पुस्तक का नाम - संस्कारों की पाठशाला
लेखक - डाॅ. प्रदीप कुमार शर्मा
विधा - बाल कहानी
प्रकाशक - नये पल्लव और यूथ एजेंडा, पटना
पृष्ठ - 112
मूल्य - 300 रुपए
समीक्षक - बलदाऊ राम साहू
बाल-साहित्य बच्चों के अन्तर्मन में चेतना जागृत करने का सशक्त माध्यम है। यह केवल मनोरंजन का साधन नहीं होता, बल्कि किसी न किसी रूप में बच्चों के भीतर छिपी संवेदनाओं को पोषित और स्थापित करता है। बाल साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से अनेक घटनाओं और प्रसंगों का सृजन करता है, ताकि बच्चों में मानवीय मूल्यों का विकास किया जा सके। वह प्रत्यक्ष रूप से यह नहीं कहता कि - ‘‘हमें झूठ नहीं बोलना चाहिए, आपस में मिलजुल कर रहना चाहिए, अपने भीतर करूणा, प्रेम, सहनशीलता, देशभक्ति आदि गुणों का विकास करना चाहिए, बल्कि रचनाकार अपनी कथा-कहानी या कविता के माध्यम से इन भावों को पिरोता चलता है।’’ भाई डाॅ. प्रदीप कुमार शर्मा ने अपनी कथा संग्रह ‘‘संस्कारों की पाठशाला’’ में ऐसा ही उदीम किया है।
संस्कारों की पाठशाला की कहानियाँ अपने आसपास में घटित घटनाओं का एक दस्तावेज है, इसीलिए इसमें संग्रहित कहानियां जीव-जंतु बच्चों, या सामाजिक गतिविधियों पर आधारित होते हुए भी पाठकों को अपने साथ जोड़े रखती हैं। इस कथा संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कोई भी ज्ञान या संस्कार थोपा हुआ नहीं जान पड़ता। बाल कथा में जो स्वाभाविकता होनी चाहिए, वह पूरी तरह दिखाई पड़ती है। कुछ कहानियां पुरानी पृष्ठभूमि की हैं, किंतु उन्हें नए संदर्भों में प्रस्तुत किया गया है और इस तरह वे पूर्णतः मौलिक हो गयी हैं। पहली ही कहानी कछुआ और खरगोश, एक जानी-पहचानी कहानी है। लेकिन डाॅ. प्रदीप कुमार शर्मा ने इसे एक नए संदर्भ में प्रस्तुत कर बच्चों के लिए उपयोगी बना दिया है।
कोई भी रचनाकार जब बच्चों के लिए लिखता है तो वह लेखन के उद्देश्य को समक्ष रखता है, ताकि बच्चों के जीवन में सार्थक बदलाव लाया जा सके। यूँ तो बाल कहानियों का मूल तत्व बच्चों का मनोरंजन और उनकी कल्पना शक्ति का विकास और उन्हें चिंतन के धरातल पर खड़ा करना है, ताकि उनमें नये विचारों का पोषण हो, वे तर्क व कल्पना शक्ति का विकास कर अपना मत दे सकें और निष्कर्ष तक पहुंच सकें।
डाॅ. प्रदीप कुमार शर्मा बाल-कथा के मूल उद्देश्यों को लेकर आगे बढ़ते हैं, और बाल मनोविज्ञान को समझ कर उसके अनुरूप दृश्य उपस्थित करने का प्रयास करते हैं। स्ट्रीट फूड कहानी आज के चलन को व्यक्त करती है। लोगों में बाहर खाने का चलन है। यह स्टेटस सिंबाॅल बन चुका है, लोग चाट-गुपचुप को देख कर अपने लोभ का संवरण नहीं कर पाते। इस छोटी सी घटना को लेकर बच्चों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, यह निर्णय लेने के लिए उन्हें छोड़ दिया गया है।
डाॅ. प्रदीप कुमार शर्मा की कहानी चंपक, चंदामामा, लोटपोट की कहानियों की तरह मजा देती हैं, कहीं पर वे पशु-पक्षियों के प्रति मानवीय संवेदनाओं को जागृत करने की बातें करते हैं, तो कभी समाज में व्याप्त अंधविश्वास को तोड़ने की बात करते हैं। वे बच्चों में अच्छी आदतों को प्रकाश में लाते हैं और बुरी आदतों की भर्तसना करते हैं। यह कहानी संग्रह अपने शीर्षक के साथ पूरा न्याय करता हुआ दिखता है। मेरा मानना है कि ‘‘संस्कारों की पाठशाला’’ वास्तव में बच्चों के चरित्र निर्माण के लिए उपयोगी साबित होगी और बाल साहित्य की दुनिया में अपना स्थान बनायेगी। मैं इस समीक्षा के बहाने डाॅ. प्रदीप कुमार शर्मा के प्रति अपनी शुभिच्छा व्यक्त करता हूँ।
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