बिहार की 17वीं विधानसभा चुनाव के नतीजे बेहद चौकाने वाले हैं। दूरगामी संदेश देने वाले हैं। इन चुनाव नतीजों से बिहार में कई स्थापनाओं और अवधारणाओं का बदलना तय माना जा रहा है। बिहार विधानसभा के चुनाव मैदान में इस बार 1149 प्रत्याशियों ने अपनी किस्मत आजमाई है जिसमें 142 व्यवसायी,15 मजदूर, 202 किसान, 1 कथावाचक और ज्योतिषी शामिल हैं। एक्जिट पोल के नतीजों से तो लगा था कि रोजगार के मामले में बिहार की जनता ने तेजस्वी यादव के दस लाख रोजगार देने के वायदे को वरीयता दी है लेकिन जिस तरह के नतीजे आए हैं, उससे तो लगता है कि तेजस्वी के दस लाख रोजगार के दावों पर 19 लाख को रोजगार देने का वादा भारी पड़ गया है। जो लोग मोदी लहर को कमजोर बता रहे थे, उन्हें भी फिलहाल तो जोर का झटका लगा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मतदाताओं के बीच क्रेज बरकरार है इसकी बानगी हमें पूर्व और मौजूदा चुनाव नतीजों में देखनी चाहिए। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 53, जदयू को 71, राजद को 80 और कांग्रेस को 27 सीटें मिली थीं। लोकजनशक्ति पार्टी दो सीटों पर जीती थी। उस समय राजद सबसे बड़ा दल बनकर उभरी थी लेकिन इस बार के चुनाव में राजनीतिक समीकरण बदले हैं। भाजपा दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है जबकि जिस जद यू के साथ मिलकर उसने चुनाव लड़ा है, वह राजद से काफी पिछड़ गई है। कांग्रेस इस चुनाव में अपने पिछले रिकॉर्ड को छू भी नहीं पाई है। बिहार विधानसभा चुनाव में राजद ने 144 सीटों पर, कांग्रेस ने 70 सीटों पर,वामपंथी दलों ने 29 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। इस बार सर्वाधिक सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ही थी लेकिन प्रदर्शन के मामले में वह भाजपा से वह बस एक सीट ही आगे रही। भाजपा ने एक बार फिर दोहराया है कि बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। चुनाव में तो वह पहले से ही यह बात कहती रही है लेकिन भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने जिस तरह रिजल्ट के बाद इस बावत बोलने की बात कही है, उससे असमंजस की एक झीनी तस्वीर तो बनती ही है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री, भाजपा अध्यक्ष नड्डा भी नीतीश के नेतृत्व में सरकार बनाने की बात कह चुके हैं, ऐसे में भाजपा कोई नया स्टैंड लेगी, इसके आसार नहीं के बरारबर हैं।
दो सदी में चार बार भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनने वाले नीतीश कुमार ने कभी भाजपा को बिहार में बड़ा भाई नहीं माना लेकिन इस बार के चुनाव नतीजों ने छोटे—भाई और बड़े भाई के संबंधों की नई इबारत लिख दी है। नई परिस्थितियों में बिहार में भाजपा और जदयू की भूमिका और रुतबा दोनों में बदलाव लगभग तय है। जदयू अब तक बिहार में भाजपा के बड़े भाई की भूमिका में होती थी। सीट बंटवारे में भी यह दिखता रहा है। नीतीश कहते रहे हैं कि हम बिहार की राजनीति करेंगे, भाजपा केंद्र की राजनीति करे। बड़े और छोटे भाई की भूमिका में यह बदलाव पूरे 20 साल में हुआ है। कुछ चुनावों में भाजपा को जदयू से ज्यादा सीटें भी मिलीं इसके बावजूद जदयू और नीतीश ने भाजपा को कभी बड़ा भाई नहीं माना। इस बार जदयू सहजता से भाजपा को बड़ा भाई मान लेगी और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री का पद स्वेच्छा से किसी भाजपा नेता को सौंप देंगे, ऐसा प्रथमदृष्टया लगता तो नहीं है। हालांकि उन पर इस तरह का नैतिक दबाव बनना स्वाभाविक भी है। वर्ष 2000 में नीतीश कुमार भाजपा के समर्थन से पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने, पर सिर्फ 7 दिन ही पद पर आसीन रह सके। वर्ष 2015 में 13वीं विधानसभा में राजग को 92 सीटें मिली थीं लेकिन किसी दल को बहुमत न मिलने से बिहार में राष्ट्रपति शासन लग गया। उसी साल छह माह फिर चुनाव हुए जिसमें जदयू के 88 और भाजपा के 55 विधायक जीते और दोनों दलों ने मिलकर बिहार में सरकार बनाई। