व्यक्ति, समाज, प्रांत और राष्ट्र के विकास के लिए आत्मनिर्भरता आवश्यक तत्व है। जो व्यक्ति आत्मनिर्भर नहीं होता,वह कभी ठोस निर्णय नहीं ले सकता। निर्णय लेने के लिए उसे दूसरों का मुखापेक्षी होना पड़ता है। जो दूसरों पर आश्रित होता है, वह हमेशा डरा रहता है। आसरे की लाठी कब टूट जाए या हट जाए, कहा नहीं जा सकता। हर व्यक्ति की समस्या अपनी होती है और अपनी समस्या का समाधान भी खुद ढूंढ़ना पड़ता है। आत्मनिर्भरता ही मनोबल को मजबूत करती है। यह अच्छी बात है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार आत्मनिर्भर भारत को लेकर न केवल सोच रही है, वरन उस दिशा में कदम भी उठा रही है। इसी कड़ी में उसने भारत में तमाम चीनी उत्पादों पर रोक लगाए हैं।यह काम दरअसल आजादी के बाद से ही आरंभ हो जाना चाहिए था लेकिन जब जागे तभी सबेरा। बहुत गाफिल रह लिए, अब गाफिल रहने की जरूरत नहीं है। रक्षा मंत्रालय ने भी 101 वस्तुओं के 2025 तक आयात न करने की घोषणा की है। आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत इन वस्तुओं के भारत में ही उत्पादन की बात कही है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने घोषणा की है कि रक्षा मंत्रालय अब रक्षा उत्पादन के स्वदेशीकरण को को तत्पर है और इस निमित्त वह 101 से ज़्यादा वस्तुओं पर आयात प्रतिबंध पेश करेगा। इन 101 वस्तुओं में उच्च तकनीक वाले हथियार सिस्टम भी शामिल हैं जैसे आर्टिलरी गन, असॉल्ट राइफलें, ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट, एलसीएचएस ,रडार और कई अन्य रक्षा उपकरण शामिल हैं। रक्षामंत्री ने कहा है कि उनके इस निर्णय से अगले 5—7 साल में घरेलू रक्षा उद्योग को चार लाख तक के ठेके मिल सकेंगे। उन्हें अनुमान है कि 2025 तक रक्षा विनिर्माण क्षेत्र में को 25 अरब डॉलर का कारोबार होगा। उनका मानना है कि इस फैसले से भारत के रक्षा उद्योग को बड़े पैमाने पर उत्पादन का अवसर मिलेगा। उन्होंने सभी स्टेकहोल्डर्स से विचार—विमर्श के बाद रक्षा उपकरणों के आयात पर रोक लगाने और आयात पर प्रतिबंध को 2020 से 2024 के बीच धीरे-धीरे लागू करने की बात कही है। आत्मनिर्भरता समय की मांग भी है लेकिन आत्मनिर्भरता तभी आती है जब लोग ईमानदारी से काम करें। भ्रष्टाचार न हो। उत्पादों की गुणवत्ता और समय बद्धता का ध्यान रखा जाए। आयुध निर्माणियों में लगने वाली आग और उसमें जल जाने वाले रक्षा उपकरणों से होने वाले नुकसान पर भी ध्यान रखा जाए। जब तक हम भारतीयों के जीवन में ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी का भाव नहीं जागेगा, जब तक हम अपने और अपने परिवार के लिए सोचते रहेंगे तब तक देश आत्मनिर्भर नहीं हो सकता। देश एक अरब 38 करोड़ लोगों का है और जब ये सारे लोग सोचेंगे कि हमें पढ़ना है, देश के लिए कुछ करना है तभी यह देश आगे बढ़ सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2014 में लाल किले की प्राचीर से कहा था कि सवा अरब का यह देश एक कदम भी आगे बढ़ेगा तो सवा अरब कदम आगे बढ़ जाएगा। यह उनके उत्साहबर्धन का, राष्ट्र के विकास के प्रति उनकी सोच का सकारात्मक पक्ष है लेकिन यथार्थ तो यही है कि जो जहां है, वहीं से तो एक कदम बढ़ेगा। मतलब यात्रा तो एक कदम की हुई लेकिन विकास की राह पर एक कदम बढ़ना भी खुशी की बात है।
