49 आरोपी और 49 मुकदमों वाला यह केस शुरू से ही पेचीदा रहा है। कोर्ट ने कहा है कि आरोपियों के खिलाफ बाबरी मस्जिद के विध्वंस का कोई सबूत नहीं है। इसे कुछ अराजक तत्वों ने अंजाम दिया था। सवाल यह है कि क्या उन अराजक तत्वों की तलाश होगी। उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होगी। पुलिस उन अराजक तत्वों को इतने समय तक क्यों नहीं तलाश पाई? इसका इस देश को जवाब मिलेगा? वैसे 28 साल में 12 जजों ने इस केस को देखा। लखनऊ में ही दस साल में तीन जज इस मामले की सुनवाई करते रहे। किसी को भी नहीं लगा या अगर लगा भी तो उन्होंने इस बात को प्रकट नहीं किया कि इस मामले में बहुत झाोल है, बहुत लोचा है। प्रकट न करना जजों की मजबूरी हो सकती है। उनकी सेवा संहिता का हिस्सा हो सकता है। असदुद्दीन अंसारी की इस बात में दम है कि विवादित ढांचा सपने में तो नहीं टूटा। कोई भी निर्णय सभी पक्षों को संतुष्ट नहीं कर सकता। वैसे निर्णय की अपनी एक खास तासीर होती है कि वह किसी को अच्छा लगता है और किसी को खराब। अपनी सुविधा के संतुलन के लिहाज से लोग उसे अच्छा या बुरा समझते हैं और किसी को भी उसके सहमति और असहमति के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। ढांचा विध्वंस मामले में अयोध्या मुद्दे के मुद्दई रहे इकबाल अंसारी का कहना है कि कोर्ट द्वारा आरोपियों को बरी किया जाना अच्छी बात है। हम इसका सम्मान करते हैं वहीं इस मामले के वकील जफरयाब जिलानी ने इस निर्णय पर असंतोष जाहिर किया है और इस प्रकरण को हाईकोर्ट में ले जाने की बात कही है। उन्होंने सीबीआई से भी मामले की पुनर्जांच करने की अपील की ओर इशारा किया है। बाइज्जत बरी हुए आरोपितों के यहां लड्डू बांटे जा रहे हैं । यह स्वाभाविक भी है। जहां प्रसन्नता होती है, लड्डू तो वहीं बंटते हैं। 2300 पेज के फैसले में अगर किसी को न्याय नजर आ रहा है और किसी को अन्याय तो यह मीमांसा का विषय है। कोर्ट ने माना है कि विवादित ढांचे को गिराने की कोई साजिश नहीं हुई थी बल्कि यह अकस्मात हुई स्वत: स्फूर्त घटना थी। सीबीआई 32 आरोपितों का कुसूरवार साबित करने में विफल रही।
गवाहों के बयान का जिक्र करते हुए अदालत ने कहा है कि कारसेवा के लिए जुटी भीड़ की नीयत बाबरी ढांचा गिराने की नहीं थी। अशोक सिंघल ढांचा सुरक्षित रखना चाहते थे क्योंकि वहां मूर्तियां थीं। विवादित जगह पर रामलला की मूर्ति मौजूद थी, इसलिए कारसेवक उस ढांचे को गिराते तो मूर्ति को भी नुकसान पहुंचता। अदालत को बताया गया कि कारसेवकों के दोनों हाथ व्यस्त रहे, इसलिए उन्हें जल और फूल लाने को कहा गया था। अदालत ने अखबारों में लिखी बातों को सबूत नहीं माना। सबूत के तौर पर पेश फोटो और वीडियो को टेम्पर्ड माना क्योंकि उनके बीच-बीच में खबरें थीं। इसलिए उन पर भरोसा नहीं किया। अदालत ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि आरोपपत्र में में जो तस्वीरें पेश की गईं, उनमें से ज्यादातर के निगेटिव कोर्ट को उपलब्ध नहीं कराए गए। इसलिए फोटो भी प्रमाणिक सबूत नहीं हैं। जिन 32 आरोपियों को बाइज्जत बरी किया गया है, उनमें लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा, महंत नृत्य गोपाल दास, डॉ. राम विलास वेदांती, चंपत राय, महंत धर्मदास, सतीश प्रधान, पवन कुमार पांडेय, लल्लू सिंह, प्रकाश