पटना. प्रशांत भूषण मामले में सुप्रीम कोर्ट के अन्यायपूर्ण फैसले का विरोध और कोर्ट की अवमानना का कानून खत्म करने की मांग होने लगी है.प्रशांत भूषण के खिलाफ कोर्ट की अवमानना का मामला दायर कर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा उन्हें दोषी करार दिए जाने के अन्याय पूर्ण फैसले का हम प्रबल विरोध करते हैं. लोकतान्त्रिक जन पहल, बिहार से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता कंचन बाला, सुधा वर्गीज, लीमा रोज, डोरोथी, अफ़ज़ल हुसैन, जोस के, फ्लोरिन, शुभमूर्तिजी , शैलेन्द्र प्रताप एडवोकेट, अशोक कुमार एडवोकेट, मणि लाल एडवोकेट, अनुपम प्रियदर्शी, तबस्सुम अली, सुनीता कुमारी सिन्हा, अशर्फी सदा, रंजीव,विनोद रंजन, अभिवनव आलोक एडवोकेट, प्रवीण कुमार मधु, सरफराज, शम्स खान, अशोक वर्मा (अरवल), अजीत कुमार वर्मा (जहानाबाद), मिथिलेश कुमार दीपक(औरंगाबाद), शशिभूषण (आरा), कृष्ण मुरारी, मनहर कृष्ण अतुल और सत्य नारायण मदन ( संयोजक) ने जमकर विरोध करने लगे हैं. ये लोग कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चार वरिष्ठ जजों के द्वारा किए गए एेतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस की याद ताजा कर दी जिसमें उन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के अंदर की कार्यशैली में ऐसे तत्व हावी हो रहे हैं जिस पर समय रहते रोक नहीं लगाया गया तो देश के लोकतंत्र पर खतरा पैदा हो जायेगा. इन जजों ने सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं के द्वारा नापाक हस्तक्षेप की ओर भी इशारा किया था.पटना हाईकोर्ट के भी एक वरिष्ठ जज ने अगस्त 2019 में न्यायपालिका के अंदर पल रहे भ्रष्टाचार को उजागर करते हुए जांच के आदेश दिए थे.हालांकि उनके आदेश को तत्काल जजों की बड़ी पीठ ने स्थगित कर दिया और माननीय जज साहब का स्थानान्तरण कर दिया गया. न्यायपालिका का संकट कितना गहरा है ,यह बात अब छुपी नहीं है.
प्रशांत भूषण के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने न केवल हमारे संवैधानिक व लोकतान्त्रिक मूल्यों को नज़रंदाज़ किया गया है बल्कि यह न्यायपालिका को भी न्याय की कसौटी पर कटघरे में खड़ा करता है. जहां तक न्यायायलय की अवमानना का सवाल है, तो सु्प्रीम कोर्ट को बताना चाहिए कि उक्त जजों के मामले में सुप्रीम कोर्ट चुप क्यों रहा? क्या यह कानून के समक्ष बराबरी के अधिकार का उल्लंघन नहीं है. लोकतंत्र में संप्रभुता आमलोगों (जनता) में निहित होती है.न्यायालय की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि कोर्ट किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। लोकतंत्र में न्यायालय जनता के प्रति जवाबदेह है.जनता के प्रति जवाबदेह होने का मतलब है संविधान के मूलभूत मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरना है.हमारा मानना है कि प्रशांत भूषण के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला गैरजबाबदेह है. अभी देश की परिस्थिति कोरोना संकट के चलते सामान्य नहीं है. सुप्रीम कोर्ट सहित सभी न्यायालयों में काम बंद है. केवल अतिआवश्यक व इमरजेंसी मामलों के लिए ऑनलाइन मोड में कोर्ट ने काम करना तय किया है. प्रशांत भूषण का मामला इस कैटेगरी में कैसे आ गया? यह अतिआवश्यक और अर्जेंट कैसे है, यह सुप्रीम कोर्ट को बताना चाहिए. दूसरी बात है कि फिजिकल सुनवाई और ऑनलाइन सुनवाई की प्रक्रिया में आसमान- जमीन का अंतर है.इस समय संक्षिप्त प्रक्रिया चलती है. जाहिर है कि फिजिकल कोर्ट में आरोपित व्यक्ति को अपने बचाव का जो अवसर मिलता है, उससे प्रशांत भूषण को वंचित रखा गया. क्या यह अपने बचाव के लिए समुचित अवसर दिए जाने के उनके अधिकार का उल्लंघन नहीं है.
