कोविद 19 के संक्रमण काल में अर्थात कोरोना संकट के दौरान सम्पूर्ण देश के गाँवों की भांति झारखण्ड के गाँव की ओर लौटने वाले युवाओं व श्रमिकों की संख्या बढ़ी है। जहां पूर्व में गाँव वीरान और सिर्फ बुजुर्गों का गाँव दिखाई देता था, वहीँ अब युवाओं के गाँव लौटने के कारण गाँवों में इन दिनों भरा -पूरा माहौल और खुशनुमा वातावरण दिखाई देने लगा है। बेरोजगारी के परिणामस्वरूप उपजी पलायन के कारण दुर्दिन का दंश झेल रहे गाँव में अपने लोगों की यह हरियाली कब तक नयनाभिराम होती रहेगी, यह प्रश्न झारखण्ड की सरकार, गाँव- समाज और नगरों से वापस लौटे युवाओं के समक्ष एक यक्ष प्रश्न की भांति मुंह बाएं खड़ा है? बहुत बड़ी संख्या में गाँवों की ओर वापस लौटे युवाओं, प्रवासी श्रमिकों की ओर गाँव -समाज के सभी लोग आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं, वहीं दूसरी ओर युवा व प्रवासी मजदूर भी गाँव में ही स्थानीय तौर पर रोजगार के विकल्पों को तलाश रहे हैं । राज्य सरकार पर भी युवा व प्रवासी मजदूरों को गाँव में ही स्थानीय तौर पर रोजगार उपलब्ध कराने के लिए योजनायें बनाने का दबाव है । केंद्र सरकार की कई महत्वपूर्ण योजनाओं को जहाँ बेहतर ढंग से संचालित किये जाने पर राज्य सरकार का जोर है, वहीं राज्य में भी कई प्रकार की योजनायें संचालित किये जाने की चर्चा है, जिसमें युवाओं को स्वरोजगार आरम्भ करने के लिए आसान ऋण उपलब्ध करवाए जा सकने का प्रावधान है । किसानों को पांच हजार रूपये प्रति एकड़ दी जाने वाली राज्य की महत्वाकांक्षी मुख्यमंत्री कृषि आशीर्वाद योजना को तो राज्य सरकार ने भले ही रोक दिया हो, लेकिन प्रधानमन्त्री कृषि सम्मान योजना के लाभ से वंचित शेष कृषकों के खाते में इस योजना की राशि शीघ्र भेज दिए जाने का फरमान राज्य सरकार द्वारा जारी किया गया है । ग्रामीण अकुशल श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए जहाँ केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी योजना महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को बेहतर ढंग से संचालन के लिए प्रशासनिक दबाव है, वहीं राज्य सरकार के द्वारा शहरी क्षेत्र के अकुशल मजदूरों के लिए मुख्यमंत्री शहरी रोजगार गारंटी योजना आरम्भ की गई है । झारखण्ड के शहरी अकुशल श्रमिकों को राज्य सरकार के द्वारा सौ दिन रोजगार की गारंटी का लाभ देने के लिए मनरेगा की तरह ही प्रारम्भ की गई मुख्यमंत्री शहरी रोजगार गारंटी योजना में श्रमिकों को काम नहीं मिलने पर पन्द्रह दिनों में बेरोजगारी भत्ता का प्रावधान किया गया है। राज्य सरकार कोरोना काल में वापस लौटे शहरी प्रवासी मजदूरों को ग्रामीण क्षेत्रों की भांति ही इस योजना के तहत सौ दिन के रोजगार की गारंटी देगी । इसके लिए व्यापक तैयारी कई जा रही है । इसमें कोई शक नहीं कि राज्य के विभिन्न जिलों के गाँवों में सरकारी व निजी तरीके से लाखों लोग वापस लौटे हैं, वहीं विचित्र बात यह है कि प्रवासी मजूदरों की संख्या को लेकर केंद्र और राज्य के आंकड़े अलग-अलग आते रहे हैं, इस कारण झारखण्ड में लौटे प्रवासी मजदूरों की निश्चित संख्या नहीं बताई जा सकती है। ऐसे