शर्मा, विजय बहादुर सिंह, संतोष दुबे, गांधी यादव, रामजी गुप्ता, ब्रज भूषण शरण सिंह, कमलेश त्रिपाठी, रामचंद्र खत्री, जय भगवान गोयल, ओम प्रकाश पांडेय, अमरनाथ गोयल, जयभान सिंह पवैया, साक्षी महाराज, विनय कुमार राय, नवीन भाई शुक्ला, आरएन श्रीवास्तव, आचार्य धर्मेंद्र देव, सुधीर कुमार कक्कड़ और धर्मेंद्र सिंह गुर्जर शामिल हैं लेकिन बरी होते ही एक आरोपित जय भगवान गोयल ने कहा था कि एक—सोचे समझे एजेंडे के तहत ढांचा गिराया था। यह सच है कि मंच पर विराजित अटल, आडवाणी, जोशी आदि ने ढांचा नहीं तोड़ा, वे और लोग थे जिन्होंने ढांचा तोड़ा तो फिर 49 को आरोपित क्यों बनाया गया। इस सवाल का जवाब न तो पुलिस के पास है और न ही केस दर्ज कराने वाले दो पुलिसकर्मियों और 47 पत्रकारों और फोटोग्राफरों के पास लेकिन अटल, आडवाणाी की अगर अपवाद मानें तो क्या मुरली मनोहर जोशी उमा भारती के हाथों घटना के बाद खुशी के लड्डू नहीं खा रहे थे। इसे आखिरकार किस नजरिये से देखा जाएगा। यह सच है कि जब राम मंदिर का फैसला हो चुका है तब, इस मुद्छे को जिंदा रखने का कोई औचित्य नहीं था। अदालत के फैसले को अब इसी रूप में देखा—समझा जाना चाहिए। आदलत से बाइज्जत बरी हुए राजनीतिक दिग्गजों का मानना है कि इस निर्णय से यह साबित हो गया है कि 6 दिसंबर, 1992 को ढांचा विध्वंस की कोई साजिश नहीं हुई थी। कालक्रम का विचार करें तो 6 दिसम्बर 1992 को 10 मिनट के अंतराल पर दो एफआईआर हुई थी। पहली एफआईआर मुकदमा संख्या 197/92 को प्रियवदन नाथ शुक्ल ने शाम 5:15 पर बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले में तमाम अज्ञात लोगों के खिलाफ दर्ज कराई थी जबकि दूसरी एफआईआर मुकदमा संख्या 198/92 को चौकी इंचार्ज गंगा प्रसाद तिवारी की तरफ से आठ नामजद लोगों के खिलाफ दर्ज हुई, जिसमें भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, तत्कालीन सांसद और बजरंग दल प्रमुख विनय कटियार, तत्कालीन वीएचपी महासचिव अशोक सिंघल, साध्वी ऋतंभरा, विष्णु हरि डालमिया और गिरिराज किशोर शामिल थे। बाद में पत्रकारों और फोटोग्राफरों ने जनवरी 1993 में 47 अन्य मुकदमे दर्ज कराए थे जिनमें उनसे मारपीट और लूटपाट जैसे आरोप थे।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर 1993 में लखनऊ में विशेष अदालत बनाई गई थी, जिसमें मुकदमा संख्या 197/92 की सुनवाई होनी थी। इस केस में हाईकोर्ट की सलाह पर 120बी की धारा जोड़ी गई, जबकि मूल एफआईआर में यह धारा नहीं जोड़ी गई थी। अक्टूबर 1993 में सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में 198/92 मुकदमे को भी जोड़कर संयुक्त चार्जशीट फाइल की क्योंकि दोनों मामले जुड़े हुए थे।उसी चार्जशीट नाम बाल ठाकरे, नृत्य गोपाल दास, कल्याण सिंह, चम्पत राय जैसे 49 नाम जोड़े गए। अक्टूबर 1993 में जब सीबीआई ने संयुक्त चार्जशीट दाखिल की तो कोर्ट ने माना कि दोनों केस एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए दोनों केस की सुनवाई लखनऊ में बनी विशेष अदालत में होगी, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी समेत दूसरे आरोपियों ने इसे हाईकोर्ट में चुनौती दे दी। दलील में कहा गया था कि जब लखनऊ में विशेष कोर्ट का गठन हुआ तो अधिसूचना में मुकदमा संख्या 198/92 को नहीं जोड़ा गया था। इसके बाद हाईकोर्ट ने सीबीआई को आदेश दिया कि मुकदमा संख्या 198/92 में चार्जशीट रायबरेली कोर्ट में फाइल करे। 