हमारे देश की न्याय व्यवस्था में सूप्रीम कोर्ट सर्वोच्च संस्था है. इसके फैसले को चुनौती अन्य कहीं नहीं दी जा सकती है.ऐसी स्थिति में जजों का दायित्व बहुत बढ़ जाता है. आज की परिस्थिति में जब सत्ताधारी मोदी सरकार के द्वारा अघोषित आपातकाल का आतंक जारी है. मतभेद के हर मामलों को हिंन्दु- मुस्लिम के आवेगों का रंग देने और विरोधियों को देशद्रोही करार देने का षड्यंत्र जारी है , न्यायपालिका के बारे में यह मानना कि वह सामाजिक - राजनीतिक प्रभावों से मुक्त है, सही नहीं है. हाल के सुप्रीम कोर्ट व अन्य कोर्टों के कुछ फैसलों से साफ जाहिर होता है कि न्यायालय आमलोगों के नागरिक स्वतंत्रता व न्याय के पक्ष में न खड़ा होकर राज्य व सरकार के साथ खड़ा है. इसलिए आमनागरिकों खास कर सजग नागरिकों का दायित्व है कि वे कोर्ट के फैसले का निडर होकर रिभियू करें, जहां ग़लत लगे उसका जमकर विरोध करें. प्रशांत भूषण नागरिक स्वतंत्रता और गरीबों के हकों के लिए न्यायिक संघर्ष करने वाले अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वकील हैं.उनके विचारों से किसी को मतभेद हो सकता है लेकिन यह कहना कि उन्होंने न्यायपालिका को नींचा दिखाने की कोशिश की है, सरासर निराधार व नाइंसाफी है. हमारे देश के न्यायपालिका में औपनिवेशिक संस्कृति और सामाजिक भेदभाव अब भी हावी है. न्यायिक फैसले के मामले में ज्यादातर लोगों की धारणा है कि उसपर सवाल उठाना सही नहीं है. जब भी कोर्ट के मामले में पारदर्शिता का मुद्दा उठा है, न्यायालय का रवैया अधिकतर मामलों में सकारात्मक नहीं रहा है.न्यायालय को लेकर आमलोगों में विरोधाभासी मानसिकता व्याप्त है. सार्वजनिक तौर पर हम आलोचना से बचते हैं क्योंकि एक प्रकार का भय व्याप्त रहता है. लेकिन निजी स्तर पर हम ऐसे जजों के पक्ष में होते हैं जो न्यायालय की खामियों को उजागर करते हैं.
हमारा मानना है कि अवमानना कानूनों का लोकतंत्र में कोई औचित्य नहीं है. यह कानून शासक वर्गों के औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाता है. कोर्ट की अवमानना का कानून 1971, मूलतः जनविरोधी और असंवैधानिक कानून है. यह न्यायपालिका को जनता के प्रति गैरजबाबदेह बनाती है. हमारी मांग है कि इसे शीघ्र खत्म किया जाए. अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कोर्ट की गरिमा, राष्ट्र के सम्मान की रक्षा करने, न्यायपालिका के प्रति लोगों के विश्वास को कायम रखने और लोकतंत्र को अस्थिर न होने देने की बात कही है.लोकतंत्र में न्यायालय आलोचना व विरोध के परे नहीं हो सकता.इसे पवित्र संस्था मानना या बनाने की कोशिश करना जनहित के खिलाफ है.न्यायालय के गरिमा की रक्षा न्याय की कसौटी पर खरा उतरने वाले उसके फ़ैसलों और जजों के मर्यादित व्यवहार तथा गरीबों की न्याय तक पहुंच बनाने से होगी न कि जनविरोधी अवमानना कानून की आड़ में नागरिकों के लोकतान्त्रिक अधिकारों को दबाने से. अंत में एक बात और ईसा से लेकर गांधी , भगत सिंह, असफाकउल्लाह खां, पीर अली ,मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला तक आजादी और मानवीय मूल्यों तथा वैज्ञानिक खोजों के लिए आवाज उठाने वाले क्रांतिकारियों, मनीषियों और वैज्ञानिकों को व्यवस्था ने दंडित किया है, लेकिन दंड देने वालों को समय और इतिहास ने गलत साबित किया है, उससे सीख लेने की जरुरत है.
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