आग जिस जगह पैदा होती है, उस जगह को वह पहले जलाती है। इस देश को कोराना के संक्रमण की आग में झोंकने का जघन्य अपराध जिसने भी किया है, वे खुद भी कोरोना संक्रमण की चपेट में है। दुष्ट का स्वभाव होता है कि वह खुद कष्ट झेलकर भी लोगों को दुखी देखना चाहता है। लोगों का सुख-चैन उसे बर्दाश्त नहीं होता। अपनी इस क्षणिक तुष्टि के लिए वह अपना सर्वस्व खो देता है। तब्लीगी जमात के लोगों ने जो कुछ भी किया है, उसकी उन्हें जितनी भी सजा दी जाए, कम है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि वेखुद भी भारी कष्ट झेल रहे हैं। कोरोना वायरस से संक्रमित होकर तड़प-तड़प कर मर रहे हैं। कर्मफल की कभी निर्जरा नहीं होती। जो जैसा करता है, उसका फल तो उसे भुगतना ही पड़ता है। 'कोउ न काहू सुख-दुख कर दाता। निजकृत कर्म भोग सब ताता। ’
जिस जमात के जरिए उन्होंने भारत को त्रास देने की चाल चली थी। लॉकडाउन जैसे भारत के बड़े और कड़े फैसले के अनुसान की दीवारों में सेंध लगाई थी, वह प्रयास उनके ही प्राणों पर भारी पड़ जाएगा, इसकी उन्होंने कल्पना ही नहीं की होगी। उन्होंने दरअसल बेहद आत्मघाती कदम उठाए हैं। जिस धर्म के प्रचार-प्रसार की वे बात करते थ्ो, सर्वाधिक नुकसान उन्होंने उसी धर्म के मानने वालों को पहुंचाया है। उन्होंने अपने धर्म के मानने वालों से विश्वासघात किया है। अपनी बीमारी छिपा कर वे उनसे मिले भी, उनके साथ भोजन भी किया। धर्म प्रचारक तो सबका भला चाहता है लेकिन वे तो मस्जिदों और मदरसों के भी सगे नहीं निकले। जिस थाल में खाया, उसी में छेद कर दिया। सरकार के दंड से तो फिर भी बचा सकता है लेकिन प्रकृति के दंड से बचना किसी के लिए भी संभव नहीं है। तब्लीगी जमात और उनके संरक्षकों को आज नहीं तो कल, यह बात सोचनी ही होगी। इसके अलावा उनके पास दूसरा विकल्प भी तो नहीं है।
स्कूलों में सभी बच्चों से नारा लगवाया जाता है कि 'जन्म जहां पर हमने पाया, अन्न जहां का हमने खाया, वस्त्र जहां के हमने पहने, वह है प्यारा देश हमारा। उसकी रक्षा कौन करेगा, हम करेंगे। हम करेंगे, हम करेंगे। कैसे करेंगे तन से करेंगे, मन से करेंगे, धन से करेंगे। ’उस संकल्प का क्या हुआ? तब्लीगी जमात वालों का भारत से विरोध समझ में आता है लेकिन अपने ही मजहब के लोगों से उनका क्या विरोध था जो उन्होंने उन्हें कोरोना वायरस के संक्रमण की आग में झोंक दिया। जिस भारत को उन्होंने नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, उसके हर प्रमुख राज्य, जिलों और शहरों में कोरोना का विष फैलाने की कोशिश की, उस सरकार ने भी उन्हें अकेला नहीं छोड़ा। वह उन्हें अस्पताल में भर्ती करा रही है। उन्हें कोरेंटाइल कर उनका इलाज करा रही है। वे अस्पताल नहीं जानाचाहते, अपना इलाज नहीं करानाचाहता। ऐसे में सवाल यह उठता है कि ये लोग चाहते क्या हैं? वे चिकित्सकों, नर्सों से अभद्र व्यवहार कररहे हैं। पुलिस पर हमले कर रहे हैं।
हितकारी बातें देर से समझआती हैं लेकिन अहितकर बातें लालच के आवरण में इस कदर परोसी जाती हैं कि तुरंत समझ में आती हैं। देश भर में जमातियों की मौत हो रही हैं। बहुत सारे जमाती कोरोनापॉजिटिव निकल रहे हैं। उनका इलाज न हुआ तो वे और कर्इ लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। उनके इस अचारण से जमात जैसे पवित्र शब्द पर भी सवाल उठने लगे हैं। उन्हें सोचना होगा कि जमात की ताकत सृजन है, विध्वंस नहीं । आजकल भारत ही नहीं, दुनिया भर में जमात की बात हो रही है। जमात अत्यंत पवित्र शब्द है। जमात समूह का दूसरा नाम है। समूह में ही शक्ति है। जो समूह की शक्ति को पहचान लेते हैं, उनकेलिए इस संसार में कुछ भी असंभव और अप्राप्य नहीं होता। 'दस पांच की लाठी और एक का बोझ’ वाली कहावत तो हम सबने सुनी है लेकिन उसके अमल का तौर-तरीका क्या हो, इस पर न तो कभी विचार किया और न ही इस दिशा मेंकभी आगे बढ़ने की कोशिश की।