राजनेताओं को किसी भी बात की घोष्णा करने से पहले उसके भूत,भविष्य और वर्तमान पर भी विचार करना चाहिए। अपने पूर्व प्रयासों की सफलता—विफलता पर भी विचार करना चाहिए और सुचिंतित कार्ययोजना बनाकर ही आगे बढ़ना चाहिए,अन्यथा हास्यास्पद स्थिति बनती है। राजनाथ सिंह को सोचना होगा कि 2013 में डिफ़ेंस प्रोक्योरमेंट प्रोसिड्यूर में जो बातें कही गई थीं, उससे इतर वे क्या कह रहे हैं। सच तो यह है कि भारत में आज जितने भी रक्षा उपकरण बन रहे हैं, उनमें से अनेक के कल—पुर्जे विदेशों से बन कर ही आते हैं। कई लाइसेंस आधारित उपकरण भारत में बन रहे हैं। लाइसेंस के आधार पर बनने का मतलब तो यही हुआ कि सैन्य उपकरण बनाने का लाइसेंस विदेशी कंपनी का है, और उस विदेशी कंपनी ने भारत के साथ करार किया है जिस वजह से भारत में हम यह उत्पाद बना पा रहे हैं। रक्षा मंत्रालय के नए फरमान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि लाइसेंस के आधार पर बनने वाले उपकरणों को भी आत्म-निर्भरता का हिस्सा माना जाएगा या नहीं। जब तक विदेशी कंपनियों का रक्षा सौदों में हस्तक्षेप रहेगा, तब तक रक्षा उपकरणों में आत्म निर्भरता कैसे आ पाएगी? उदाहरण के तौर पर लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ़्ट को लेते हैं। इसका इंजन और कई दूसरे पुर्जे विदेश से आयात होते हैं और इसके बाद वह भारत में बनता है। सवाल यह है कि क्या इसका इंजन भारत में बनने लगेगा? विकथ्य है कि लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ़्ट निर्माण की भारत में शुरुआत 1983 में हुई थी। 37 साल में उसका बेसिक मॉडल ही हम भारत में तैयार कर सके हैं, जो मार्क 1 है। मार्क 1 ए उसका फ़ाइटर मॉडल होगा, जिसका प्रोटो टाइप भी अभी तक, भारत में विकसित नहीं हुआ है। उसे बनने में चार से पांच साल और लगेंगे। रक्षा मंत्रालय ने जिन 101 चीज़ों पर आयात प्रतिबंध लगाया गया है, उनमें लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ़्ट भी हैं। अभी अगर इस एयरक्राफ़्ट को बनाने में 50 प्रतिशत सामान विदेश से लेते हैं, तो आने वाले दिनों में उसे और कम कर चीजों को भारत में बनाने की कोशिश होगी। इस एयरक्राफ़्ट में इंजन बाहर का है, हथियार बाहर के हैं। लाइट कॉम्बैट हेलिकॉप्टर का इंजन भी फ़्रांस से आता है और हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड में दूसरे पुर्जों के साथ उसे असेंबल किया जाता है। ऐसी ही बुलेट प्रूफ जैकेट की कहानी भी है। 1990 के दशक से भारत में इसे बनाने की कोशिश की गई। कानपुर में एक प्राइवेट कंपनी में यह बनाई जाती है, लेकिन इस जैकेट को बनाने में प्रयुक्त होने वाली 'कैवलार' आज तक विदेश से ही मंगवाई जा रही है। अभी भी इतनी संख्या में देश में बुलेट प्रूफ जैकेट नहीं बनतीं कि हम भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर कह सकें। भारत ने 1990 के दशक में एक स्वदेशी असॉल्ट राइफल बनाई थी, जिसे इंसास राइफ़ल कहते हैं।2010-2011 में सेना ने कहा था कि इसे चलाने में कई तरह की दिक़्क़तें आती हैं। तब से यानी 8-9 साल से नई राइफल को लेकर बात चल रही है।
