मनुष्य और वन्यजीव के बीच सदियों से संघर्ष रहा है। इस संघर्ष को वर्तमान परिपेक्ष्य में कैसे देखें? कोई जानवर किसी इंसान की जान का दुश्मन कब बनता है? या यूं कहें कि परस्परतापूर्ण संचालित जीवन कैसे एक-दूसरे की बलि लेने पर आमादा हो जाता है? इस महत्वपूर्ण सवाल को समझने की आवश्यकता है। यदि आधुनिक विकास को कुछ हद तक जिम्मेदार मान भी लें तो यह गुत्थी सुलझने वाली नहीं है। बदलते मौसम पर भी ठीकरा फोड़ दें, तब भी मानव और वन्य जीवों के संघर्ष की गाथा को समझना आसान नहीं होगा। किसी के जीवन, परिवार और आश्रय में बाहरी दखल ही अन्ततः संघर्ष का पर्याय बनता है। हालांकि सदियों से मानव और वन्यजीवों का आपस में घनिष्ठ संबंध भी रहा है। दोनों एक दूसरे के परस्पर सहयोगी रहे हैं। इसके बावजूद वनप्राणी अपने घरोंदों को छोड़ने के लिए विवश क्यों हुए? कभी तो वनों में प्रचुर प्राकृतिक संसाधन रहे होंगे कमोवेश आज भी हैं।
दरअसल वनों पर अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप ही वन्य जीवों के साथ मानव के संघर्ष का प्रथम कारण बना। वनों का व्यावसायिक उपयोग, उद्योग जगत का विस्तार और आधुनिक जीवनशैली तथा बाजारीकरण और नगरीय सभ्यता के विकास ने दुनिया के कोने-कोने में कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए। सड़कों का जाल ऐसे बिछा कि जंगल के बाशिंदे भोजन और आवास के लिए तरसने लगे। परिणामस्वरूप उनका पदार्पण मानव बस्तियों की ओर होने लगा। तो क्या विकासपरक नीतियां ही मानव और वन्य जीवों के संघर्ष के पीछे महत्वपूर्ण कारक है? जंगलों के दोहन के साथ सेंचुरी और नेशनल पार्क के निर्माण ने वनों के आस-पास निवास करने वाले स्थानीय निवासियों को उनके हक से वंचित किया है। जबकि यह वही स्थानीय निवासी थे, जिन्होंने सदियों से बिना व्यावसायिक दोहन के हमेशा वनों का उचित उपयोग करते हुए उसके संरक्षण का भी काम किया था। विडंबना ही कहेंगे कि इस मुद्दे को सिरे से नकार दिया जाता है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले विमर्श हाशिये के समाजों की जीवन शैली को समझने में असमर्थ ही रहे हैं।
पर्यटन के नाम पर जंगलों को कमाई का केन्द्र बना देना भी मानव और वन्यजीव के बीच संघर्ष का कारण बन गया है। जितना बड़ा वन क्षेत्र उतनी ही संख्या में सफारी और जंगल रिज़ॉर्ट में रहने का रोमांच पर्यटन को बढ़ावा तो दे रहा है और कमाई का माध्यम भी बन रहा है। लेकिन इस नीति ने वन्यजीवों की निजता का हनन किया है। लगातार बढ़ता इंसानी दखल उनको पलायन करने पर मजबूर कर रहा है और शिकार की तलाश में वह इंसानी बस्तियों का रुख कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में सबसे अधिक स्थानीय समाज भुग्तभोगी बनता है, नुकसान भी झेलता है और सरकारी मुआवजे की राह तकते रहता है। उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में देखें तो 1936 में राम गंगा अभ्यारण का निर्माण हुआ, यह पहला संरक्षित क्षेत्र रहा। कालान्तर में जिम कॉर्बेट पार्क के नाम से मशहूर हुआ। इसके बाद श्रृंखलाबद्ध संरक्षित क्षेत्रों का दायरा बढ़ता गया।
