कोरोना के आपदा काल में जब समूचा विश्व महामारी से बचाव के लिए जीवनोपयोगी वैक्सीन बनाने की कवायद में जुटा है, जब पूरी दुनिया इस आफत से मानव सभ्यता को बचाने में चिंतित है ऐसी मुश्किल घड़ी में भी महिलाओं की सुरक्षा एक अहम प्रश्न बनी हुई है, क्योंकि संकट की इस घड़ी में भी महिलाओं के खिलाफ अपराध में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है। अनलॉक प्रक्रिया में जहां महिलाओं के खिलाफ हिंसा के सभी स्वरूपों में वृद्धि हुई है, वहीं लॉक डाउन के दौरान भी महिलाएं हर पल अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए समाज से खामोश जंग लड़ती दिखाई दी हैं। लॉक डाउन ने समाज के हर वर्ग के जीवन को बदला और किसी न किसी रूप में प्रभावित किया, मगर भारतीय स्त्रियों के लिए परिस्थितियाँ जस की तस रहीं। लॉक डाउन से पूर्व महिलाएं दहेज हत्या, विवाद, गृह कलह के जिस शिकंजे में जकड़ी थीं, वही दलदल उन्हें लॉक डाउन में भी नसीब हुआ।
राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा रेखा शर्मा कहती हैं कि लॉक डाउन में हर प्रकार के अपराध में गिरावट आई मगर बदकिस्मती से महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या में कोई खास बदलाव नहीं लाया। शहर हो या गांव हर जगह महिलाएं अपराध के लगभग सभी स्वरूपों का शिकार हुईं हैं। हालांकि लॉक डाउन में इस अपराध के खिलाफ हिंसा की अपेक्षा रिपोर्ट कम दर्ज कराई गई, क्योंकि लॉक डाउन से पहले महिलाओं के खिलाफ होने वाली अधिकांश घटनाएं थानों, चौकियों में दर्ज हो जाती थीं। लेकिन लॉक डाउन में बाहर निकलने पर सख्ती होने से औरतों की यह सिसकियां घरों की चार दिवारी में दफ़न होकर रह गईं।
दरअसल लॉक डाउन में जब सब बंद है ऐसे में वाहन चोरी, चैन स्नेचिंग, हत्या, जमीन विवाद, लूट और चोरी जैसे हर प्रकार के अपराध में भारी गिरावट आई है, लेकिन महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। यहां तक कि महिलाओं को इस बंदी में शारीरिक के साथ साथ मानसिक यातनाओं को भी सहना पड़ा था। इस संबंध में परिवार परामर्श केंद्र की सलाहकार निर्मल बख्शी कहती हैं कि लॉक डाउन में सब बंद था, 24 घंटे पति पत्नी एक छत के नीचे रह रहे थे, काम धंधा बंद होने से मानसिक रूप से परेशान पति अपना गुस्सा पत्नी पर ही निकालने लगा। ऐसे में घरेलू हिंसा के केसों का बढ़ना स्वाभाविक था। यही कारण है कि मार्च से मई तक के महीनों में आपराधिक आंकड़ों में कमी आई लेकिन महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध में खास अंतर नहीं आया। मेडिकल कॉलेज की मनोविज्ञानी और सलाहकार डॉ पूनम देवदत्त कहती हैं कि भारतीय महिलाओं को अपराध सहने की आदत बचपन से ही डाल दी जाती है। इसे उनका मुकद्दर बता दिया जाता है।
कोविड 19 के काल में अपराध की शिकार कोई खास वर्ग, जाति या समाज की महिलाएं हुई हैं, या उन पर संकट बढ़ा है, कहना गलत होगा। समाजशास्त्री प्रोफेसर डॉ लता कुमार के अनुसार इस महामारी में शिक्षित, नौकरीपेशा, शहरी, अनपढ़, कामगार और घरेलू सभी महिलाओं को अपमान के घूंट पीने पड़े हैं। शहरी और नौकरीपेशा महिलाओं पर लॉक डाउन में घर के कामों का बोझ बढ़ा। परिवार के सभी सदस्य घर पर हैं ऐसे में हर सदस्य की जरूरत व इच्छाओं का ख्याल रखने की बढ़ी जिम्मेदारी महिलाओं पर आ गई। परिवार की फ़रमाइशों को पूरा करने के बीच नौकरीपेशा महिलाओं को वर्क फ्रॉम होम को भी बखूबी पूरा करना एक चैलेंज था। महिला मुद्दों की जानकर अतुल शर्मा कहती हैं कि शिक्षा