- ●राजशाही में पले बढ़े महाराजा हमेशा लोकसेवक के भाव में रहे
- ●जन सरोकार से जुड़े उनके कई कामों को याद किया जाएगा
- ●आखिरी सांस तक कमल सिंह और कमल निशान साथ रहे
- ●डुमरांव रियासत की परंपरा का निर्वहन अपने जीवनकाल तक करते रहे
- ●राजनीति में ह्रास और सामाजिक विसंगतियों पर हमेशा वे चिंतित रहे
- ● नामचीन हस्तियों के साथ-साथ आमजन से भी मधुर संबंध रखते थे महाराजा
पौराणिक एवं ऐतिहासिक काल से ही बिहार की उर्वरा धरती को अनेक ऋषियों, महर्षियों, राजर्षियों एवं कर्म योगियों की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त रहा है। यह परंपरा आज भी गतिशील है। उन्हीं बिहार के महान सपूतों की गौरवशाली परम्परा को एक अलग पहचान देने वाले महाराजा बहादुर कमल सिंह भी शामिल हैं। देश के आखिरी रियासती राजा और देश के प्रथम सांसद महाराजा बहादुर कमल सिंह 5 जनवरी 2020 को इस दुनिया को अलविदा कर गए। लोकतंत्र को पूरी तरह से बहाल करने के लिए वर्ष 1952 में भारत का प्रथम चुनाव संपन्न हुआ और यहीं से शुरु हुई लोकतंत्र की पूरी परिभाषा। बक्सर संसदीय क्षेत्र से निर्दलीय कैंडिडेट के रुप में कमल सिंह उस समय सबसे कम उम्र के 32 साल में सांसद चुन लिए गए और इनका निशान था कमल का फूल। संसद की सदन में पहुंचने के बाद कमल सिंह की कार्यशैली ने इन्हें तुर्क नेता के रुप में तो स्थापित किया ही इनकी एक अलग क्षवि निखरकर सामने आयी और लागातार 1962 तक सांसद बने रहे। हलांकि बाद के दौर में इन्हें हार का भी सामना करना पड़ा। डुमरांव राज ने कई ऐसे काम किए जनमानस के लिए कि वो एक इतिहास साबित हुआ। वर्ष 1980 में जिस कमल के फूल को भाजपा ने अपना सिंबल बनाया उसी को अपना सिंबल बनाकर 1952 से लेकर 1962 तक महाराजा बहादुर कमल सिंह निर्दलीय चुनाव जीतकर संसद पहुंचने वाले युवा सांसद हुए थे। इस रियासत की खास बात ये है कि आज भी यह परिवार कमल निशान पर ही भरोसा जताता है।
-मुरली मनोहर श्रीवास्तव-
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