उल्लेखनीय है कि जैव विविधता दो शब्दों से मिलकर बना है- जैव और विविधता, जिसका साधारण अर्थ जैव जगत में व्याप्त विविधता से है । जैव विविधता से आशय जीवधारियों अर्थात पादप एवं जीवों की विविधता से है, जो प्रत्येक क्षेत्र, देश, महाद्वीप अथवा विश्व स्तर पर होती है । इसके अन्तर्गत सूक्ष्म जीवों से लेकर समस्त जीव जगत सम्मिलित है । इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिकी कीट विज्ञानी इ.ओ विल्सन द्वारा 1986 में अमेरिकन फोरम ऑन बायोलोजिकल डाइवर्सिटी में प्रस्तुत रिपोर्ट में किया गया था। जैव विविधता का प्रमुख कारण भौगोलिक पर्यावरण में विविधता और सहस्त्राब्दियों से चली आ रही अवधि में चलने वाली अनवरत प्रक्रिया का प्रतिफल है । वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार इस पृथ्वी पर लगभग बीस लाख जैव प्रजातियों का अस्तित्व है और प्रत्येक जीव का पारिस्थितिक तन्त्र में महत्व होता है, लेकिन इसके विपरीत पुरातन भारतीय संस्कृति में चौरासी लाख योनियों अर्थात जीव का उल्लेख किया गया है और पद्म पुराण में तो चौरासी लाख जीवों का स्पष्ट वर्णन अंकित करते हुए कहा गया है कि संसार के समस्त जीव एक -दूसरे के सहायक हैं और उनका एक -दूजे से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। प्रकृति के निर्माण व इसके अस्तित्व हेतु जैव विविधता की प्रमुख भूमिका होने की बात कहते हुए कहा गया है कि इसका ह्रास होने से पर्यावरण चक्र में गतिसेध आता है और उसका जीवों पर भी विपरीत प्रभाव पडने लगता है । वर्तमान में जैव विविधता के प्रति सचेष्ट होने का कारण जैव विविधता की तीव्र गति से हानि होना है। एक अध्ययन के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष लगभग 10000 से 20000 प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं। इस प्रकार की हानि सम्पूर्ण विश्व के लिए हानिकारक है । अतः इसके समुचित स्वरूप की जानकारी कर इसका संरक्षण करना अति आवश्यक है । जैव विविधता को आनुवांशिक, कार्यिकी के आधार पर तीन वर्गों -आनुवंशिक विविधता, प्रजातीय विविधता तथा पारिस्थितिकी, में विभक्त किया गया है। प्रत्येक जीव एवं पादपों में आनुवांशिक आधार पर अन्तर होता है, जो जीन के अनेक समन्वय के आधार पर होता है और वही उसकी पहचान होती है। जैसे कि प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से भिन्न होता है। यह आनुवंशिक विविधता प्रजातियों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक होती है। यदि आनुवंशिकता के स्वरूप में परिवर्तन होता है अथवा जीन स्वरूप बिगड़ता है तो अनेक विकृतियाँ आती हैं और वह प्रजाति समाप्त भी हो सकती है। प्रजातियों की विविधता का जीन भण्डार होता है। उसी से हजारों वर्षों से फसलें और पालतू जानवर विकसित होते हैं । आनुवंशिक शोधों के प्रतिफल ही हैं कि वर्तमान में नई किस्मों के बीज बीमारी मुक्त पौधे एवं उन्नत पशु विकसित किए जा रहे हैं। किसी भी जाति के सदस्यों में आनुवंशिक भिन्नता जितनी कम होगी उसके विलुप्त होने का खतरा अधिक होगा, क्योंकि वह वातावरण के अनुसार अनुकूलन नहीं कर सकेगी।