जगत में 80 फीसदी महिलाएं हैं, विशेषकर देश भर में फैले प्राइवेट स्कूलों में महिला शिक्षकों की बड़ी संख्या है। ऐसे में उन्हें घर पर रहकर ऑनलाइन पढ़ाई करानी है। निजी कंपनियों व अन्य सेक्टर की नौकरीपेशा महिलाओं को भी वर्क फ्रॉम होम मिल गया। महिलाओं के दफ्तर के काम मे कोई कटौती नही हुई लेकिन घर पर रहने से परिवार की ज़िम्मेदारी भी बढ़ गई। आम दिनों में घर के कामों में हाथ बंटाने वाली आया की भी कोरोना संक्रमण के खतरे के कारण छुट्टी करनी पड़ी।
घर, परिवार और दफ्तर का दोहरा बोझ अकेले महिलाओं के कंधों पर पड़ गया। वहीं परिवार का कोई सदस्य इन कामों में उसका सहयोग करने को तैयार नहीं था। ऑफिस से मिले टारगेट को समय पर पूरे न होने पर नौकरी जाने का भय भी महिलाओं को था। दिन भर पति के घर पर रहने से छोटी, छोटी बातों पर तनाव, गृहकलेश का कड़वा घूंट भी महिलाओं को ही पीना पड़ा है। ग्रामीण इलाकों में भी स्थितियां बदतर हैं। घर के अंदर जहाँ छोटी छोटी बातों पर पति का ज़ुल्म सहना पड़ता था, वहीं खेतों पर जाने वाली महिलाओं के साथ छेड़खानी, दुराचार जैसी घटनाएं होने का खतरा बना रहता था। पलायन करने वाले कामगारों में भी महिला श्रमिकों के साथ छेड़खानी की कई घटनाएं हुईं, जिन्हें कहीं दर्ज नहीं किया गया।
दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्षा स्वाति मालीवाल कहती हैं कि जिस समय पूरा देश कोरोना के खिलाफ एकजुट होकर लड़ रहा था, दुःख की बात यह है कि उस समय भी रेप, साइबर क्राइम, घरेलू हिंसा के मामले सामने आ रहे थे। लॉक डाउन के दौरान जहां देश की राजधानी दिल्ली में अपराधों की संख्या घटी थी, वहीं बलात्कार, घरेलू हिंसा, पॉक्सो और साइबर अपराध के मामलों में कोई कमी नहीं आई थी। आयोग की हेल्पलाइन 181 को औसतन रोज़ाना 1500-1800 कॉल मिलती थी। लॉक डाउन के दौरान महिला अपराध की सर्वाधिक शिकायतें उत्तर प्रदेश से आईं। यूपी पुलिस के मुताबिक प्रदेश मे लॉक डाउन के दौरान हत्या, अपहरण, वाहन चोरी और छिनैती की वारदातों में पचास प्रतिशत की कमी आई थी। बावजूद इसके, महिलाओं के साथ गैंगरेप जैसी घिनौनी वारदातों में किसी प्रकार कमी नहीं हुई थी। शर्म की बात यह है कि राजस्थान के सवाई माधोपुर में लॉकडाउन की वजह से क्वारंटीन में रुकी एक महिला से सरकारी स्कूल परिसर में ही सामूहिक दुष्कर्म हुआ था।
लॉक डाउन के दौरान केवल भारत में ही महिलाओं के खिलाफ हिंसा में वृद्धि दर्ज नहीं हुई है बल्कि ब्रिटेन जैसे विकसित और उच्च शिक्षित कहे जाने वाले यूरोपीय देश में भी आंकड़ा बढ़ा है। यह इस बात का सबूत है कि महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटना समाज के विकसित होने से नहीं बल्कि उसकी मानसिकता से जुड़ा है। किसी भी सभ्य समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की कोई जगह नहीं हो सकती है, परंतु इसके लिए ज़रूरी है समाज का मानसिक रूप से विकसित होना। जहां तक भारत का प्रश्न है तो सदियों से भारतीय समाज महिला को देवी के रूप में पूजता रहा है, लेकिन इसके बावजूद भारतीय समाज में महिलाओं को बराबरी का स्थान पाने के लिए आज भी संघर्ष करनी पड़ रही है। समय आ गया है इस बात पर गंभीरता से विचार करने का, कि आखिर देश, समाज, घर और परिवार के लिए अपना सबकुछ निछावर करने के बावजूद महिलाओं के खिलाफ हिंसा क्यों नहीं रुक रही है?
शालू अग्रवाल,
मेरठ
(यह लेख संजॉय घोष मीडिया फैलोशिप 2019 के तहत लिखा गया है)
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