
लाल बहादुर शास्त्री की कार्यकुशलता से प्रभावित होकर उन्हें चार अप्रैल 1961 को भारत का गृह मंत्री बनाया गया। कई परेशानियों से गुजर रहे भारत में उनके गृह मंत्रित्व काल में ही चीन द्वारा देश पर हमला और भारत की पराजय हुई तथा कांग्रेस के कर्णधार समझे जाने वाले जवाहर लाल की मृत्यु हो गई। देश सहित अस्त- व्यस्त हो चुकी कांग्रेस के अंदर नेहरु की मृत्यु के बाद पूर्ण व स्पष्ट रूप से फुट पड़ती नजर आने लगी। ऐसे समय में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष के० कामराज को कांग्रेस का नेता तथा भारत के प्रधानमंत्री के चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी गई। नेहरू की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए लालायित अनेक कांग्रेसियों के मध्य लाल बहादुर शास्त्री की कार्यकुशलता और सादगी भरी जीवन को देखते हुए उन्हें नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में सर्वसहमति से चुन लिया गया, और नौ जून 1964 को भारत के द्वितीय प्रधानमन्त्री के रूप में उन्हें शपथ दिलाई गई। परन्तु के० कामराज ने यहाँ शास्त्रीजी से धोखा किया और प्रधानमत्री के पद की गरिमा व प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से प्रधानमत्री की भूमिका अर्थात कार्य को कांग्रेस वर्किंग कमेटी के अधीन कर दिया। ऐसी स्थिति मेंशास्त्रीजी कोई भी बड़ा फैसला कमेटी से पूछे बिना नहीं कर सकते थे। प्रधानमन्त्री बनते ही पहली संवाददाता सम्मेलन में ही लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी पहली प्राथमिकता खाद्य प्रदार्थों के बढ़ते मूल्यों को रोकना बतलाई और अन्य दूसरे चीजों के लिए उन्होंने समय माँगा। पत्रकारों का लाल बहादुर शास्त्री के प्रति रवैया काफी गैरजिम्मेराना था, और पत्रकारों ने एक किरानी अर्थात क्लर्क की भांति प्रधानमंत्री से व्यवहार किया जिससे नाराज होकर शास्त्रीजी ने कभी भी प्रेस कॉन्फ्रेन्स न करने फैसला लिया।
वर्ष 1964 ईस्वी में जब देश आर्थिक, सामाजिक और विदेशी विधर्मी शक्ति आदि कई प्रकार के संकट से गुजर रहा था, तब विरोधी दल ने तीन महीने के अंदर ही संसद शास्त्रीजी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ले आई। वर्ष 1964-65 में अनाज की कमी और महँगाई से गुजर रहे देश को इस समस्या से त्राण दिलाने के लिए शास्त्री जी ने देश को एक नारा दिया -सप्ताह में एक दिन उपवास, जिसे भारतवासियों ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। शास्त्री जी ने शहर के मकानों में खाली पड़े जमीनों में अनाज उगाने का आवाहन किया और प्रधानमन्त्री आवास में खाली पड़े जमीन पर बैलों से जुताई कर उसमें अनाज की बुआई की। इससे पूरे भारतवर्ष में यह सन्देश गया और लोग खेती की ओर ललचाई दृष्टि से देखने लगे। गम्भीर अन्न संकट से गुजर रहे स्थिति का लाभ उठाते हुए पाकिस्तान ने गुस्ताखी करते हुए 1965 ईस्वी के मई- जून के माह में भारत - पाक के सीमा विवाद से बाहर के क्षेत्र गुजरात स्थित कच्छ पर हमला बोल दिया और कच्छ के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया। जून 1965 में अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण भारत को पाकिस्तान से समझौता करना पड़ा, और समझौते के तहत पचहत्तर स्क्वायर मील जमीन पाकिस्तान को देनी पड़ी। वित्तीय संकट के गम्भीर दौर से गुजर रहे देश को युद्ध की स्थिति से त्राण दिलाने के उद्देश्य से किए गए शास्त्री जी के इस समझौते की पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह तीखी आलोचना होने लगी। देश की इस स्थिति में राष्ट्र को युद्ध में झोंकने की शास्त्री जी की इच्छा न थी, इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया था, लेकिन उनका यह फैसला क्षणभंगुर ही सिद्ध हुआ।
