बाज़ारों से बाग़ खिलाने की मुहीम का अहम् हिस्सा है- कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी। समाज के सामूहिक विकास का सारा जिम्मा, संसाधनों व् अन्य विकल्पों की कमी की वजह से सिर्फ सरकारों के कन्धों पर नहीं डाला जा सकता और इस कमी को पूरा करने के लिए सरकार से प्रदत्त वित्तीय और कानूनी सहायता के बदले, देश के सभी उद्योगों को भी अपनी लाभ का कुछ प्रतिशत हिस्सा सामाजिक उत्थान और गरीबों की मदद और उनके उन्नयन के लिए खर्च करना पड़ेगा। जो उद्योग मजदूरों और अन्य जरूरतमंद लोगों की सहायता से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित होते हैं, उनकी यह नैतिक और अब वैधानिक जिम्मेदारी बनती है। देश निर्माण में धनाढ़्य वर्गों की जिम्मेदारी ज्यादा सुनिश्चित की जाए क्योंकि कर, बिजली, विशेष आर्थिक क्षेत्र तथा और कई अन्य सुविधाएँ जिनका लाभ देश के अन्य करदातों के गाढ़ी कमाई से से दी जाती है, का सही और बेहतर इस्तेमाल हो सके।
“एक कंपनी को अपने डीएनए में, समुदाय के कल्याण के लिए काम करने की भावना होनी चाहिए। सीएसआर सामाजिक उत्तरदायित्व की व्यक्तिगत समझ का विस्तारहै। सीएसआर एक कंपनी की परियोजनाओं में सक्रिय भागीदारी का महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए। "- रतन टाटा
वर्षों से कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर), भारत के लिए तुलनात्मक रूप से एक नई अवधारणा है जो अब तेजी से रफ़्तार पकड़ रहा है।सीएसआर अब एक मौलिक व्यवसाय अभ्यास बन गया है जिसने बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के प्रबंधन का ध्यान विशिष्ट रूप से आकृष्ट किया है। यह सामाजिक मूल्यों के साथ व्यवसाय संचालन का संरेखण की भी सुविधा देता है। सीएसआर को समुदाय के सामाजिक-आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से विभिन्न पहलों के अभिसरण का एक मुख्य बिंदु माना जाता है।
अधिकांश परिभाषाएँ सीएसआर को एक अवधारणा के रूप में वर्णित करती हैं जिसके तहत कंपनियां के व्यवसाय संचालन के साथ सामाजिक और पर्यावरण संबंधी चिंताएं एकीकृत करती हैं (सीईसी: यूरोपीय कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व की रूपरेखा को बढ़ावा देने के लिए ग्रीन पेपर। ) वर्ल्ड बिजनेस काउंसिल फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट सीएसआर को व्यवसाय द्वारा नैतिक रूप से व्यवहार करने और आर्थिक विकास में योगदान करने के लिए प्रतिबद्धता जारी रखने हेतु कार्यबल और उनके परिवारों के साथ-साथ स्थानीय लोगों, समुदाय और समाज के जीवन स्तर में बड़े पैमाने पर सुधार के रूप में परिभाषित करता है। की सीएसआर की अवधारणा को भारतीय समाज में शुरू से ही माना जाता रहा है। गांधी जी की ट्रस्टीशिप का दर्शन आधुनिक दुनिया के सीएसआर के समान है; और टाटा और बिड़ला जैसी कंपनियाँ लंबे समय से पहले के अपने संचालन में सामाजिक भलाई के लिए इस उत्तरदायित्व का वहन कर रही हैं। कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व को कॉर्पोरेट लेक्सिकॉन में जगह मिलने से पहले ही बिड़ला समूह के मूल्य प्रणालियों यह मिल चुका था। 