जब भारत में करोना के मामले तेजी से बढ़ने लगे,तब होम क्वारंटाइन जैसा एक शब्द आंधी की तरह आया। जिसने न केवल भारत की चरमराई स्वास्थ्य सेवा की कड़वी सच्चाई को सामने ला दिया बल्कि इसकी कमीने कई जिंदगियों को उजाड़ कर रख दिया। पूरी तरह से प्लास्टिक पर निर्भर हो चुके इस दौर में एक बिमारी नें सबको प्लास्टिक में बांध दिया और इंसानी सभ्यता के मूल भाव प्रेम तथा स्पर्श को प्लास्टिक के मास्क और दस्ताने में कैद कर दिया। विकास की अंधी दौर में हम इंसानों ने खुद को जिस तरह से प्लास्टिक की दुनिया में कैद कर लिया था, उसका परिणाम आज सबके सामने है। नतीजा यह है कि आज हम एक के बाद एक न जाने कितनी ही समस्यांओ से जूझ रहे है। कोरोना संकट ने हमारी इस मुश्किल को और भी बढ़ा दिया है।
भारत जैसे विकासशील देश में क्वारंटाइन के लिए अलग कमरा यानि होम क्वारंटाइन में रह कर बीमारी से बचने की परिकल्पना एक ख्वाब जैसी लगती है। जिस ख्वाब को देश की आबादी का कुछ प्रतिशत हिस्सा ही देख सकता है। फिर इस ख्वाब को कानून में ढाल कर भारतीय समाज पर लादना कितना सही है? हम उसी की पड़ताल करते है उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के एक गांव रामपुर बबुआन में। जब मैं इस गांव को देखता हूँ और फिर करोना से बचाव के नियम तथा क्वारंटाइन की परिस्थिती को देखता हूँ, तो लगता है कि हम जो नियम विदेश से उठा कर अपने देश पर लाद रहे हैं, क्या जमीनी स्तर पर वह कारगर सिद्ध हो पायेंगे? क्या हमें नियम बनाते समय अपनी सांस्कृतिक, भौगोलिक, आर्थिक और शैक्षणिक परिस्थितियों का जायजा नही लेना चाहिए और क्या उसी के आधार पर नीति तैयार नहीं करनी चाहिए?
एक ऐसा राष्ट्र जहां की अधिकतर ग्रामीण आबादी को दो वक्त का खाना मिलना मुश्किल हो, एक ऐसा समाज जो आज भी कई मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है। वहां हाइजीन और सफाई की बात करना थोड़ा कठिन लगता है। गांव की एक 55 वर्षीय आंगनबाड़ी कार्यकर्ता कमला सिंह, जिनकी ड्यूटी लोगो को कोरोना से जागरुक करने की है,अपना अनुभव बताती हैं कि "हमारी तरफ से लोगो को पूरी शिद्दत से जागरुक किया जा रहा है। हम उन्हे हाथ धोने के तरीके बताते हैं। लेकिन जब हम सामने होते हैं तो लोग हमारी बातें सुनते हैं, लेकिन हमारे जाते ही वह कितनी गंभीरता से इसका पालन करते होंगे, मैं नही कह सकती। अब तो लोगों को समझाने जाओ तो वह चिढ़ जाते हैं और हमारे ऊपर ही आरोप लगाते है कि हम उनकी सरकारी मदद का पैसा खा रहे है।"
वाकई समझने वाली बात है कि आजादी के 70 वर्षों बाद भी क्या हम समाज की आधारभूत आवश्यकताएं भी पूरी कर पाये हैं? एक खाली पेट और खाली जेब वाला इंसान जिसे एक बड़े परिवार का पेट पालना है, वह दिन में कितनी बार हाथ धोने की सोच पायेगा? यूरोपीय देशों के गांवों की तुलना में हमारे शहर भी कहीं टिकते नहीं हैं। फिर हम गांवों को किस बुनियाद पर क्वारंटाइन और हाइजीन की कसौटी पर कसते है? गांव की संस्कृति में लेन देन, साथ उठना-बैठना और एक साथ मिलकर जानवरों को चराना एक आम बात है। यहां तक कि गांव में कुछ घर तो आपस में ऐसे हैं जिनकी दीवारों के बीच दो ईटें, बिना सीमेंट की बनाई जाती हैं। जिनके बीच दूध-दही, साग सब्जी और माचिस तक का लेन देन होता है। ऐसे सांस्कृतिक माहौल में आप क्वारंटाइन की सफलता का पैमाना कैसे माप सकेंगे?