2003 में सीबीआई ने चार्जशीट तो दाखिल की, लेकिन आपराधिक साजिश की धारा 120 बी नहीं जोड़ सके। दोनों मुकदमे अलग होने की वजह से रायबरेली कोर्ट ने आठ आरोपियों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया था। इस मामले में दूसरा पक्ष हाईकोर्ट चला गया तो इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2005 में रायबरेली कोर्ट का आदेश निरस्त करते हुए व्यवस्था दी कि सभी आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलता रहेगा। इसके बाद मामले में ट्रायल शुरू हुआ और 2007 में पहली गवाही हुई। कुल 994 गवाहों में से 351 की गवाही हुई। इसमें 198/92 मुकदमा संख्या में 57 गवाहियां हुईं, जबकि मुकदमा संख्या 197/92 में 294 गवाह पेश हुए। कोई मर गया, किसी का एड्रेस गलत था तो कोई अपने पते पर नहीं मिला।
हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ 2011 में सीबीआई सुप्रीम कोर्ट गई। अपनी याचिका में उसने दोनों मामलों में संयुक्त रूप से लखनऊ में बनी विशेष अदालत में चलाने और आपराधिक साजिश का मुकदमा जोड़ने की बात कही। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चलती रही। जून 2017 में हाईकोर्ट ने सीबीआई के पक्ष में फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने दो साल में इस केस को खत्म करने की समय सीमा भी तय कर दी। 2019 अप्रैल में वह समय सीमा खत्म हुई तो नौ महीने की डेडलाइन फिर मिली। इसके बाद कोरोना संकट को देखते हुए 31 अगस्त तक सुनवाई पूरी करने का और 30 सितंबर को फैसला सुनाने का समय दिया गया है। अब बात करें लिब्रहान आयोग की तो यह 16 दिसंबर, 1992 को गठित हुआ था जिसे तीन महीने में अपनी रिपोर्ट सौंपनी थी लेकिन इस आयोग ने रिपोर्ट सौंपने में ही 17 साल लगा दिए। इस आयोग को 48 बार सेवा विस्तार मिला। इस आयोग पर 8 से 10 करोड़ रुपये खर्च हुए। 30 जून,2009 ने आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी लेकिन इस जांच रिपोर्ट का कोई भी प्रयोग मुकदमे में नहीं हो पाया न ही सीबीआई ने आयोग के किसी सदस्य का बयान लिया। इस तरह के आयोग और उसकी रिपोर्ट का औचित्य क्या है? सीबीआई की विशेष अदालत का जिस तरह का फैसला आया है,वह सर्वथा अपेक्षित भी नहीं है। आरोपितों के निर्णय को लेकर जिस तरह के दावे किए जा रहे थे और लगातार सुनवाई में आरोपितों ने जिस तरह अपने को निर्दोष बताया था, उसे देखते हुए कुछ ऐसा ही लग रहा था। उमाभारती और साध्वी ऋतंभरा के साजिश नहीं, मंत्र रचने जैसे बयान बहुत कुछ कहते हैं। आरोपितों को पता था कि कुछ भी हो सकता है, इसलिए उन्होंने उच्च न्यायालय में जमानत अर्जी दाखिल करने की भी व्यवस्था कर रखी थी, यह और बात है कि सीबीआई कोर्ट से ही उन्हें राहत मिल गई। आगे का दरवाजा नहीं खटखटाना पड़ा। अदालत के निर्णय मान्य होने चाहिए, उन पर अंगुली नहीं उठनी चाहिए लेकिन, यह तो कहा ही जा सकता है कि अदालती निर्णयों पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं हो रही हैं, उन्हें राजनीतिक नजरिये से देखा जा रहा है, यह प्रवृत्ति बहुत ठीक नहीं है। इस पर गौर करना और इसके कारणों की तह में जाना तो चाहिए ही।
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