1940 के दशक की शुरुआत में, संस्थापक जीडी बिड़ला ने प्रबंधन की ट्रस्टीशिप अवधारणा की शुरुआत की। सीएसआरका अर्थ है कि समाज के बड़े भलाई के लिए, व्यवसाय से परे हमारे मुनाफे का हिस्सा निवेश करना। सीएसआर के इतिहास में एक अंतर्दृष्टि से पता चलता है कि 1990 के दशक तक यह पूरी तरह से लोकोपकार के विचार के अधीन था। सीएसआर को परोपकार के कार्य के रूप में देखते हुए, व्यवसायों ने अक्सर खुद को एक बार वित्तीय अनुदान तक ही सीमित कियाऔर ऐसी परियोजनाओं के लिए अपने संसाधनों को प्रतिबद्ध नहीं किया। इसके अलावा व्यवसायों ने इस तरह की पहल की योजना बनाते समय हितधारक को कभी भी ध्यान में नहीं रखा, जिससे सीएसआर पहल की प्रभावकारिता और दक्षता को कम महत्त्व प्राप्त हुआ। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों से सीएसआर की अवधारणा बदल रही है। कंपनियों द्वारा सीएसआर पर किए गए मामले के अध्ययन और कार्य के विवरण से स्पष्ट होता है कि सीएसआर धीरे-धीरे दान और निर्भरता से आगे बढ़ कर सशक्तिकरण और साझेदारी पर आधारित हो रहा है।
कंपनी अधिनियम, 2013 में अप्रैल 2014 में संशोधन के बाद, कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) को अनिवार्य बनाने वाला भारत दुनिया का पहला देश है।किसी भी सीएसआर अनुपालन का हिस्सा बनकर व्यवसायी शिक्षा, गरीबी, लिंग समानता, और भूख जैसे क्षेत्रों में अपने लाभ का निवेश कर सकते हैं। सीएसआर की अवधारणा को बढ़ावा देने में धर्म ने भी प्रमुख भूमिका निभाई। इस्लाम में ज़कात नामक एक कानून था, जो यह नियम करता था कि किसी की कमाई का एक हिस्सा गरीबों को दान के रूप में साझा किया जाना चाहिए। हिंदू धर्म से संबंधित व्यापारियों ने भिक्षा दी, गरीब वर्ग के लिए मंदिर और रैन बसेरे बनाए। हिंदुओं ने धर्मदा का अनुसरण किया जहां निर्माता या विक्रेता ने क्रेता से एक विशिष्ट राशि का शुल्क लिया, जिसका उपयोग दान के लिए किया जाता था। राशि को दान राशि या धर्मदा के नाम से जाना जाता था। उसी अंदाज में सिखों ने दशांत का अनुसरण किया। भारत में वर्तमान परिदृश्य में, दिसंबर 2012 में संशोधित नई कंपनियों ने कॉर्पोरेट को सीएसआर की ओर पिछले तीन वित्तीय वर्षों के अपने औसत शुद्ध लाभ का 2% खर्च करने का आदेश दिया है। यह 1000 करोड़ के सालाना टर्नओवर या 5 करोड़ / या नेट वर्थ 500 करोड़ के टर्नओवर वाली कंपनियों के लिए लागू है। नया विधेयक कंपनी अधिनियम 1956 की जगह लेता है और कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने पर जोर देता है।अब तक, यदि कोई कंपनी किसी दिए गए वर्ष में अपने सीएसआर फंड को पूरी तरह से खर्च करने में असमर्थ थी, तो वह उस वर्ष के लिए आवंटित धन के अलावा, राशि को आगे ले जा सकती है और अगले वित्तीय वर्ष में खर्च कर सकती है। अधिनियम के तहत शुरू किए गए सीएसआर संशोधनों में कंपनियों को वित्तीय वर्ष के अंत में अधिनियम की अनुसूची सातवीं के तहत निर्धारित कोष में अनिर्दिष्ट सीएसआर निधि जमा करने की आवश्यकता होती है। इस राशि का उपयोग हस्तांतरण की तारीख से तीन वर्षों के भीतर किया जाना