में झारखण्ड आने वाले प्रवासियों के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। राज्य सरकार ने अभी तक करीब दस लाख प्रवासियों के आंकड़े की बात कही है। जबकि केंद्र सरकार की ओर से झारखण्ड लौटने वाले प्रवासियों की संख्या 26.20 लाख है। प्रवासियों को दिए जाने वाले मुफ्त अनाज के लिए इनकी संख्या 26.20 लाख बतायी गई है। शुरुआत में इन प्रवासियों के लिए केंद्र ने 13150 मैट्रिक टन अनाज देने का आदेश दिया था। अर्थात प्रत्येक प्रवासी के हिस्से पांच किलो अनाज दिया जाने का प्रावधान किया गया था, जो कुल मिलाकर 26.20 लाख प्रवासी की संख्या आती है। केंद्र ने नवम्बर माह तक के लिए अनाज एफसीआई के द्वारा राज्य को दिया है।
उल्लेखनीय है कि विभिन्न आंकड़ों के अनुसार शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में सर्वाधिक पलायन वाले राज्यों में झारखण्ड सबसे ऊपर है। गाँव घर से इतनी बड़ी संख्या में पलायन होने पर चुभने वाला सूनापन देखने वाली आँखें अचानक से इतनी रौनक अपने आस- पास देख रही हैं। जिसके कारण उनकी आखों में उम्मीद के दीपक जलना स्वाभाविक है। फिर भी लाखों की संख्या में गाँव लौटे लोगों पर उम्मीदों का बोझ डालने से पूर्व उनके पलायन के कारणों को भी जानना- समझना जरूरी होगा। रोजगार का अभाव, शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, बिजली, पानी, सिंचाई के साधनों और सड़क जैसे बुनियादी ढांचों का अभाव इस राज्य से पलायन का सबसे बड़ा कारण रहा है। ऐसे में महानगरों से लौटे इन लोगों को उम्मीदों और आकांक्षाओं का वाहक समझने से पहले उनकी मनःस्थिति को समझना आवश्यक है। जिन परिस्थितियों में राज्य से यहां का युवा व मजदूर पलायन करने के लिये प्रेरित हुआ है, उन स्थितियों में आज भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। मजबूरियों ने उसको घर से बाहर शहरों की ओर धकेला था तो कुछ खास मजबूरियां उसे वापस लौटने के लिये बनी हैं। यह वापसी स्वेच्छा से नहीं हुई है बल्कि कोरोना संकट के कारण खास तरह की परिस्थितियों ने इन लोगों को अपने गांव की ओर लौटने को विवश किया है।
कोरोना काल में वापस लौटे युवाओं ने भी अपनी मिट्टी को छोड़ने के पीछे एक अदद रोजगार को ही मुख्य कारण माना है ताकि घर की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा किया जा सके। कुछ युवाओं को शहरी जीवन की चाक-चौबन्ध भी रास आ रहा है तो कुछ यहीं गाँव में रूककर आजीविका के विकल्पों पर सोच रहे हैं। गाँव में रूकने का मन बना रहे युवा अब गाँव की स्थितियों, व्यवहार और जनजीवन को समझने की कोशिश भी कर रहे हैं। गाँव या स्थानीय स्तर पर आजीविका के लिए अधिकांश युवा सरकार व समाज से सहयोग की भी अपेक्षा कर रहे हैं। इन युवाओं ने बात-चीत में स्वीकार किया कि जितनी आमदनी वह शहर में करते थे, उतनी गाँव में होनी सम्भव नहीं हो पाएगी, फिर भी शहर से कम आमदनी परन्तु जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने लायक आय की अपेक्षा अवश्य है, अन्यथा जीवन गुजारना असम्भव है। शहरों से लौटे कई युवाओं ने यह भी स्वीकार किया कि अगर अपेक्षित रोजगार और आय यहां पर नहीं मिल पाया तो वे दुबारा शहरों को पलायन करने के लिये मजबूर होंगे।