उत्तर प्रदेश के अमेठी में रूस की साझेदारी से 2019 में असॉल्ट राइफल बनाने की फैक्ट्री लगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका उदघाटन किया था। यह भी लाइसेंस बेस्ड करार है, लेकिन अभी भी रूस के साथ समझौता पूरा पक्का नहीं हो पाया है जिस वजह से काम अटका पड़ा है। भारत में 2001 तक डिफेंस सेक्टर में सरकारी कंपनियां जैसे डीआरडीओ और आर्डिनेंस फैक्ट्री ही दबदबा था। 2001 के बाद सरकार ने निजी कंपनियों की भागीदारी को हरी झंडी दी लेकिन आज भी रक्षा सौदों में उनकी हिस्सेदारी 8-10 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकी। एलएंडटी, महिंद्रा, भारत फोर्ज जैसी कुछ एक प्राइवेट कंपनियां हैं, जो रक्षा क्षेत्र में आगे आ रही हैं। रक्षा क्षेत्र में बड़ी सरकारी कंपनियों में भी कुछ एक गिने—चुने नाम ही हैं, जैसे हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड, भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड, भारत डायनमिक्स, बीईएमएल। पिछले 20 साल में इस स्थिति में अधिक सुधार नहीं हुआ है। भारत की कंपनियां डिफेंस सेक्टर में निवेश से इसलिए भी कतराती हैं कि इसमें पूंजी लगाने पर रिटर्न मिलने में ज्यादा समय लगता है। इस क्षेत्र में छोटे बजट से शुरुआत मुमकिन नहीं है। भारत में इस सेक्टर में निवेश के बाद रिटर्न की गारंटी अब तक नहीं होती थी। इसका कारण यह भी है कि बाहर की कंपनी किसी भी समय पर हमसे बेहतर उपकरण बनाती थी। इसलिए हम प्रतिस्पर्धा में उनसे पीछे छूट जाते थे। विदेश में रक्षा क्षेत्र की जिन कंपनियों के नाम है, साख है, वे 70- 80 साल से इसी काम में लगी हैं। भारतीय कंपनियों को उनके मुकाबले अपनी साख बनानी होगी तभी आत्मनिर्भर भारत का सपना रक्षा क्षेत्र में सफल हो सकेगा। सरकार के नए फ़ैसले से निश्चित तौर पर निवेशकों को हौसला बुलंद होगा। केंद्र सरकार ने कहा है कि अगले पांच-सात सालों में तकरीबन 52 हज़ार करोड़ के रक्षा उपकरण भारतीय कंपनियों से ही खरीदे जाएंगे। इसलिए कंपनियां निवेश के लिए जरूर आगे आएंगी और निवेश करेंगी। भारत में कई वर्षों से कई रक्षा उपकरणों का लाइसेंस प्रोडक्शन हो रहा है, लेकिन इनका रिसर्च और डिज़ाइन भी भारत में हो, रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के लिए केंद्र सरकार को ये सुनिश्चित करना होगा,यही सबसे बड़ी चुनौती होगी। किसी भी चीज की अहमियत तभी होती है जब देश के बाहर उसके खरीदार हों। चाहने वाले हों। भारत जो भी रक्षा उपकरण बना पा रहा है, उसे कितना निर्यात कर पाता है, देखने वाली बात तो यह है।
