हमारे देश में पर्वो एवं त्योहारों की एक समृद्ध परम्परा रही है, यहां मनाये जाने वाले पर्व-त्योहार के पीछे कोई न कोई गौरवशाली इतिहास-संस्कृति का संबंध जुडा होता है। पर्व दो तरह के होते हैं लौकिक और आध्यात्मिक। रक्षा बंधन, होली, दीपावली, दशहरा आदि लौकिक पर्व हैं। जबकि आध्यात्मिक पर्व अपने अंतरंग में तप, त्याग और साधना का संदेश देते हैं। जैन संस्कृति में जितने भी पर्व व त्योहारों मनाये जाते हैं लगभग सभी में तप एवं साधना का विशेष महत्व है। जैन धर्म के अनुयायियों के लिए पर्युषण पर्व विशेष महत्व रखता है। पर्युषण महापर्व मात्र जैनों का पर्व नहीं है, यह एक सार्वभौम पर्व है। पूरे विश्व के लिए यह एक उत्तम और उत्कृष्ट पर्व है, क्योंकि इसमें आत्मा की उपासना की जाती है। संपूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का सद्प्रयास करता है। यह न तो दिया जलाने का पर्व है, न ही यह रंग उड़ाने का पर्व है और न ही मिठाइयां बाँटने का पर्व है। यह अपनी आत्मा को सजाने का पर्व है। जैन धर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में पर्युषण पर्व का अपना अपूर्व एवं विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है। यह एकमात्र आत्मशुद्धि का प्रेरक पर्व है इसीलिए यह पर्व ही नहीं, महापर्व है। जैन लोगों का सर्वमान्य विशिष्टतम पर्व है। पर्युषण पर्व - जप, तप, साधना, आराधना, उपासना, अनुप्रेक्षा आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठानों का अवसर है। इन दिनों जैन श्वेतांबर मतावलंबी पर्युषण पर्व के रूप में आठ दिनों तक ध्यान, स्वाध्याय, जप, तप, सामायिक, उपवास, क्षमा आदि विविध प्रयोगों द्वारा आत्म-मंथन करते हैं। दिगंबर मतावलंबी दशलक्षण पर्व के रूप में दस दिनों तक इस उत्सव की आराधना करते है। इस पर्व के दौरान दस धर्मों - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन एवं उत्तम ब्रह्मचर्य को धारण किया जाता है। इन दस धर्मों के द्वारा अंतर्मुखी बनने का प्रयास करते हैं।
पर्युषण पर्व अंतरात्मा की आराधना का पर्व है, आत्मशोधन का पर्व है, निद्रा त्यागने का पर्व है। सचमुच में पर्युषण पर्व एक ऐसा सवेरा है, जो निद्रा से उठाकर जागृत अवस्था में ले जाता है। अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाता है। आत्मा के निरामय, ज्योतिर्मय स्वरूप को प्रकट करने में पर्युषण महापर्व अहं भूमिका निभाता रहता है। पर्युषण पर्व प्रतिक्रमण का प्रयोग है। पीछे मुड़कर स्वयं को देखने का ईमानदार प्रयत्न है। यह पर्व अहंकार और ममकार का विसर्जन करने का पर्व है। यह पर्व अहिंसा की आराधना का पर्व है। “संपिक्खए अप्पगमप्पएणं” अर्थात आत्मा से आत्मा को देखो। उद्घोष इस बात का सूचक है कि आत्मा में बहुत सार है, उसे देखो और किसी माध्यम से नहीं, केवल आत्मा के माध्यम से देखो। पर्युषण का अर्थ है - आत्मा में अवस्थित होना। पर्व का केंद्रीय तत्व ही है - आत्मा। 