उल्लेखनीय है कि लौटे अनेक युवा व मजदूर अपने विभिन्न कार्यों में कुशल हैं, बहुतेरे किसी न किसी क्षेत्र में दक्ष हैं। अतः यह चुनौतियों को एक बड़े अवसर में बदलने का एक उचित अवसर है, समय है । शहरों से लौटे युवाओं को स्थानीय गाँव-समाज व सरकार अत्यधिक उम्मीदें हैं और विविध विकल्पों को अभी तैयार किया जाना है। हम सभी के पास बहुत ज्यादा समय नहीं है, जब हम राज्य के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए पहल कर सकते हैं। हमारे पास महानगरादि से लौटे एक बड़ी संख्या में दक्ष लोगों का क्रियाशील समूह है। इस समूह की कुशलता का खाका अर्थात डाटाबेस तैयार करके ग्राम पंचायत और प्रखंड स्तर अर्थात विकास खण्ड स्तर पर रोजगार के लिए नियोजन करके इन युवाओं के लिये आजीविका का विकल्प तैयार करना होगा। इस कार्य में पंचायतों और ग्राम स्तरीय संगठनों की अहम् भूमिका हो सकती है। पंचायतें अपने स्थानीय स्तर से युवाओं की दक्षता व कुशलता को सूचीबद्ध करके उनके स्वरोजगार और आजीविका के विकल्पों को संकलित करने का कार्य वास्तविकता के साथ कर सकती हैं। स्थानीय स्तर पर आजीविका के विकल्पों को तैयार करने में पंचायतें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। युवाओं के द्वारा खेती -किसानी के कार्य को सुलभ परन्तु चुनौतीपूर्ण विकल्प के रूप में आजीविका के लिये सर्वथा उपयुक्त विकल्प माना गया है। खेती और उससे जुड़े आजीविका के विकल्पों को आजीविका बनाने में पंचायतें बेहतर भूमिका निभा सकती हैं। अभी बहुत उम्मीदें पालना और बड़ी अपेक्षा रखना जल्दबाजी होगी परन्तु कहीं से शुरूआत तो करनी ही पड़ेगी।
दुखद स्थिति यह भी है कि प्रकृति के विराट स्वरूप को समेटे नदी- नालों, पहाड़ -पर्वत, जंगलादि से घिरे और अनेक धार्मिक- आध्यात्मिक स्थलों को समेटे पर्यटन का प्रमुख केंद्र होने के बावजूद झारखण्ड अपने ही युवाओं को एक बेहतर और स्थायी रोज़गार देने में नाकाम रहा है। देश के कई राज्यों ने जहां अपने पर्यटन और पर्यटकों से होने वाली आय को युवाओं के रोज़गार में परिवर्तित किया है, वहीं अपने गठन के बीस वर्ष बाद भी झारखण्ड ऐसी कोई ठोस पर्यटन नीति भी बनाने में असफल रहा है। ऐसे में युवा शक्ति का पलायन होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन कोरोना संकट काल राज्य के लिए इस मोर्चे पर वरदान साबित हो सकता है। युवा पुनः अपनी मिट्टी की तरफ लौट आये हैं। आवश्यकता है रोज़गार सृजन की एक ठोस नीति बना कर उसे धरातल पर क्रियान्वित करने की, ताकि दिल्ली, मुंबई, सूरत और चंडीगढ़ जैसे शहरों की आर्थिक स्थिति को मज़बूत बनाने वाले झारखण्ड के युवा अपनी शक्ति और सामर्थ्य से अपने राज्य के सर्वांगीण विकास में योगदान दे सकें। वास्तव में कोरोना संकट में लौटे इन युवाओं व प्रवासी मजदूरों के समक्ष ही नहीं वरण सरकार और समाज के सामने भी चुनौती को अवसर में बदलने की चुनौती है।
अशोक “प्रवृद्ध”
करमटोली , गुमला नगर पञ्चायत ,गुमला
पत्रालय व जिला – गुमला (झारखण्ड)
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