भारत में तैयार अर्जुन टैंक को भारतीय सेना उसके वजन की वजह से नहीं लेना चाहती थी। लेकिन बाद में भारतीय सेना ने उसे अंगीकार किया। ऐसा ही 'तेजस' के साथ हुआ। भारतीय एयरफोर्स ने तेजस को अपने बेड़े में शामिल किया तो है, लेकिन उसे इसके एडवांस वर्जन का भी इंतजार है। तेजस बनने में कितना वक़्त लगा, यह बात किसी से छिपी नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि भारत बड़ी-बड़ी रक्षा कंपनियों के सप्लाई चेन का हिस्सा है। बोइंग कंपनी विदेशी है, लेकिन उसके कई पार्ट भारत में बनते हैं, जिन्हें भारत विदेशों में बेचता है। फिर उन देशों में उसकी एसेंबलिंग होती है। 2009-12 में भारत ने 8 'ध्रुव' हेलिकॉप्टर इक्वाडोर को बेचा था. चार उनमें से क्रैश हो गए और शेष चार उन्होंने वापस कर दिए। कॉन्ट्रैक्ट रद्द हो गया था। उसी तरह से इंसास राइफल के साथ हुआ, जो भारत ने नेपाल को दिया था। रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की बात सोच रहे भारत को इस दिशा में भी मंथन करना चाहिए। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले एक दशक में अकेले 2019 में रक्षा साजो-सामान पर सबसे ज्यादा खर्च किया गया है। भारत ने 2018 की तुलना में 6.8 फीसदी ज्यादा खर्च किया है। 71.1 बिलियन डॉलर खर्च कर भारत तीसरे स्थान पर रहा है जबकि 65.1 बिलियन डॉलर खर्च करके चौथे स्थान पर रूस रहा। चीन और भारत ने 2013 और 2019 के बीच अमेरिका, फ्रांस, रूस और इज्राएल से 100 अरब डॉलर (7.5 लाख करोड़ रुपए) से अधिक मूल्य के सैन्य साजो-सामान खरीदने के साथ दुनिया के दूसरे सबसे बड़े हथियार आयातक के रूप में अपना रुबा बनाए रखा है। भारत के सैन्य साजो-सामान का 60 प्रतिशत से अधिक आयात होता है। हर साल, सशस्त्र बल रक्षा हार्डवेयर आयात के लिए 10 अरब डॉलर से अधिक का भुगतान करते हैं। सरकार ने इसे बदलने का लक्ष्य रखा है। 41 आयुध कारखानों को कॉर्पोरेटाइज किया जा रहा है। रक्षा में घरेलू खरीद के लिए विशेष बजटीय प्रावधान किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में सुखद डील यह हुई है कि जो रक्षा एमएनसी भारत में निवेश करने या अभी तक तकनीक को साझा करने के लिए तैयार नहीं थीं क्योंकि उनके पास नियंत्रण की कमी थी। वे इसके लिए सहमत हो गई हैं क्योंकि एफडीआई सीमा बढ़ाने से उन्हें बड़ा नियंत्रण मिल सकता है। रक्षा बलों के लिए 12 हजार करोड़ रुपए से अधिक के हथियार, गोला-बारूद और कपड़े बनाने वाले 41 आयुध कारखानों का प्रस्तावित कॉर्पोरेटाइजेशन एक बड़ा कदम है। इसकी घोषणा पिछले अगस्त में की गई थी, लेकिन ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्ड की ट्रेड यूनियनों के अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले जाने के बाद इसे स्थगित कर दिया गया था। आत्मनिर्भर भारत की पहल अच्छी है लेकिन इसके लिए जिम्मेदार तंत्र को न केवल ईमानदार और जवाबदेह बनाना होगा बल्कि उन्हें हम राष्ट्र के लिए ऐसा कर रहे हैं, हमारे लिए राष्ट्र सर्वोपरि है, इस भाव से काम करना होगा। प्रधान मंत्री और रक्षा मंत्री को भी भारत के आत्मनिर्भरता अभियान की सतत मॉनिटरिंग करनी होगी। पूरे आत्म विश्वास के साथ भ्रष्टाचार के तत्व को जड़—मूल से उखाड़ फेंकना होगा तभी अभियान की सफलता सुनिश्चित हो सकेगी।
--सियाराम पांडेय 'शांत'--
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