पूरी दुनिया में सद्भावना के लिए धार्मिक गुरु अपने धर्म के मूल बिंदुओं को अपने अनुयायियों को यह समझाने में लगे हैं कि मानवता ही इस धरती पर आने का मूल तत्व है। यह देश कि अपनी संस्कृति सद्भाव के साथ-साथ सर्व धर्म भाव की रही है। पुरातन काल में देव और दानवों के संघर्ष के बीच भी हमेशा सत्य की विजय हुई। मध्यकाल और आधुनिक काल में कई धर्मों के अस्तित्व की श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए एक दूसरे के ऊपर हावी होते रहे और जिसके परिणामस्वरुप धर्म की एक लकीर खींची गई।
संगीत की गहराईयों में मिल्लत की पाठ
संगीत एक ऐसी विधा है जो दिल की गहराईयों से निकलकर मन मस्तिष्क को झंकझोरते हुए सुर के रुप में बाहर आता है। वाद्य यंत्र की उत्पति भी पुरातनकाल से ही है उसकी धुन भी वैमनस्य को हमेशा मिटाने का काम किया और आपसी मिल्लत का पाठ पढ़ाया। शहनाई वादन की धुन से कौन मुग्ध नहीं होता है। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां और शहनाई एक दूसरे के पर्यावाची बन गए हैं। विश्व में अगर कहीं शहनाई की चर्चा होगी तो वह बिना बिस्मिल्लाह खां के बिना अधूरी है। शहनाई नवाज भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां....आज इस दुनिया में नहीं हैं....मगर उनके द्वारा बजायी गई स्वरलहरियां आज भी उनकी यादों को ताजा कर जाती हैं। एक साधारण सी पिपही पर शास्त्रीय धुन छेड़कर दुनिया को संगीत के एक नए वाद्य से परिचित कराया और असंभव को संभव कर दिखाया। बाबा आज नहीं हैं, उन्हें भूलना भी नामुमकिन है। मगर उनकी यादों को सहेज कर रखने के लिए लगातार 25 वर्षों से ज्यादा समय से काम करता आ रहा हूं।
गांव का कमरुद्दीन बन गया भारत रत्न बिस्मिल्लाह खां
जब कभी कोई बातें करे और उस्ताद की बातें मेरी जुबां पर नहीं आए ऐसा हो ही नहीं सकता और आज की तारीख में तो देश-दुनिया में लोग मुझे बिस्मिल्लाह खां के नाम से ही जानने लगे हैं। बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव के ठठेरी मुहल्ले के किराए के मकान में 21 मार्च 1916 को बालक कमरुद्दीन का जन्म हुआ। अब्बा पढ़ा लिखाकर बड़ा आदमी बनाना चाहते थे। मगर महज चौथी तक की पढ़ाई करने वाला यही बालक आगे चलकर भारत रत्न शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां बन गया। लगभग 150 देशों में अपने शहनाई वादन करने वाले बिस्मिल्लाह ने अपने जीवन में कई पुरस्कार और उपलब्धि अपने नाम किया मगर कभी भी लालच नहीं किया। लेकिन जो आया है वो जाएगा, ये चिरंतन सत्य है, 21 अगस्त 2006 को वाराणसी में उस्ताद ने आखिरी सांसें ली....
