"गांधी की बात याद आए तो खतरे की घंटी बजी यही मानना चाहिए।“
आज गांधी की हत्या को आज 72 साल, तीन महीने, चार दिन हो गए हैं। वर्तमान के संदर्भ में गांधी को याद करते हुए इतिहासकार सुधीर चन्द्र ने कहा कि “72 सालों में गांधी की न जाने कितनी बातें वक्त-बेवक्त याद आती रहीं हैं। दुर्भाग्य से गांधी की याद तब ही आती है जब हम संकट में होते हैं, गांधी की बात याद आए तो खतरे की घंटी बजी यही मानना चाहिए।“ रविवार की शाम राजकमल प्रकाशन के फ़ेसबुक लाइव के तहत #StayAtHomeWithRajkamal से जुड़कर इतिहासकार सुधीर चन्द्र ने बताया कि लॉकडाउन में उन्हें गांधी की बहुत ज्यादा याद आ रही है। सुधीर चन्द्र ने कहा, “गांधी ने सपना देखा था कि आज़ाद हिन्दुस्तान संसार को एक नया रास्ता दिखाए। एक ऐसी संस्कृति कि निर्मिति हो जिसमें गाँव इकाई हो। शहरों से हमारा जीवन चालित न हो। इसके लिए उन्होंने स्वदेशी की बात भी कही थी, मतलब हमारी जरूरतें हमारे गाँव और आसपास के 50-100 मील के भीतर ही पूरी हो सके। लेकिन हम उनके सपने के उल्टी दिशा की ओर बढ़ रहे हैं। “ लॉकडाउन के दौरान न केवल सुधीर चन्द्र, बल्कि राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक लाइव कार्यक्रम से जुड़कर कई अन्य लेखक एवं पत्रकारों ने भी अपनी बात लोगों से साझा करते हुए गांधी के मंतर को याद किया या गांधी के विचारों को साझा किया है। इस समय गांधी और भी ज्यादा प्रासंगिक लगने लगे हैं। दरअसल, कोविड 19 बीमारी में हमने निचले तबके के लोगों को बिलकुल अकेला छोड़ दिया है। 2020 इसलिए भी याद किया जाएगा जब देश के कोने-कोने से लोग परेशानी और भुखमरी की हालत में वापिस गांव की ओर लौट रहे थे। हमारे शोध बताते हैं कि कोविड 19 मानव निर्मित आपदा है। इस जैविक महामारी ने मानव सभ्यता की भाग-दौड़ पर लगाम लगा दी है। एक तरह से यह संकेत है, विकास की यात्रा को ठहरकर आलोचनात्मक नजर से देखने का। सुधीर चन्द्र ने कहा कि, “हमें प्रकृति के साथ अपने रिश्तों को नए तरह से सोचने और समझने की जरूरत है। सच यह भी है कि सामान्य परिस्थितियों में हम वापिस लौटेंगे तो हम अपने पुराने ढंग पर ही चलेंगे लेकिन, अगर हम अभी नहीं संभलेंगे तो हम कभी नहीं संभल पाएंगे।“ आभासी दुनिया से जुड़कर सुधीर जी ने गांधी की नोआखाली यात्रा पर चर्चा करते हुए बताया कि वे हिंसा रोकने के साथ-साथ लोगों से पूछ रहे थे कि हिंसा किसने की। उनके सामने कोई झूठ नहीं बोल सकता था। लेकिन कोई सच भी बताने को तैयार नहीं था। गांधी ने कहा, “मैं कंकालों से पूछूंगा” सुधीर चन्द्र ने कहा, “गांधी कंकालों से बात करना चाहते थे लेकिन हम आज जिंदा लोगों से भी नहीं पूछ रहे कि वो इस हालात में कैसे अपने को संभाल रहे हैं। विस्थापित मजदूरों की परेशानियां जितनी हम देख पा रहे हैं, स्थिति उससे ज्यादा विकट है। दरअसल, जरूरत है इस संकट को और उससे बड़े संकट को देखने की जिसका कोविड 19 इशारा कर रहा है।“
आम की बातें
कौन सा आम सबसे अच्छा है या आम फलों का राजा है कि नहीं...ऐसी बहसों से हर किसी का सामना कभी न कभी तो हुआ होगा। फिलहाल, सामना नहीं हो रहा तो असली आमों से। लॉकडाउन की वजह से आम पेड़ों से उतर कर घर तक नहीं पहुंच पा रहे। जिनके पास पहुंच रहे हैं वे सच में बहुत खुशनसीब हैं। लेकिन, आम न सही, आम का इंतजार ही सही। रविवार के स्वाद-सुख कार्यक्रम में इतिहासकार पुष्पेश पंत ने बताया कि आम ने हमारे खान-पान को कैसे प्रभावित किया है और कच्ची अमिया के कुछ स्वादिष्ट व्यंजनों के बारे में... हिन्दुस्तानी फलों के शहंशाह आम के बारे में सभी की अपनी पसंद है। दसहरी, मालदा, हापूस, चौसा, लंगडा, बादामी, केसर, आम्रपाली... पुष्पेश पंत कहते हैं, “ जितने प्रकार के आम उतनी तरह की कहानियाँ। आम के नाम, उनके स्वाद सभी के पीछे कोई पुरानी दास्तान सुनने को मिलती है।