किसी एक क्षेत्र में जीव-जन्तुओं व पादपों की संख्या वहाँ की प्रजातीय विविधता होती है । यह विविधता प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र और कृषि पारिस्थितिक तंत्र दोनों में होती है। कुछ क्षेत्र इसमें समृद्ध होते हैं जैसे कि उष्ण कटिबन्धीय वन क्षेत्र, और एकाकी प्रकार के विकसित किए गए वन क्षेत्र में कुछ प्रजातियाँ ही होती हैं। वर्तमान सघन कृषि तन्त्र में अपेक्षाकृत कम प्रजातियाँ होती हैं, जबकि परम्परागत कृषि पारिस्थितिक तंत्र में विविधता अधिक होती है । एक वंश की विभिन्न जातियों के मध्य मिलने वाली विविधता जातिगत जैव विविधता होती है तथा किसी क्षेत्र में एक वंश की जातियों के मध्य होने वाली भिन्नता जाति स्तर की जैव विविधता होती है । पृथ्वी पर विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिक तन्त्र हैं जो विभिन्न प्रकार की प्रजातियों के आवास स्थल हैं । एक भौगोलिक क्षेत्र के पर्वतीय, घास के मैदान, वनीय, मरुस्थलीय आदि तथा जलीय जैसे नदी, झील, तालाब, सागर आदि विविध पारिस्थितिक तन्त्र हो सकते हैं। यह विविधता विभिन्न प्रकार के जीवन को विकसित करती है जो एक तन्त्र से दूसरे में भिन्न होते हैं। यही भिन्नता पारिस्थितिक भिन्नता कहलाती है ।
उल्लेखनीय है कि विकसित जैव विविधता कृषि के विविध स्वरूप, पालतू जानवों की विविधता, वानिकी की विविधता आदि मानवीय प्रयासों से विकसित होती है। जबकि सूक्ष्म जीव विविधता में अति सूक्ष्म जीवाणुओं जैसे बैक्टीरिया, वायरस, फॅगस, आदि सम्मिलित हैं जो जैव-रसायन चक्र में महत्वपूर्ण होते हैं । ये दोनों ही प्रकार उपर्युक्त श्रेणियों में सम्मिलित हैं । क्षेत्रीय विस्तार के आधार पर भी जैव विविधता के प्रकार हैं- स्थानीय जैव विविधता, राष्ट्रीय जैव विविधता तथा वैश्विक जैव विविधता । स्थानीय जैव विविधता का विस्तार सीमित होता है । यह छोटे क्षेत्र का भौगोलिक प्रदेश हो सकता है । इस क्षेत्र में मिलने वाले जीवों एवं पादपों की विविधता को स्थानीय जैव विविधता कहते हैं । इस विविधता का कारण क्षेत्र का भौगोलिक स्वरूप होता है । एक ही जलवायु प्रदेश में भी क्षेत्रीय भिन्नता होती है । राष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता स्वाभाविक हैं क्योंकि एक देश में उच्चावच, जलवायु, मृदा, जलराशियों, बन आदि में भिन्नता जैव विविधता का कारण होती है। राष्ट्रीय स्तर पर नीतिगत निर्णय हेतु राष्ट्रीय स्तर पर जैव विविधता का अध्ययन इसके संरक्षण में महत्वपूर्ण होता है । वैश्विक जैव विविधता का सम्बन्ध सम्पूर्ण विश्व से होता है। सम्पूर्ण विश्व के स्थल एवं जलीय भाग पर लाखों प्रजाजियाँ जीवों पादपों एवं सूक्ष्म जीवों की हैं । विश्व स्तर पर विभिन्न बायोम पारिस्थितिक तन्त्र हैं उनमें जैव विविधता अत्यधिक है जो सम्पूर्ण पारिस्थतिक तन्त्र को परिचालित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।
बहरहाल इसमें कोई संशय नहीं कि प्रकृति का अभिन्न अंग जैव विविधता पर्यावरण को सुरक्षित रखने तथा पारिस्थितिक तन्त्र को परिचालित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ऑक्सीजन के उत्पादन, कार्बन डॉई-ऑक्साईड में कमी करने, जल चक्र को बनाए रखने, मृदा को सुरक्षित रखने और विभिन्न चक्रों को संचालित करने में इसकी महती भूमिका है ।जैव विविधता पोषण के पुन: चक्रण, मृदा निर्माण, जल तथा वायु के चक्रण, जल सन्तुलन आदि के लिए महत्त्वपूर्ण है । मानव की अनेक आवश्यकताओं यथा, भोजन, वस्त्र, आवास, ऊर्जा, औषधि, आदि की पूर्ति में भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से योगदान देने के कारण इसका आर्थिक महत्व भी है। जैव विविधता से युक्त प्राकृतिक स्थल सौंदर्यबोध कराने के साथ ही मनोरंजन स्थल के रूप में भी उपयोगी होते हैं, जिनका संरक्षण- संवर्द्धन, पुष्पन- पल्लवन आवश्यक है । अन्यथा वह दिन भी दूर नहीं जब संसार के कई प्रजाति विलुप्त हो जायेंगे और सम्पूर्ण पर्यावरण के साथ ही मनुष्यों को भी अनेक कठिनाईयों से दो -चार होना नित्य की बात होगी ।
-अशोक “प्रवृद्ध”
करमटोली , गुमला नगर पञ्चायत ,गुमला
पत्रालय व जिला – गुमला (झारखण्ड)
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