आजादी के बाद 1959 में वन कष्ट निवारण समिति बनी जिसने काफी हद तक संतुलित विचार प्रस्तुत किए। जल, जंगल, जमीन के मुद्दे को इस समिति ने प्रभावी तौर पर उठाया। आजादी के तीन दशक बाद नेशनल पार्क के रूप में 1982 में नंदा देवी जोकि 624 वर्ग किमी. तथा फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान 87.50 वर्ग किमी. का निर्माण किया गया। इस तरह देखें तो उत्तराखण्ड का बड़ा हिस्सा संरक्षित क्षेत्र की श्रेणी में आता है। उत्तराखण्ड के जल, जंगल, जमीन के मुद्दों पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता ईश्वर दत्त के अनुसार उत्तराखण्ड में 6 राष्ट्रीय पार्क हैं जो 4915.44 वर्ग किमी. के क्षेत्र में फैले हैं। इसी तरह 7 वन्य जीव विहार हैं जो 2690.04 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले हैं।
जरूरी सवाल यह है कि इतने सारे पार्क और सेंचुरी के बनने से क्यो साल-दर-साल वन्य जीवों का हमला इंसानी बस्तियों पर लगातार बढ़ता ही जा रहा है? वन्य जीव संरक्षण व पर्यावरण संरक्षण से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता महेश जोशी के अनुसार संरक्षित क्षेत्र के आसपास के गांव कृषि आधारित हैं, लोगों की आजीविका का मुख्य स्रोत आज भी खेती-किसानी है। लेकिन वन्य जीवों के दखल से उनके गांव में खेती को खासा नुकसान उठाना पड़ता है। वर्तमान स्थिति यह है कि गांव वाले अपने खेतों की रखवाली करते हैं, रात-रात भर जाग कर जंगली जानवरों से खेतों की सुरक्षा करते हैं, ऐसा करने में उनकी जान का भी खतरा रहता है। फसलों को सीधे तौर पर नुकसान पहॅुचाने वाले जानवरों में चीतल, हाथी, नील गाय और जंगली सुवर प्रमुख है। चीतल बाघ का आसान शिकार है इसलिए बाघ भी गांव के आसपास आ जाता है ओर आबादी के पास आने पर वह अधिक हिंसक हो जाता है। बाघ न सिर्फ चीतलों का शिकार करता है बल्कि वह इंसानों को भी अपना निवाला बनाता है। इस गंभीर समस्या का क्या समाधान हो सकता है? इस सवाल पर महेश जोशी कहते हैं कि आरक्षित क्षेत्र में किसी तरह का मानव दखल न हो यानी जंगल में इंसान की व्यावसायिक घुसपैठ बन्द होनी चाहिए।
आंकड़े बताते हैं कि रामनगर वन क्षेत्र में 2010-2011 में 7 लोगों को बाघ ने निवाला बनाया जिसमें 6 महिलाएं और 1 पुरूष शामिल थे। बागेश्वर गरूड़ में 2017-18 में 5 मासूम बच्चों को गुलदार ने मार डाला। सभी बच्चे 7 से 12 साल की उम्र के थे। नेशनल पार्क के आस-पास के क्षेत्रों में स्थानीय लोगो के लिए वन्यजीव खासा मुसीबत के सबब बन रहे हैं, जिम कार्बेट पार्क के आसपास के क्षेत्र जैसे पम्पापुरी में हिरनों के झुण्ड आसानी से बस्ती में घुस आते हैं, हालाकि हिरनों से लोगों को जान माल का नुकसान नहीं होता लेकिन हिरन तेंदुए के लिए आसान शिकार होता है और आसान शिकार की तलाश में तेंदुआ मानव पर भी हमला करता है। बहरहाल जब तक वन संरक्षित क्षेत्र में इंसानी दखलंदाजी को रोका नहीं जायेगा, जंगल सफारी के नाम पर वन्यजीवों की जिंदगी में विघ्न डालना बंद नहीं किया जायेगा, आवश्यकता से अधिक पूर्ति के लिए जंगलों की अंधाधुंध कटाई रोकी नहीं जाएगी और विकास के नाम पर विनाश की प्रक्रिया बंद नहीं की जाएगी वन्य जीव बनाम इंसान का संघर्ष जारी रहेगा।
ऊषा पटवाल
रामनगर, उत्तराखंड
(चरखा फीचर्स)
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