1962 में हुई चीन से भारत की हार से भारत को कमजोर समझने की भूल कर पाक के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान व विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत के जम्मू- कश्मीर पर हमला बोल देने का निर्णय लिया और इस ओपरेशन को ग्रैंड स्लैम का नाम देते हुए एक सितम्बर 1965 को पाकिस्तान ने भारत पर हमला बोल दिया पाक सेना ने अपनी तोपों से कश्मीर पर जबरदस्त हमला किया। उनका लक्ष्य अर्थात टारगेट कश्मीर का क्षम था। कश्मीर की क्षम पर कब्ज़ा का मतलब था कश्मीर का भारत से कट जाना। इसीलिए शास्त्री जी ने पाकिस्तानी सेना पर हवाई हमला करने का निर्णय लिया। लड़ाई में भारतीय वायु सेना की अभूतपूर्व कौशल और निशाने पर अचूक मार ने पाकिस्तानी सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। लेकिन खतरा अभी टला नहीं था, और स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमन्त्री शास्त्री ने सेना अध्यक्षों की अर्द्धरात्रि में आपात बैठक बुलाई। बैठक में फैसला लेते हुए शास्त्रीजी ने आदेश दिया कि सेना युद्ध में कश्मीर के अतिरिक्त अन्य दूसरे मोर्चे का भी उपयोग करे। पंजाब और गुजरात की सीमा से युद्ध को बढ़ाते हुए लाहौर पर कब्ज़ा करें। इस फैसले से भारत पहली बार अंतर्राष्ट्रीय सीमा का अतिक्रमण करने जा रहा था। प्रधानमन्त्री की स्वीकृति मिलते ही सेना ने तीनों मोर्चे पर एक साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। भारतीय सेना के भयानक युद्ध कौशल से समूचे पाकिस्तान में हड़कंप मच गई, और भारतीय भूमि पर कब्ज़ा जमाने के इच्छुक पाकिस्तान को लाहौर भी हाथ से जाता दिखाई देने लगा। ऐसे समय में पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने संयुक्त राष्ट्र में जाकर भारत को युद्ध रोकने की गुहार लगाई। 22 सितम्बर को भारत ने पाकिस्तान पर विजय की घोषणा कर दी गई। बाद में प्रधानमन्त्री शास्त्रीजी ने पाकिस्तान को भीख में लाहौर देकर उनको बख्श दिया तथा सेना को पीछे हटने का निर्देश दे दिया। पाकिस्तान पर भारत की इस विजय से शास्त्रीजी का कद भारत में काफी बढ़ गया, और वे उस समय देश के सबसे लोकप्रिय नेता बन गए। फिर भी भारत - पाक सीमा पर तनाव कम नहीं हुए थे, और छिटपुट गोला बारूद की घटना दोनों तरफ से हो रही थी। भयभीत पाकिस्तान को अब भी लाहौर हाथ से जाने का डर सताता रहता था, इसलिए इस भय से मुक्ति पाने के लिए उसके राष्ट्रपति ने समझौता और आश्वासन के लिए सोवियत संघ से सहयोग मांगी । सोवियत संघ के हस्तक्षेप के बाद लाल बहादुर शास्त्री सम्मलेन में भाग लेने के लिए चार जनवरी 1966 को ताशकन्द गए। अमेरिका और रूस भारत पर जीती हुई भूमि वापस कर देने के लिए दवाब बनाने की कोशिश करने लगे, लेकिन शास्त्री जी किसी के दवाब के आगे झुकने को तैयार नहीं थे। लेकिन अमेरिका के भारी दबाब और पाकिस्तान के द्वारा भविष्य में ऐसी गुस्ताखी पुनः न करने के आश्वासन के बाद शास्त्रीजी ने ताशकन्द समझौता पर हस्ताक्षर कर दिए। ताशकन्द समझौते की रात ही 11 जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री अपने कमरे में रहस्मयी ढंग से मृत पाए गए, और वहां के डॉक्टरों ने उन्हें मृत बतलाते हुए उनके मृत्यु का कारण हृदयाघात अर्थात हार्ट अटैक बताया। भारतवासी आज भी लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु को संदेहास्पद मानते हैं, लेकिन खेदजनक बात यह है कि आज तक इस गुत्थी को सुलझाने के लिए भारत की किसी सरकार ने कोई पहल नहीं की ।

अशोक “प्रवृद्ध”
करमटोली , गुमला नगर पञ्चायत ,गुमला
पत्रालय व जिला – गुमला (झारखण्ड)
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