हम आपको एक संवेदनशील और सरोकारी पत्रकार के तौर पर सिर्फ जानते ही नहीं हैं, बल्कि आपसे सीखते भी रहे हैं और आपकी पत्रकारिता के मुरीद रहे हैं। लेकिन सांसदों के हंगामे के बाद आपने आसंदी से जो कुछ किया वह अप्रत्याशित और बेहद आहत करने वाला था.....
भोपाल। वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता राकेश दीवान ने कहा है कि 20 सितंबर को राज्यसभा में जो कुछ हुआ उससे हम सभी बेहद आहत हैं। विपक्ष के सांसदों का हंगामा और आसंदी की ओर बढ़ना, भारतीय लोकतंत्र की परंपरा का एक दागदार अध्याय है। लेकिन यह दृश्य भारतीय लोकतंत्र ने पहले भी कई बार देखा है। जो नहीं देखा था, वह उसके बाद हुआ। महोदय, हम आपको एक संवेदनशील और सरोकारी पत्रकार के तौर पर सिर्फ जानते ही नहीं हैं, बल्कि आपसे सीखते भी रहे हैं और आपकी पत्रकारिता के मुरीद रहे हैं। लेकिन सांसदों के हंगामे के बाद आपने आसंदी से जो कुछ किया वह अप्रत्याशित और बेहद आहत करने वाला था। विभिन्न साथियों ने इसके संबंध में आपको सार्वजनिक पत्र भी लिखे हैं। हम सभी साथी, जिनमें से कई निजी तौर पर भी आपके प्रिय हैं, यह पत्र आपका ध्यान कुछ बिंदुओं की दिलाते हुए एक अपील करना चाहते हैं। हरिवंश जी, आप संसदीय परंपरा और नियमों से बहुत बेहतर ढंग से वाकिफ हैं। किसी एक भी सांसद की मांग के बाद वोटिंग आवश्यक थी और सदन में सरकार के सहयोगी दल ही बिलों का विरोध कर रहे थे। ऐसे में ध्वनि मत से बिलों को पारित करना नियमत: तो गलत है कि नैतिक रूप से भी सही नहीं था। ऐसे में जब आपने भाजपा के बहुमत के बिना भी ध्वनि मत से कृषि बिलों के पास होने की घोषणा की तो यह एकबारगी विश्वास से परे की बात थी। आसंदी पर बैठे व्यक्ति किसी दल या वर्ग के प्रतिनिधि नहीं होते हैं, यह आपको बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन 20 सितंबर को आप भाजपा के एक सामान्य नेता की तरह निचले दर्जे का व्यवहार कर रहे थे। वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता राकेश दीवान ने कहा कि सांसद बनने से पहले आप सत्ता और सत्ता के गलियारों में होने वाली जनविरोधी घटनाओं की नैतिकता और राजनीतिक मूल्यों पर बेबाकी से लिखते रहे हैं। आसंदी पर आपके होते हुए विपक्ष की आवाज को जिस तरह से दबाया गया वह इसलिए भी अधिक आहत करता है कि आपसे उम्मीदें ज्यादा हैं। अगर कोई अन्य राजनेता कुर्सी पर बैठा होता और यही दृश्य घटित होता तो हम उसे पत्र नहीं लिख रहे होते। लेकिन आपका विचलन, आपकी चूक, आपकी निष्ठाओं का कमजोर होना मायने रखता है।
आदरणीय, किसी व्यक्ति को अपने जीवन काल में एक—दो ही ऐसे मौके मिलते हैं, जहां वह अपनी भूमिका को इतिहास में दर्ज करा सकता है। हमें अफसोस है कि आप वह मौका चूक गए। निचले सदन लोकसभा में एक बार यह मौका स्वर्गीय सोमनाथ चटर्जी जी को मिला था, और उन्होंने पार्टी की सीमाओं से परे जाकर आसंदी का फर्ज अदा किया था। सोम दा ने तब उस पार्टी को भी अलविदा कह दिया था, जो उनके कुल जीवन का हिस्सा थी। इतिहास में दर्ज यह उदाहरण इसलिए भी कि आप भी सोम दा प्रशंसक रहे हैं। आपने राष्ट्रपति को लिखे पत्र में जेपी, लोहिया से लेकर गांधी, बुद्ध और कर्पूरी ठाकुर तक को याद किया है। हमें लगता है कि आपको उस पत्र में सोम दा को भी याद करना चाहिए था। हम जानते हैं कि आप निजी तौर पर बेहद संवेदनशील व्यक्ति हैं और यही वजह है कि आपके खिलाफ धरने पर बैठे सांसदों को दूसरी सुबह आप चाय लेकर भी पहुंचे। यह आपका बड़प्पन है, जिसकी तारीफ आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने भी की। इसी बड़प्पन और आपके पूरे सार्वजनिक जीवन के भरोसे हमारी आपसे अपील है कि आप उपसभापति के पद से इस्तीफा दें और 20 सितंबर को कृषि बिलों को पास कराने की जो चूक आपसे हुई है, उसके लिए सार्वजनिक तौर पर देश की जनता से मांगें। इससे लोकतंत्र और देश के संसदीय इतिहास पर जो दाग लगा है, उसकी भरपाई तो नहीं होगी, लेकिन हमें वह हरिवंश जरूर मिल जाएंगे, जिनसे पिछली दो—तीन पीढ़ियों ने पत्रकारिता, सामाजिक सरोकार और राजनीतिक मूल्यों के आदर्श सीखे, समझे और जीवन में उतारे हैं। पद छोड़ने और सार्वजनिक माफी की यह अपील इसलिए है कि आपके प्रति जो इज्जत, प्यार और सम्मान है, वह किसी भी पद से परे है। इस घटना के बाद भी अगर आप पद पर बने रहते हैं तो एक ऐसे उपसभापति के तौर पर ही हम आपको याद कर पाएंगे, जिसकी आंखों के सामने लोकतंत्र शर्मसार ही नहीं हुआ, बल्कि लोक आस्था को दागदार करने में भी उसकी भूमिका रही। आदरणीय हम आपको इस तरह से याद न करते हुए इसलिए याद करना चाहते हैं कि एक उपसभापति ने अपने कमजोर क्षण में एक गलती की, लेकिन तुरंत ही उसके लिए माफी मांगकर पद को छोड़ने का साहस भी दिखाया। उम्मीद है कि आप इस अपील पर आप गौर करेंगे और जल्द हमें उस गर्व से सराबोर करेंगे जो आपको अपना साथी कहते हुए हम महसूस करते थे।
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