'पर्युषण' पर्व का शाब्दिक अर्थ है- आत्मा में अवस्थित होना। पर्युषण का अर्थ है –‘परि‘ यानी चारों ओर से, ‘ उषण ‘ यानी धर्म की आराधना। अपने चारों ओर फैले बाहर के विषय – विकारों से मन को हटा कर अपने घर में आध्यात्मिक भावों में लीन हो जाना। पर्युषण का एक अर्थ है - कर्मों का नाश करना। कर्मरूपी शत्रुओं का नाश होगा तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी अतः यह पर्युषण पर्व आत्मा का आत्मा में निवास करने की प्रेरणा देता है। पर्युषण महापर्व आध्यात्मिक पर्व है, इसका जो केंद्रीय तत्व है, वह है - आत्मा। आत्मा के निरामय, ज्योतिर्मय स्वरूप को प्रकट करने में पर्युषण महापर्व अहं भूमिका निभाता रहता है। अध्यात्म यानी आत्मा की सन्निकटता। यह पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को संशोधित करने का पर्व है, यह मन की खिड़कियों, रोशनदानों व दरवाज़ों को खोलने का पर्व है।
पर्युषण महापर्व कषाय शमन का पर्व है। यह पर्व 8 दिनों तक मनाया जाता है जिसमें किसी के भीतर में ताप, उत्ताप पैदा हो गया हो, किसी के प्रति द्वेष की भावना पैदा हो गई हो तो यह उसको शांत करने का पर्व है। धर्म के 10 द्वार बताए हैं उसमें पहला द्वार है - क्षमा। क्षमा यानी समता। क्षमा जीवन के लिए बहुत जरूरी है। जब तक जीवन में क्षमा नहीं, तब तक व्यक्ति अध्यात्म के पथ पर नहीं बढ़ सकता। जैन धर्म में सबसे उत्तम पर्व है पर्युषण। यह सभी पर्वों का राजा है। इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहा गया है, जिसमें तप कर कर्मों की निर्जरा कर अपनी काया को निर्मल बनाया जा सकता है। पर्युषण पर्व को आध्यात्मिक दीवाली की भी संज्ञा दी गई है। जिस तरह दीवाली पर व्यापारी अपने संपूर्ण वर्ष का आय-व्यय का पूरा हिसाब करते हैं, गृहस्थ अपने घरों की साफ-सफाई करते हैं, ठीक उसी तरह पर्युषण पर्व के आने पर जैन धर्म को मानने वाले लोग अपने वर्ष भर के पुण्य पाप का पूरा हिसाब करते हैं। वे अपनी आत्मा पर लगे कर्म रूपी मैल की साफ-सफाई करते हैं। पर्युषण आत्म जागरण का संदेश देता है और हमारी सोई हुई आत्मा को जगाता है। यह आत्मा द्वारा आत्मा को पहचानने की शक्ति देता है। इस दौरान व्यक्ति की संपूर्ण शक्तियां जग जाती हैं। श्रावक - श्राविकाएं अपना धार्मिक दायित्व समझकर अध्यात्म की ओर प्रयाण करते हैं।
अपने चारों ओर फैले बाहर के विषय – विकारों से मन को हटा कर अपने घर में आध्यात्मिक भावों में लीन हो जाना। यदि हम हर घड़ी हर समय अपनी आत्मा का शोधन नहीं कर सकते तो कम से कम पर्युषण के इन आठ दिनों में तो अवश्य ही करें। आठ कर्मों के निवारण के लिए साधना के ये आठ दिन जैन परंपरा में सबसे महत्वपूर्ण बन गए। सारांश में हम यह कह सकते हैं कि इन आठ दिनों में धर्म ही जीवन का रूप ले लेता है। धर्म से समाज में सहयोग और सामाजिकता का समावेश होता है। बगैर इसके समाज का अस्तित्व संभव नहीं है। इसी से समाज, जाति और राष्ट्र में समरसता आती है और उसकी उन्नति होती है। इसी से मनुष्य का जीवन मूल्यवान बनता है। धर्म प्रधान व्यक्ति सभी को समान दृष्टि से देखता है। अमीर – गरीब, ऊंच – नीच सभी उसकी दृष्टि में बराबर हैं। धर्म प्रधान व्यक्ति न किसी से डरता है और न ही उससे कोई डरता है। धर्म तो जीवन की औषधि है। वह जब मनुष्य में आता है तो ईर्ष्या, मद, घृणा जैसे कई रोग व विकार स्वत : दूर हो जाते हैं। पर्युषण महापर्व धर्ममय जीवन जीने का संदेश देता है। संयम, सादगी, सहिष्णुता, अहिंसा, हृदय की पवित्रता से हर व्यक्ति अपने को जुडा हुआ पाता है और यही वे दिन हैं जब व्यक्ति घर और स्थानक, मंदिर दोनों में एक सा हो जाता है। इस त्योहार की प्रमुख बातें जैन धर्म के 5 सिद्धांतों पर निहित हैं। ये सिद्धांत इस प्रकार हैं - अहिंसा (किसी को कष्ट न पहुंचाना), सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (जरूरत से ज्यादा धन संचय न करना)।