समुदाय की परिधि से उपर थे उस्ताद
भारत रत्न शहनाई नवाज बिस्मिल्लाह खां ने अपने जीते जी उत्तर प्रदेश और बिहार दोनों की मिट्टी को एक समुदाय की मिट्टी से नहीं बल्कि सर्वधर्म के बिस्मिल्लाह बनके दफन हुए। बिहार के बिस्मिल्लाह ने साधारण जिंदगी जी कर अपने तथा अपने भाई के पूरे परिवारों की परवरिश करते रहे। कभी अपने संगीत के हूनर का उन्होंने अपने निजी हित के लिए उपयोग नहीं किया। उस्ताद के सानिध्य में समय गुजरने का ही नतीजा रहा कि खां साहब हमारे आदर्श बने गए। उस्ताद मुझे अपने औलाद की तरह स्नेह दिया करते थे। उनके ऊपर पुस्तक लिखने के दरम्यान मुझे उनके जीवन की कई बारीकियों को जानने और समझने का मौका मिला। जब कभी मौका मिलता उस्ताद से मिलकर वास्तविकता से रुबरु हुआ करता था। उनके जीवन को इतने करीब से देखा और महसूस कर हमें काफी शोध करने का मौका मिला। अपने बाल्यकाल में ही अपने घर डुमरांव में उस्ताद से उनका परिचय हुआ। तब कोई खास समझ नहीं थी। बस इतना ही पता था कि डॉ. शशि भूषण श्रीवास्तव की पहल पर “बाजे शहनाई हमार अंगना” फिल्म का निर्माण बस एक भोजपुरी फिल्म है। लेकिन वक्त के साथ बिस्मिल्लाह खां से मिले प्यार ने मुझे दीवाना बना दिया। जैसे –जैसे सोच विकसित होती गई वैसे-वैसे सोच में आया बदलाव और वर्ष 1990 में उन पर पुस्तक की रचना कर डाली। वर्ष 2009 में “शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां” पुस्तक के रुप में सबके सामने आयी। पुस्तक में उस्ताद के अनछुए पहलुओं से लोगों को रुबरु कराया, जिसे वर्ष 2009 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश, वर्तमान राजद प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह, प्रख्यात फिल्मकार प्रकाश ने इस पुस्तक का लोकार्पण किया। वर्ष 2017 में बिस्मिल्लाह खां के 101 वीं जयंती पर डॉक्यूमेंट्री “सफर-ए-बिस्मिल्लाह” को निर्देशित किया, जिसे बिहार संगीत नाटक अकादमी द्वारा लोकार्पित किया गया। इतना ही नहीं उस्ताद पर दूरदर्शन के लिए भी डॉक्यूमेंट्री बनाया। डुमरांव में जन्मे उस्ताद की यादों को स्थापित करने के लिए डुमरांव रेलवे स्टेशन पर संगमरमर के टूकड़े से उस्ताद की प्रतिमा को उकेरने के लिए बातें हुई मगर एक फोटो बनाकर रेल विभाग ने इसकी खानापूर्ति कर दी। अपने जीवन के बाल्यकाल में ही अपने घर पर बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव में उस्ताद से उनका परिचय हुआ। तब कोई खास समझ नहीं थी। बस इतना ही पता था कि डॉ. शशि भूषण श्रीवास्तव की पहल पर “बाजे शहनाई हमार अंगना” फिल्म का निर्माण बस एक भोजपुरी फिल्म है। लेकिन वक्त के साथ बिस्मिल्लाह खां से मिले प्यार ने मुझे दीवाना बना दिया। जैसे –जैसे सोच विकसित होती गई वैसे-वैसे सोच में आया बदलाव और वर्ष 1990 में उन पर पुस्तक की रचना कर डाली। वर्ष 2009 में “शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां” पुस्तक के रुप में सबके सामने आयी।
उस्ताद की निशानी को स्थापित करने की जद्दोजहद
उस्ताद की निशानियों को संयोजने के लिए वर्ष 2013 में शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ट्रस्ट का गठन किया। इस संस्थान के माध्यम से बिस्मिल्लाह खां से जुड़ी कई चीजों को सामने लाने की कार्य योजना बनायी। उस्ताद के जीवनकाल में ही डुमरांव में “शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां विश्वविद्यालय” की स्थापना को स्थापित करने की बातों का इजहार तो किया ही इसको जमीन पर उतारने के लिए लगातार काम कर रहा हूं। वर्ष 2017 में तत्कालीन राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री के ने विभाग के प्रधान सचिव को जांच कराकर नियमानुसार कार्रवाई करने का निर्देश दिया था। लेकिन आज तक उस पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। इस बात को लेकर मुझे थोड़ा दुख जरुर होता है कि आखिर इस पर कारगर कदम क्यों नहीं उठाया जाता। अफसोस इस बात का है कि उस्ताद के नाम पर अब राजनीति भी होने लगी है, जो चिंतनीय है। उनके नाम पर डुमरांव में ही विवि स्थापित करना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
मुरली मनोहर श्रीवास्तव
(लेखक उस्ताद के काफी करीबी रहे हैं)
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