चाहिए, यह विफल होने पर कि निधि को निर्दिष्ट धन में से किसी एक में जमा किया जाना चाहिए। नया कानून एक गैर-अनुपालन के मामले में एक मौद्रिक दंड के साथ-साथ कारावास के लिए निर्धारित करता है। जुर्माना भारतीय रुपए 50,000 (अमरीकी डॉलर 700) से लेकर भारतीय रुपए 2.5 मिलियन (अमरीकी डॉलर 35,000) तक है, जबकि कंपनी का डिफ़ॉल्ट अधिकारी तीन साल तक के कारावास या भारतीय रुपए 500,000 (अमरीकी डॉलर 72323) तक का जुर्माना या दोनों हो सकता है। सरकार, हालांकि, इन नियमों की समीक्षा कर रही है, क्योंकि उद्योग ने सख्त प्रावधानों पर आपत्ति जताई है, खासकर सीएसआर उल्लंघन के लिए जेल की शर्तों के संबंध में, और अभी तक उन्हें संचालित नहीं किया गया है। हालाँकि सीएसआर ने भारत में अपनी मौजूदगी प्रभावशाली ढंग से दर्ज करा ली है, लेकिन इसकी प्रभावशीलता को चुनौती देने वाले कई मुद्दे हैं। सीएसआर की अवधारणा की उचित समझ की कमी, प्रामाणिकता की अनुपलब्धता, प्रशिक्षण और अविकसित कर्मचारियों की अनुपस्थिति सीएसआर के समक्ष मुख्य चुनौतियाँ हैं। इसके अलावे भी :-
. सीएसआर गतिविधियों में सामुदायिक भागीदारी का अभाव
. स्थानीय क्षमता बनाने की जरूरत
. पारदर्शिता के मुद्दे
. गैर-संगठित गैर-सरकारी संगठनों की अनुपलब्धता
. समाज में होने की सूचना
इन समस्याओं से निपटने के लिए कुछ सुझाव ये हो सकते हैं :-
. सीएसआर को अधिक प्रभावी बनाने के लिए सार्वजनिक जागरूकता का निर्माण
. सीएसआर को एक निवेश के रूप में मानने के लिए वित्त का आवंटन जिसमें से रिटर्न की उम्मीद की जाती है
. सीएसआर गतिविधियों की निगरानी और कार्यान्वयन साझेदारों के साथ निकटता से संपर्क करना ताकि गैर सरकारी संगठन से वांछित परिणाम प्राप्त किए जाए
बदलते परिदृश्य में और कोरोना जैसे आपातकाल से उत्पन्न महामारी के बाद सीएसआर के दायरे को बढ़ाने की सख्त जरूरत महसूस की गई है। एक ज्वलंत समस्या जो हम सब के समाज, गाँव ,परिवार का हिस्सा है वो है बुजुर्गों के देखभाल और वैसे बुजुर्गों की जिनका कोई भी नहीं है या जिसके लिए कोई आसरा नहीं है। भारत की गिनती अभी विश्व के सबसे युवा देशों में होती है क्योंकि यहाँ की कुल जनसंख्या का पचास प्रतिशत भाग पैंतीस बर्ष के नीचे का है। लेकिन अगले 30 वर्षों में यानी वर्ष 2050 तक, बुजुर्गों की आबादी 10 करोड़ से बढ़कर 30 करोड़ हो जाने की संभावना है, और मोटे तौर पर, हरेक पाँच में से एक व्यक्ति सन् 2050 में बुजुर्ग होगा। यह चीन के अलावा दुनिया में बुजुर्गों की दूसरी सबसे बड़ी संख्या होगी । जिनकी देखभाल में संभवतः सरकार और समाज की एक बड़ी भागीदारी की आवश्यकता होगी । इसलिए इस मुद्दे पर नीति एवं संस्थागत ढाँचा तैयार करने के लिए इस पर त्वरित ध्यान आकृष्ट करने की बहुत जरूरत है। अगर बड़ी बड़ी टाटा कर बिड़ला जैसी कम्पनियाँ बुजुर्गों की समस्या को अपनी जिम्मेदारी में शामिल कर सकें तो निश्चित तौर पर यह उनकी तरफ जिम्मेदारी की ठोस पहल साबित होगी।
"खाली जेबों से भी ख़्वाब मिलेंगे
बाज़ारों से भी जब बाग़ खिलेंगे"
सलिल सरोज
नई दिल्ली
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