संसार क्या है? व्यक्तियों का समूह है। जिस तरह बूंद-बूंद से घड़ा भरता है ,बूंद-बूंद मिलकर सागर बनती है, उसी तरह व्यक्ति-व्यक्तिके मिलन से परिवार,समाज, देश और दुनिया का निर्माण होता है। परिवार, समाज, प्रदेश, देश और दुनिया का स्वरूप इस बात पर निर्भर करता है,उससे कैसे लोग जुड़े हैं। वे अच्छे हैं या बुरे हैं । समूह किसका है, संतों का या असंतों का, सज्जनों का या दुर्जनों का। जमात साधुओंकी होती है। जब कभी साधुओं की जमात बैठती है। देश, काल, परिस्थितियों पर विचार करती है तो अठारह पुराणोंका जन्म होता है। चारों वेदों, छहों शास्त्रों, उपनिषदों और स्मृति ग्रंथोंका जन्म होता है। इस विचार मंथन से लोक जीवन का नियमन होता है। एक बेहतर समाज की आधारशिला तय होती है और जब जमात दुष्टों की बैठती हैतो 'एहि बहुविधि त्रासहिं देस निकासहिं’ का विचार होता है। जमात सृजनधर्मी होती है न कि विध्वंसकर्मी। जमात के पर्याय हैं गिरोह, जत्था, श्रेणाी, दर्जा और कक्षा । इन सबकोनियंत्रित करनेका काम जो शक्ति करती है, उसे अनुशासन कहते हैं। शासन भी बगैर अनुशासन के संभव नहीं है। साधुओंका जत्था होता है, जमात होती है। गिरोह नहीं होता। जमातबंदी और गिरोहबंदी को भारत ही नहीं, दुनिया के किसी भी कोने में अच्छे अर्थों में नहीं लिया जाता। शायर,सिंह और सपूत अपनी राह खुद बनाते हैं। दूसरों के बनाए मार्ग पर नहीं चलते। 'लीक छोड़ तीनौ चलैंं शायर, सिंह ,सपूत। ’वे जिस रास्तेपर चलते हैं, दूसरों के लिए वही राह बन जाती है। संत जिस रास्तेपर चलते हैं, उस रास्तेपर चलने से ही समाज का कल्याण होता है। 'महाजनो येन गत: स पंथा:।’ लेकिन इस बात को जानने के लिए जो चिंतन की गहराइयोंमें नहींजाता, वह जमातके मायाजाल में उलझ जाता है। अज्ञान अंधकार में खुद तो भटकता ही है, अपन ेसंपर्क में आने वालों कोभी दिग्भ्रमित करता है। आदर्शों केसिद्धांतों केसमुच्चय का नाम ही भगवान है।
लाल अपने आप में बेजोड़ है। अनमोल है। वह अकेला ही काफी होता है। साधु भी अकेला ही चलता है। दीप अकेला ही जलता है लेकिन अंधकार को मिटाकर मार्ग को प्रकाशसे भर देता है। घर में उजाला ला देता है। ठीक ही तो कहा गया है कि 'लालों की नहिं बोरियां, साधु न चले जमात।’ कक्षा चाहे स्कूल की हो या ग्रह-नक्षत्रों की, अनुशासन सर्वोपरि है। सिद्धांतों और आदर्शों के प्रति निष्ठा सर्वोपरि है। प्रकृति हमेशा अनुशासित रहती है। नदी अपने तटबंधों का सम्मान करती है। आजकल कुछ लोगों का सवाल है कि बत्ती बुझने और दीपक जलने का कोरोना के इलाज से क्या रिश्ता है? कोरोना मनोबल के अभाव का अहंकार है। अंध्ोरे में ही प्रकाश की अहमियत समझ में आती है। बाहर की बत्ती बुझेगी तभी तो भीतर की बत्ती जलेगी। जमात का असल ज्ञान तो तभी पता चलेगा। जो खुद अपना दीपक बनता है, समूह उसका स्वागत करता है, साथ देता है। जमात बीमारियां फैलाने का जरिया नहीं, वह आंख खोलने का प्रयोग है। जमात एकता का अहसास और वास्तविक धर्म का प्रकाश है। जमात का लाभ तो यह है कि मानव मात्र का कल्याण हो। किसी दूसरे को कष्ट पहुंचाने की नियत से किया गया काम धर्म नहीं है। काश, जमाती धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ पाते। जो खुद स्वस्थ नहीं रह सकता, दूसरों को स्वस्थ नहीं रह सकता। ऐसे लोगों को शरण देने वाला समाज भी नष्ट हो जाता है। इस बात का जितनी जल्दी समझ लिया जाए, उतना ही अच्छा होगा।
-सियाराम पांडेय 'शांत’-
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