता देने पर फैसला किया जा रहा है। विपक्ष इसी बात को उठा रहा है और मोदी सरकार के इस फैसले को धर्म के आधार पर बांटने वाला बता रहा है। असम गण परिषद ने इस  विधेयक का विरोध किया है और कहा है कि इस मुद्दे पर सहयोगियों से सरकार के स्तर पर बात नहीं की गई। गौरतलब है कि असम और पश्चिम  बंगाल में शरणार्थी समस्या हमेशा से चिंता का सबब रही है। असम में विधानसभा चुनाव या देश में लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने एनआरसी का मुद्दा जोर-शोर से उठाया था, कुछ हदतक उसे इसका राजनीतिक लाभ भी मिला था। अब जब पश्चिम बंगाल में चुनाव संभावित हैं तो भाजपा ने अपने तरकश से फिर नागरिकता संशोधन विधायक का बेताल निकाल दिया है। यह विधेयक यूं तो 2016 में लोकसभा में पेश किया गया था, जिसके बाद इसे संसदीय कमेटी के हवाले कर दिया गया था। वर्ष 2019 में जनवरी के पूर्वार्ध में यह विधेयक लोकसभा में पास भी हो गया था लेकिन राज्यसभा में अटक गया था। लोकसभा का कार्यकाल  समाप्त होने के साथ ही यह विधेयक भी अस्तित्वहीन हो गया था।  इसलिए इसे दोबारा लाने की जरूरत पड़ी है।
   
साल की शुरुआत में जितना विरोध इस विधेयक हुआ था, साल के अंतिम महीने में भी उतना ही विरोध हो रहा है बल्कि इस बार विरोध की त्वरा उससे कुछ अधिक ही है। यह विधेयक दरअसल बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के छह गैर मुस्लिम अल्पसंख्यक समूहों के पात्र आव्रजकों को भारतीय नागरिकता हासिल करने में आ रही बाधाओं को दूर करने का प्रावधान करता है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने असम ही नहीं, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में भी इसे लागू करने की बात कही है। उनका मानना है कि इन सताए हुए आव्रजकों का बोझ पूरे देश द्वारा उठाया जाएगा। असम अकेले इस पूरे भार को नहीं उठा सकता। सरकार का तर्क है कि भारत धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है और इन आव्रजक शरणार्थियों के लिए भारत के अलावा और कहीं जाने का कोई विकल्प भी नहीं है। सरकार की योजना विधेयक पास कराकर बंगला देश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान से आने वाले गैर मुस्लिम आव्रजकों को गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में बसाने की है। जिस समय यह विधेयक लोकसभा में पास हुआ था तब भी कांग्रेस ने इसे देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा  बताया था और इसमें असम समझौते के लिए कोई सम्मान नहीं देखा था और आज जब यह कैबिनेट से पास हुआ है तब भी कांग्रेस इसे लेकर सरकार को चौतरफा घेर रही है। तृणमूल कांग्रेस तो पहले से ही इसे विभाजनकारी और असम सहित पूर्वोत्तर के लिए आगलगाऊ विधेयक करार देती रही है। माकपा इसमें नई समस्या के पैदा  होने की गुंजाइश देखती है। उसका तर्क है कि धर्म और भाषा के आधार पर नागरिकता नहीं दी जानी चाहिए। उसने इसे 2019 का भाजपा का घोषणापत्र तक बताया था। एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी तब भी विधेयक को संविधान विरोधी बता रहे थे और आज भी बता रहे हैं। उन्हें लगता है कि इस विधेयक को लागू किया गया तो भारत इजराइल बन जाएगा। राष्ट्रीय जनता दल को भी कमोवेश ऐसा ही लगता है लेकिन घुसपैठ और शरणार्थी समस्या से पूर्वोत्तर में आबादी का बिगड़ता संतुलन देखने को विपक्ष जरा भी तैयार नहीं है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न से इन दोनों देशों में अल्पसंख्यक नाम मात्र के रह गए हैं । इसमें संदेह नहीं कि आजादी के दिन से ही इस मुद्दे पर राजनीति हो रही है। पूर्वोत्तर में जनसंख्या का अनुपात जिस तरह बिगड़ा है, वह  देश के धर्मनिरपेक्ष ताने बाने के खिलाफ है। इस पर आज नहीं तो कल विचार तो करना ही होगा। देश को गांधी का ही हिंदुस्तान रहने दें, कहने भर से काम नहीं चलेगा। एक तरीका तो यह है कि भारत सरकार सभी शरणार्थियों और घुसपैठियों को अपने देश से बाहर कर दे लेकिन तब भी विपक्ष को ऐतराज होगा और अब जब वह उन्हें नागरिकता देने के पक्ष में हैं, तब भी उसे ऐतराज है। एक करोड़ गैर हिंदू शरणार्थियों का दबाव इस देश पर पड़ रहा है और मुस्लिम शरणार्थियों को भी अगर इसमें शामिल कर लिया जाए तो देश का जनसंख्या विस्फोट कितना हो जाएगा, यह किसी से छिपा नहीं है। विपक्ष इस बार भी इस बिल को अटकाने का प्रयास करेगा लेकिन मोदी सरकार को विश्वास है कि वह तीन तलाक बिल, धारा 370 जैसे बिल की तरह इसे भी पास करा ले जाएगी। विपक्ष इसे संविधान के अनुच्छेद —14 के उल्लंघन के तौर पर देख रहा है। उसे पड़ोसी देश से आने वाले छह आव्रजक समूहों का धर्म नहीं दिखता, भाषा नहीं दिखती लेकिन एक धर्म विशेष की चिंता उसे धर्म निरपेक्ष और गांधी का अनुयायी जरूर बनाती है। सारे हिंदू भाजपा को ही वोट नहीं करते, यह जग जाहिर है। हिंदू मतदाता सबकी जरूरत हैं लेकिन उनके हित संरक्षण का आरोप अकेले भाजपा झेलती है, यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। जबकि उस पर आरोप लगाने वाले भी ज्यादातर हिंदू ही हैं। विरोध का विरोध ठीक नहीं है लेकिन विरोध के नाम पर देश और सरकार को कठघरे में खड़ा करना कितना उचित है, विचार तो इस पर होना चाहिए।  






-सियाराम पांडेय 'शांत'-

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