इस संबंध में एक ग्रामीण गीता देवी का कहना है कि यह देहात का सिस्टम है, कब तक घरो में बंद रहकर काम चलेगा? लाठी डंडे के जोर पर अगर बंद कर भी दिया तो ज्यादा से ज्यादा एक दिन। इससे ज्यादा नही हो सकता है। आखिर गाय भैस भी तो है, वह सरकारी कायदे कानून नही समझते हैं। उन्हें भी भूख लगती है। उनको तालाब ले जाना पड़ता है। चराना और घुमाना पड़ता है। उनसे नहीं कहा जा सकता कि एक महीने तक खूंटी से बंधे रहो, क्योंकि बाहर करोना है।" गीता देवी का कहना था कि गांव में बहुत सी चीजे सामूहिक रूप में होती हैं। जिनसे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पूरा गांव जुड़ा होता है। हर परिवार का परिवेश और शिक्षा का स्तर, दूसरे परिवार से अलग है। इसी क्रम में गीता देवी कहती है कि "जैसे पांच परिवारो के बीच में एक सरकारी नल है और प्रत्येक परिवार में आठ सदस्य हैं। यदि पांच परिवारों में कोई एक भी कोरोना से ग्रसित है और नल को छूता है, तो आप बीमारी को फैलने से कैसे रोक सकते हैं? ऐसी स्थिति में आप पानी पीना तो छोड़ नही सकते हैं? फिर आप क्या करेंगे? इसलिए जरूरी है कि इस तरह की बीमारी को समझने और समझाने से पहले हमें अपनी जमीनी हकीकत को समझना होगा।"
शहर में रहने वाला एक इंसान बड़ी आसानी से अपने आप को एक कमरे में बंद करके खुद को दुनिया से अलग कर सकता है। बड़ी-बड़ी सोसाइटी और अपार्टमेंट में अक्सर मैंने देखा भी है। मगर हाशिये का आदमी इसके सामने कैसे टिकेगा? शहर से कुछ किलोमीटर दूर जब आप बाहर निकलते हैं तो आपको सड़कें और माहौल बदला बदला नजर आने लगता है। यह बदलाव सिर्फ पानी, मिट्टी और कच्चे घरो का ही नही होता बल्कि सामाजिक जीवन भी बदल जाता है। शहर में बिना जाति पूछे लोगो को कमरे के अंदर अपनी जरुरत की सारी सुविधाएं हासिल हो जाती हैं। लेकिन गांवो के ढांचे में एक बड़ा मुद्दा जाति का भी नजर आता है। यहां एक जाति समुदाय का आदमी दूसरे जाति के स्पर्श तो क्या, उसकी छाया से भी बचता है। ऐसी सामाजिक स्थिति में घर में बंद रहना ग्रामीण परिवेश की बहुत बड़ी चुनौती है।
इस कड़वी हकीकत को सूरत से लौटे गांव के एक प्रवासी मजदूर राजित राम कहते है कि "मैं एक मामूली मजदूर अनपढ और शूद्र हूँ। हमें न तो कोइ छूता है और न हमारे उत्थान के लिए सोचता है। हमारे विकास के लिए सरकार की बहुत सारी योजनाएं होंगी, लेकिन वह कहां आती हैं और इसका लाभ कैसे प्राप्त किया जा सकता है, यह बताने वाला कोई नहीं होता है।" एक और चीज जो बार बार मुझे घर लौटे हुए प्रवासी मजदूरो से बात करते हुए महसूस हुई कि वह आज भी सरकार से राहत के इंतजार में हैं। इसीलिए जब मैंने उनसे बात की और कहा कि आपकी समस्याओं पर कुछ लिखना चाहता हूँ तो उनका कहना था लिख कर पैसा दिलवा दोगे? आधार और अकाउंट की कॉपी लाकर दूं?" "कौन सी योजना है? कितना पैसा मिलेगा? फार्म कहां मिल रहा है?
वास्तव में फॉर्मों, एक अदद सहायता योजना पाने के लिए लगने वाली लंबी लंबी कतारों और राहत पैकेज के बीच फंसा हमारा जरुरतमंद ग्रामीण समाज, जब इस तरह के अभाव और मजबूरियों से जूझ रहा है तो हम कैसे उम्मीद कर सकते है कि वो मास्क, सैनेटाइजर या साबुन का इस्तेमाल करता रहेगा और कैसे छोटे छोटे घर में तीन तीन परिवारो वाला समाज अकेले कमरे में बंद होकर खुद को और देश को महामारी से बचा पायेगा?
राजेश निर्मल
(चरखा फीचर)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें