लगभग 30 फीसदी मजदूरों को 1910 रुपया उधार लेना पड़ा। वहीं गांव लौटने में 2,196 रुपये से लेकर 25,000 रुपया तक खर्च करना पड़ा जिसमें भोजन पर 34 फीसदी, यात्रा पर 56 फीसदी, दवाई पर 3 फीसदी, और शेल्टर पर 6 फीसदी राशि खर्च की गई। लॉकडाउन की घोषणा के बाद श्रमिकों को अमूमन घर लौटने में जितना खर्च हों उससे 71 फीसदी ज्यादा रकम यात्रा व्यय के रूप में खर्च करना पड़ा। एक श्रमिक द्वारा औसतन 1236 रुपया यात्रा पर खर्च किया गया था
पटना। भारत में लॉकडाउन के अध्याय को जिन वजहों से कभी भुलाया नहीं जा सकेगा, उनमें प्रवासी मजदूरों पर बिना पूर्वसूचना के थोपा गया संकट, महामारी को सांप्रदायिक रंग दिया जाना और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की तंगहाली का उजागर हो जाना प्रमुख होंगे। यह भी, कि अगर देश के पास राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून, सामाजिक सुरक्षा योजनाएं और मनरेगा जैसी कल्याणकारी नीतियाँ उपलब्ध नहीं होतीं तो आज करोड़ों परिवारों को भुखमरी से बचा पाना नामुमकिन होता! जब बात प्रवासी मजदूरों की हो तो उनकी मुश्किलों और मजबूरियों का हिसाब लगाने की कोई भी कोशिश नाकाफी होगी। बेगाने शहरों में काम ढूंढ़ने का अनवरत संघर्ष, सीमित आमदनी, रोजगार की कठिन परिस्थितियां, रहने की बुनियादी सहूलियतों का अभाव, बिचैलियों और ठेकेदारों का बोलबाला, परिवार और समाज से दूर रहने की मजबूरी, काम की जगह पर कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से वंचित होना, इत्यादि ऐसी चुनौतियाँ हैं जिनपर नीति निर्माताओं का ध्यान कम ही गया है!
प्रैक्सिस के अधिकारी अनिन्दो बनर्जी कहते हैं कि पिछले दो सप्ताहों के दौरान कई संस्थाओं और साथियों ने मिलकर देश के अलग अलग जगहों से बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखण्ड के गांव लौटने वाले प्रवासी मजदूरों से संपर्क स्थापित करने और बातचीत करने का प्रयास किया। लॉकडाउन से प्रभावित इन मजदूरों को वापसी के दौरान और गांव लौटने के बाद बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिनके बारे में काफी बातें मीडिया के विभिन्न माध्यमों में होती रही हैं। सहयोगी साथियों के प्रयास से वापसी करने वाले कुल 238 प्रवासी मजदूरों का साक्षात्कार हो सका, जिनके अनुभवों पर आधारित एक संक्षिप्त रिपोर्ट है। छोटे सैंपल की सीमाओं के बावजूद इस अध्ययन से प्रवासी मजदूरों की चुनौतीपूर्ण जिंदगी और अनुभवों की महत्वपूर्ण झलकियां मिलती हैं। लगभग 86 प्रतिशत प्रवासी मजदूर एक एकड़ से कम जमीन वाले या भूमिहीन परिवारों से आते हैं। ज्यादातर मजदूरों की महीने में औसतन 7,100 रू० से 11,407 रू० तक की ही आमदनी हो पाती है तथा वापस लौटने लिए भी 30 प्रतिशत मजदूरों को उधार लेना पड़ा। यह महत्वपूर्ण है कि गांव लौटने के बाद लगभग 45 प्रतिशत मजदूरों को किसी न किसी रूप में पंचायतों का सहयोग मिला। 65ः मजदूरों के परिवार जन वितरण प्रणाली से जुड़े पाए गए तथा लगभग 52 प्रतिशत मजदूरों या उनके परिवार के लोगों को लॉकडाउन के दौरान नगद हस्तांतरण योजनाओं का लाभ मिला। प्रैक्सिस द्वारा किये गये साक्षात्कार में जिन श्रमिकों से बात की गई उनमें 54 फीसदी श्रमिक 20 दृ 30 वर्ष की आयु वर्ग के थे। इनमें 53 फीसदी अनुसूचित जाति से थे। जबकि इनमें से लगभग 86 फीसदी लोगों के पास अपने गृह प्रदेश में एक एकड़ से कम भूमि का स्वामित्व है और 29 फीसदी केवल कब्जा था जबकि जबकि 5 फीसदी बिल्कुल भूमिहीन थे। साक्षात्कार देने वालों में 93ः हिंदू थे। अगर उन राज्यों की चर्चा करें जिन राज्यों से ये श्रमिक वापस अपने गृह प्रदेश आये तो इनसे से सबसे ज्यादा 25 फीसदी कामगार दिल्ली से वापस आए व क्रमशरू गुजरात से 13 फीसदी, महाराष्ट्र से 12 फीसदी, और हरियाणा से 5 फीसदी श्रमिक आये। बाकी 45 फीसदी श्रमिक नेपाल सहित देश के 46 प्रमुख कार्यस्थलों से वापस लौटे। लौटने वालों में से लगभग 67 फीसदी श्रमिक बिहार के विभिन्न जिलों से जबकि 25 फीसदी पूर्वी उत्तर प्रदेश और 8 फीसदी झारखंड के प्रवासी श्रमिक थे। यदि इन प्रवासी श्रमिकों के कामकाज के शहर पर गौर करें तो दिल्ली, मुंबई, सूरत, फरीदाबाद, चेन्नई, बैंगलोर, कोलकाता, शिमला, काठमांडू, पुणे, नोएडा, जयपुर, रायपुर, शिलांग और लुधियाना आदि शहर शामिल हैं। यदि इन राज्यों से महानगरों में पलायन करने वाले श्रमिकों और लॉक डाउन के दौरान गांव लौटने वाले श्रमिकों के कामकाज की प्रवृति पर गौर करें तो लगभग 53 फीसदी लोग कारखानों में काम करते थे, 21 फीसदी दैनिक मजदूरी करते थे, 6 फीसदी लोग टैक्सी ड्राईविंग, होटल में 3 फीसदी, गैरेज में दो फीसदी लोग काम करते थे। इसके साथ ही सुरक्षा गार्ड के रूप में 2 फीसदी, स्वरोजगार 2 फीसदी अन्य क्षेत्र मसलन कृषि गतिविधियों, ईंट भट्टों आदि में 11 फीसदी लोग काम करते रहे हैं। यदि इनकी मासिक आय पर गौर करें तो पता चलता है कि लगभग 50 फीसदी लोगों की मासिक आमदनी 10,000- 15,000 रुपये, 37 फीसदी लोगों की मासिक आमदनी 5,000 दृ 10,000 रुपये, 9 फीसदी लोगों की मासिक आमदनी 15,000-25,000 रुपये से कम थी जबकि 3 फीसदी लोगों की मासिक आमदनी लगभग 5000 रुपये थी।
प्रवासी श्रमिकों में सबसे कम आमदनी वाले समूहों में शामिल हैं कृषि मजदूर, रिक्शा चालक और गैरेज में काम करने वाले श्रमिक जिनकी आमदनी लगभग 7100 -9417 रुपये थी। इसके बाद दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी लगभग 10,598 रु, ईंट-भट्ठा श्रमिक 10,833 ,सुरक्षा गार्ड लगभग 10,500 रु और कारखाना श्रमिक लगभग 11,407 रुपये मासिक थी। लगभग 46 फीसदी श्रमिक कोरोना वायरस का डर, आजीविका की हानि की वजह से 31 फीसदी, भुखमरी के डर से 22 फीसदी व विविध पारिवारिक आवश्यकताओं 23 फीसदी, छंटनी की वजह से 10 फीसदी व परिवार के सदस्यों के लिए सुरक्षा चिंता के कारण 9 फीसदी,आश्रय की कमी की वजह से 8 फीसदी मजदूर लौटे। जहां तक इन मजदूरों के आर्थिक हालात का सवाल है जब घर छोड़ने का फैसला किया तो 42 फीसदी श्रमिकों के हाथ में औसतन 4293 रुपये था जबकि उन्होंने घर लौटने का फैसला किया तो उनके पास 2000 से कम रुपये था। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के हालिया प्रखंड निवासी 32 वर्षीय राजकुमार दिल्ली के एक कारखाने में कार्यरत थे। जब उन्होंने लॉकडाउन की घोषणा के बाद घर जाना तय किया तो उनके पास 1000 रुपया था। 9 लोगों के एक जत्थे के साथ वे दिल्ली से चले ताकि भूखमरी से बच सकें। सफर में उन्हें लगभग एक सप्ताह लगा जहां रास्ते उन्होंने पैदल और आंशिक रूप से ट्रक से सफर किया। इस दौरान उन्हें रास्ते में 3 स्थानों पर प्रशासन द्वारा गाजियाबाद,कानपुर और प्रयागराज आईसोलेट किया गया। इस तरह से लगभग 30 फीसदी मजदूरों को 1910 रुपया उधार लेना पड़ा। वहीं गांव लौटने में 2,196 रुपये से लेकर 25,000 रुपया तक खर्च करना पड़ा जिसमें भोजन पर 34 फीसदी, यात्रा पर 56 फीसदी, दवाई पर 3 फीसदी, और शेल्टर पर 6 फीसदी राशि खर्च की गई। लॉकडाउन की घोषणा के बाद श्रमिकों को अमूमन घर लौटने में जितना खर्च हों उससे 71 फीसदी ज्यादा रकम यात्रा व्यय के रूप में खर्च करना पड़ा। एक श्रमिक द्वारा औसतन 1236 रुपया यात्रा पर खर्च किया गया था। कठिन परिस्थितियों में किये गए इस अध्ययन में बहुत सारी संस्थाओं और साथियों ने महत्वपूर्ण नेतृत्व और सहयोग दिया। इनमें पलायन के विषय पर काम करने वाले सारण जिले के राकेश राणा जी और उनके साथीय आर्थिक अनुसन्धान केंद्र (यूपी) के हरि गोविन्द जी और साथीय सी.एस.ई.आई. और बिहार अम्बेदकर स्टूडेंट्स फोरम से जुड़े साथीय दलित आदिवासी अधिकार आंदोलन के धर्मदेव जी अदिति संस्था के साथी और झारखण्ड के पंकज कुमार जी का योगदान महत्वपूर्ण है। प्रैक्सिस के विजय प्रकाश, अभय कुमार और अन्य कई साथियों ने समन्वय की भूमिका निभायी।
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