इन दिनों साधु-साध्वियां अंतगढ़ दशा सूत्र - जिसमे 90 भव्य आत्माओं का वर्णन जिन्होंने अपनी साधना से आत्मा को शिखर तक पहुँचाते हुए केवल ज्ञान और निर्वाण प्राप्त किया, सद्गति में विराजमान उन महान विभूतियों का शास्त्र के वाचना के माध्यम से स्मरण कर बोधि को प्राप्त करना है। इस अंतगढ़ दशा सूत्र के आठ वर्ग और 90 अध्याय हैं। इसे पर्यूषण के आठ दिनों में ही वाचना और सुनाया जाता है। और कल्पसूत्र - जो महावीर के जीवन, उनके जन्म के पहले उनकी मां के 14 स्वप्न, उनके जन्म की कथा, जीवन और मोक्ष के विषय मे बताने वाला ग्रंथ है की वाचना करते हैं। इसी तरह गृहस्थों (श्रावकों) के लिए भी कुछ विशेष कर्तव्य बताए गए हैं। इन दिनों प्रत्येक श्रावक - श्राविका को श्रावक के बारह व्रतों का पालन करना चाहिए। इनमें मुख्य हैं - शास्त्रों का श्रवण, यथाशक्ति तप, अभय दान, सुपात्र दान, ब्रह्मचर्य का पालन, आरंभ स्मारक का त्याग, संघ की सेवा और क्षमा याचना। इन दिनों में रात्रि भोजन का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। खाने में द्रव्य संयम के साथ-साथ सचित्त एवं जमीकंद का पूर्णतः परित्याग करना चाहिए।
इसके अलावा आलस्य तथा प्रमाद का परित्याग करके धर्म आराधना और उपासना के लिए तत्पर बने रहना ही पर्युषण पर्व का मुख्य संदेश है। पर्युषण की आराधना के इन दिनों में व्यक्ति अपने आपको शोधन एवं आत्मचिंतन के द्वारा वर्ष भर के क्रिया-कलापों का प्रतिक्रमण प्रति लेखन करता है। पर्युषण महापर्व का समापन मैत्री दिवस के रूप में आयोजित होता है, जिसे क्षमापना दिवस भी कहा जाता है। श्वेतांबरों के लिये पर्युषण का अंतिम दिन संवत्सरी प्रतिक्रमण - वार्षिक पाप स्वीकृति- का दिन होता है। पर्युषण एक क्षमा पर्व भी है। यह हमें क्षमा मांगने और क्षमा करने की सीख देता है। क्षमा मांगना साहस भरा काम है, न कि दुर्बलता का। क्षमा करना वीरता का काम है। भगवान महावीर ने क्षमा यानी समता का जीवन जीया। वे चाहे कैसी भी परिस्थिति आई हो, सभी परिस्थितियों में सम रहे। क्रोध विभाव है, और क्षमा स्वभाव है। स्वभाव रमणता ही आत्मा का सच्चा चारित्र है। इसलिए सम्यक्चारित्र की आराधना क्षमा भाव से - क्षमापना कर्तव्य का पालन करने से ही हो सकती है। ‘ क्षमा वीरों का भूषण है ’ - महान व्यक्ति ही क्षमा ले व दे सकते हैं। पर्युषण पर्व आदान-प्रदान का पर्व है। इस दिन सभी अपनी मन की उलझी हुई ग्रंथियों को सुलझाते हैं, अपने भीतर की राग-द्वेष की गांठों को खोलते हैं। एक दूसरे से क्षमा का आदान-प्रदान करते हैं, जिससे मनोमालिन्य दूर होता है और सहजता, सरलता, कोमलता, सहिष्णुता के भाव विकसित होते हैं। परोक्ष रूप से वे यह संकल्प करते हैं कि वे पर्यावरण में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। मन, वचन और काया से जानते या अजानते वे किसी भी हिंसा की गतिविधि में भाग न तो स्वयं लेंगे, न दूसरों को लेने को कहेंगे और न लेने वालों का अनुमोदन करेंगे। यह आश्वासन देने के लिए कि उनका किसी से कोई बैर नहीं है, वे यह भी घोषित करते हैं कि उन्होंने विश्व के समस्त जीवों को क्षमा कर दिया है और उन जीवों को क्षमा माँगने वाले से डरने की जरूरत नहीं है।
खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्तिमे सव्व भुएस् वैरं ममझं न केणई।
- अर्थात सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ मेरा बैर नहीं है। यह वाक्य परंपरागत जरूर है, मगर विशेष आशय रखता है। इसके अनुसार क्षमा मांगने से ज्यादा जरूरी क्षमा करना है।
जैन धर्म की परंपरा के अनुसार पर्युषण पर्व के अंतिम दिन पर सभी एक-दूसरे से 'मिच्छामी दुक्कड़म्' कहकर क्षमा मांगते हैं, साथ ही यह भी कहा जाता है कि मैंने मन, वचन, काया से जाने-अनजाने आपका दिल दुखाया हो तो मैं हाथ जोड़कर आपसे क्षमा मांगता हूं।जैन धर्म के अनुसार 'मिच्छामी' का भाव क्षमा करने और 'दुक्कड़म्' का अर्थ गलतियों से है अर्थात मेरे द्वारा जाने-अनजाने में की गईं गलतियों के लिए मुझे क्षमा कीजिए। क्षमा देने से आप अन्य समस्त जीवों को अभय दान देते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प लेते हैं। तब आप संयम और विवेक का अनुसरण करेंगे, आत्मिक शांति अनुभव करेंगे और सभी जीवों और पदार्थों के प्रति मैत्री भाव रखेंगे। आत्मा तभी शुद्ध रह सकती है जब वह अपने सेबाहर हस्तक्षेप न करे और बाहरी तत्व से विचलित न हो। क्षमा-भाव इसका मूल मंत्र है। संपूर्ण दुनिया में पर्युषण ही ऐसा पर्व है जो हाथ मिलाने और गले लगने का नहीं, पैरों में झुककर माफी माँगने की प्रेरणा देता है। पूर्व में हुई भूलों को क्षमा द्वारा समाप्त करते हैं व जीवन को पवित्र बनाते हैं। पर्युषण का यह पक्ष हमारे सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को नया जीवन देता है। जरूरी नहीं है कि आप जैन हों, जरूरी नहीं है कि आप किसी संप्रदाय विशेष में दीक्षा लें, जरूरी ये है कि आप हर धर्म में स्वीकृत क्षमा के महत्व को समझें और उससे लाभ उठाएं।
पर्युषण आत्मा में रमण का पर्व है, आत्मशोधन व आत्मोत्थान का पर्व है। यह पर्व अहंकार और ममकार का विसर्जन करने का पर्व है। यह पर्व अहिंसा की आराधना का पर्व है। आज पूरे विश्व को सबसे ज्यादा जरूरत है अहिंसा की, मैत्री की। यह पर्व अहिंसा और मैत्री का पर्व है। अहिंसा और मैत्री के द्वारा ही शांति मिल सकती है। आज जो हिंसा, आतंक, आपसी-द्वेष जैसी ज्वलंत समस्याएं न केवल देश के लिए बल्कि दुनिया के लिए चिंता का बडा कारण बनी हुई है और सभी कोई इन समस्याओं का समाधान चाहते हैं। उन लोगों के लिए पर्युषण पर्व एक प्रेरणा है, पाथेय है, मार्गदर्शन है और अहिंसक जीवन शैली का प्रयोग है। आज भौतिकता की चकाचौंध में, भागती जिंदगी की अंधी दौड में इस पर्व की प्रासंगिकता बनाये रखना ज्यादा जरूरी है। यह पर्व जीवन के सत्य से मनुष्य की पहचान कराता हैं। उसे अपने जीवन का दर्पण दिखाता हैं, उसे सत्य स्वीकारने की शक्ति देता हैं। संपूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है वह अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का सद्प्रयास करता है। जरूरी है प्रमादरूपी नींद को हटाकर इन आठ दिनों में विशेष तप, जप, ध्यान, स्वाध्याय की आराधना करते हुए अपने आपको सुवासित करते हुए अंर्तआत्मा में लीन हो जाए जिससे हमारा जीवन सार्थक व सफल हो पाएगा।
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