“ दसहरी को दसहरी क्यों कहते हैं? क्योंकि कहा जाता है कि दस संताप हरने का जो सुख है वही सुख दसहरी को खाने से मिलता है इसलिए इसे दसहरी कहते हैं। वैसे, यह मलीहाबाद के निकट एक गांव दसहरी से भी जुड़ा हुआ है। तोतापुरी आम का जिक्र तो अक़बर के पैदा होने से पहले से होता रहा है। लेकिन, सबसे मज़ेदार कहानी लंगड़ा आम की है। कहते हैं, एक तीर्थ यात्री, बंगाल के मालदा शहर में एक सूफ़ी पीर की दरगाह पर जियारत के लिए गए। वापसी में वे अपने साथ मालदा आमों का कलमा ले आए और उसे बनारस में लगा दिया। तीर्थ यात्री थोड़ा लंगड़ा कर चलते थे। अब उनके लगाए पेड़ों में जब फल आने लगा तो लोगों ने उसे लंगड़ा आम कहना शुरू कर दिया और इस तरह लंगड़ा आम का नामकरण हो गया। गर्मी में आम के उपयोग पर बातचीत करते हुए उन्होंने कहा, “आम से जो पन्ना बनता है वो लू से बचाने में राहतगार होता है और कच्ची अमिया से बनने वाली ‘चटनी राहतजान’ खाने में बहुत स्वादिष्ट होती है। वैसे ही, अवध में कैरी की कटली से अंबरकलियां बनाया जाता रहा है। कैरी का पुलाव भी और कैरी वाली अरहर की दाल अवधी व्यंजनों में बहुत मशहूर है।“ आम के आम गुठलियों के दाम! गुजरात में ‘आम की गुठली नो शाक’ बनाने का चलन है। इसमें पके आम के साथ-साथ गुठलियों को भी उबाला जाता है और एक मज़ेदार खट्टा-मीठा व्यंजन तैयार किया जाता है। वैसे, गाँवों में आम की गुठलियों को पीस कर उसका आटा बना कर उससे व्यंजन तैयार किया जाता है जो गर्मी से बचने के लिए बहुत कारगर है। महाराष्ट्र में ‘कैरीची आमटी’ खाने को मिलती है। यह भी माना जाता है कि इससे ही सांभर का जन्म हुआ है। आम के अचार की दुनिया में जितने तरह के मसाले होते हैं उतने ही तरह का उनका स्वाद चखने को मिलता है!
सत्यजित राय : जीवन चलचित्र
आज़ादी की लड़ाई के वक्त बंगाल में कला, संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में बदलाव लाने में बहुत सारे महान व्यक्तियों का नाम लिया जाता है, उस लिस्ट में रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद अगर किसी का नाम है, तो वे सत्यजित राय हैं। सत्यजित राय के दादा उपेन्द्रकिशोरराय चौधरी का नाम भी बहुत कुछ नया शुरू करने के लिए जाता है। भारत में प्रिन्टिंग तकनीक को विकसित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने बच्चों के लिए शानदार किताबें लिखी हैं। बांग्ला की लोककथाओं पर आधारित ‘बुलबुल की किताब’ हिन्दी में बांग्ला से अनुवादित है। बांग्ला में यह किताब आज भी सबसे ज्यादा पढ़ी जानी वाले किताबों में शामिल है। सत्यजित राय के पिता भी लेखक के रूप में चर्चित थे। सत्यजित राय को साहित्यिक रूचि अपने दादा और पिता से मिली थी। उनके पारिवारिक व्यवसाय में प्रिन्टिंग प्रेस भी शामिल था। उनके पिता एवं ‘संदेश’ नामक साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित करते थे जिसे बांग्ला साहित्यिक पत्रिकाओं में मील का पत्थर माना जाता है। इसके जरिए ही सत्यजित राय का बहुत सारा साहित्य लोगों की नज़र में आया। साहित्य और सिनेमा के बीच स्वाभाविक और मजबूत रिश्ता कैसा हो सकता है इसका प्रमाण उनकी फ़िल्में हैं। उनकी अधिकतर फ़िल्में किसी न किसी साहित्यिक कथा पर आधारित हैं। पाथेर पांचाली, चारूलता, नष्टनीड, गोपी गायन बाघा बायन, पारस पत्थर, जय बाबा फेलुनाथ और बहुत सारी फ़िल्में इसमें शामिल हैं। फ़िल्मों में उन्होंने कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था, वे अपने आसपास से ही चीजें सीखते थे। वे एक सुंदर चित्रकार भी थे। साहित्य अकादमी का लोगो उन्होंने ही डिज़ाइन किया है। उनके लिए साहित्य सिर्फ़ लेखन नहीं था बल्कि वे उसके साथ उसकी चित्रकारी भी करते, अपनी ज्यादातर किताबों के कवर भी उन्होंने खुद बनाये थे। जासूसी उपन्यासों में फेलूदा सीरिज़ की कहानियाँ हों या अन्य उपन्यासों के चरित्र प्रोफेसर शंकू, सत्यजित राय की सारी कहानियाँ बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी रोमांच से भर देती हैं। फेलूदा सीरिज़ की हर कहानी भारत के किसी न किसी शहर की सैर कराती है। वहीं लोककथाओं पर लिखी उनकी कहानियाँ कलकत्ता को विस्तार से समझने का एंगेल देती है। सत्यजित राय की फ़िल्म और उनका साहित्य बताता है कि वे अपने आप में पूर्णता में काम करते थे। वे अपनी फ़िल्मों का चित्रांकन करते थे, चरित्रों के कपड़ों को डिज़ाइन करते थे। कहानी और गीत भी तैयार करते थे। यही उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि वे साहित्य हो या फ़िल्म इन दोनों ही माध्यम के सभी बारिकियों को संपूर्णता में देखते और संप्रेषित करते थे।
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