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। 2010 में 206 सीटों पर एनडीए जीती भी लेकिन ज्यादा सीटें मिलने की वजह से जदयू राज्य में खुद को भाजपा का बड़ा भाई बताने लगी। इसकी परिणिति यह हुई कि 2014 आम चुनाव से ठीक पहले जदयू मोदी की वजह से राजग से अलग हो गई। वर्ष 2015 में जदयू और भाजपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। इसमें जदयू-राजद-कांग्रेस के महागठबंधन को 126 सीटें मिलीं। इसमें जदयू की 71 और राजद की 80 सीटें थीं। भाजपा को 53 सीटें मिलीं थीं। पर महागठबंधन महज तीन साल में टूट गया। 2010 के चुनाव में भाजपा-जदयू सहयोगी थे। इसमें भी भाजपा, जदयू से कम सीटों पर चुनाव लड़ी थी, पर जीतने का औसत बेहतर था। भाजपा 102 सीटों पर चुनाव लड़ी और 91 जीती, जबकि जदयू 141 सीटों पर लड़ी और 115 जीत ले गई थी। इस बार भी ऐसा ही हुआ है।
भाजपा दूसरा बड़ा दल होकर उभरी है तो जाहिर सी बात है कि उसके लोगों की चाहत मुख्यमंत्री पद अपने पास रखने की होगी लेकिन ऐसा करते या सोचते वक्त उसे महाराष्ट्र की घटना भी याद करनी होगी जब मुख्यमंत्री बनने के फेर में उद्धव ठाकरे ने भाजपा से बगावत कर राकांपा और कांग्रेस का दामन थाम लिया था। चिराग पासवान से उम्मीद हो सकती थी लेकिन इस चुनाव में उनकी पार्टी का प्रदर्शन दो से घटकर एक हो गया है। चिराग पासवान ने जदयू और भाजपा दोनों को जहां जोर का झटका दिया है, वहीं असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी आईएमएमआई ने ने जीती तो पांच सीटें ही हैं लेकिन कांग्रेस और राजद दोनों की जीत के मार्ग का कई सीटों पर रोड़ा जरूर बनी है। मुख्यमंत्री पद को लेकर किसी भी तरह की जिद भाजपा और जदयू पर भारी पड़ सकती है। इसलिए भाजपा का पहला प्रयास नीतीश को ही मुख्यमंत्री बनाने का होगा। वैसे भी नीतीश अपनी अंतिम सभा में यह कह चुके हैं कि यह उनका आखिरी चुनाव है। मतलब मुख्यमंत्री भी वे आखिरी बार ही बनेंगे। ऐसे में दोनों दलों को परम विवेक से काम लेते हुए परस्पर राजनीतिक समन्वय बनाए रखना होगा। यही लोकहित का तकाजा भी है। मध्यप्रदेश के उपचुनाव में भाजपा ने 28 में से 19 सीटों पर भाजपा और नौ सीटों पर कांग्रेस विजयी हुई है। गुजरात विधानसभा उपचुनाव में भाजपा ने सभी आठ सीटें अपने नाम कर ली है। नोटबंदी और देशबंदी से देश को बर्बाद करने के राहुल गांधी के आरोपों को भी उत्तर प्रदेश, बिहार,गुजरात और मध्यप्रदेश की जनता ने पूरी तरह नकार दिया है और इस बात पर फिर अपनी सहमति की मुहर लगाई है कि मोदी है तो मुमकिन है। चुनाव सर्वेक्षण के बाद तेजस्वी में तेज देखने वाले मतगणना का रुख बदलते ही तेजस्वी को निस्तेज ठहराने लगे थे। उत्तर प्रदेश विधानसभा उपचुनाव की सात में छह सीटों पर भाजपा की जीत यह बताने के लिए काफी है कि मतदाताओं की उससे उम्मीद बरकरार है। इतना तो तय है कि जिसने जितना काम किया है, जनता ने उसे इनाम भी उसी अनुरूप दिया है।
-सियाराम पांडेय 'शांत'-
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