छत्तीसगढ़ में गोधन न्याय योजना शुरू होने के बाद से यहां गोबर का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है, कल तक सिर्फ कण्डे और खाद बनाने के काम आने वाला गोबर अब रंग बिरंगे दीयों का रूप लेकर दीपावली में जगमगाने को तैयार है। स्व-सहायता समूह की महिलाएं गोठानों में खाद बनाने के लिए खरीदे गए गोबर का अब दूसरा उपयोग दीया बनाने में भी कर रही हैं। कुछ समय तक गांव की महिलाएं गरीबी से जूझते हुए केवल कृषि के सहारे परिवार चला रही थीं, लेकिन अब राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (बिहान) के स्व-सहायता समूहों से जुड़कर वह अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार लाने और रोजगार सृजन के नए-नए माध्यम तलाश रही हैं। इसी का एक उदाहरण छत्तीसगढ़ में कांकेर जिला स्थित विकासखंड पखांजूर के ग्राम डोण्डे की कृषक कल्याण समिति है। जहां महिलाएं गोबर से दीये, ओम, स्वास्तिक चिन्ह, शुभ-लाभ के साथ साथ गणेश जी की छोटी-छोटी मूर्तियों का निर्माण कर अपनी अनोखी कलाकारी के जरिए आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा रही हैं।
कांकेर जिले के नक्सल प्रभावित क्षेत्र विकासखंड पखांजूर से आठ किलोमीटर की दूरी पर ग्राम डोण्डे स्थित है, जो हरंगढ़ पंचायत के अंतर्गत आता है। लगभग 500 की जनसंख्या वाले इस गांव की पहचान कुछ समय पहले तक कुछ खास नहीं थी। लेकिन यहां की महिलाओं के द्वारा किए जा रहे कार्यों को देखते हुए अब इसकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर होने लगी है। एक साल पहले डोंडे गांव में पशुओं की देखभाल और उनके चारा की व्यवस्था हेतु माॅडल गौठान (पशुओं को रखने का स्थान) का निर्माण शासन की तरफ से किया गया था। राज्य में गोधन न्याय योजना शुरू होने के बाद यहां गोबर खरीदी कर वर्मी कम्पोस्ट खाद बनाने का कार्य गांव के ही महिला समूह को मिला। जिसके बाद अब प्रशासन द्वारा दीपावली पर्व को ध्यान में रखते हुए गोबर से दीये बनाकर और उसका विक्रय कर समूह की महिलाओं को रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से यह सराहनीय प्रयास किया जा रहा है।
दीपावली का त्यौहार जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, वैसे-वैसे उत्साह से समूह की महिलाएं भी बड़ी संख्या में दीये तैयार कर रही हैं। गाय के गोबर से बनाये जा रहे दीये, ओम, स्वास्तिक चिन्ह, शुभ-लाभ की मांग भी बाजार में लगातार बढ़ रही है। पूरी तरह से प्राकृतिक और पर्यावरण अनुकूल होने के कारण न केवल ग्रामीण बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी इसकी काफी मांग बढ़ गई है। मिट्टी के बने दीयों की अपेक्षा गोबर के बने दीयों की कीमत कम है तथा गोबर के दीये विभिन्न कलाकृतियों और रंगों में उपलब्ध होने के कारण लोगों को अपनी ओर ज्यादा आकर्षित कर रहे हैं। इतना ही नहीं दीपावली के बाद गोबर से बने इन दीयों का उपयोग जैविक खाद बनाने में भी किया जा सकता है। इनके अवशेषों को प्रयोग के बाद गमला या किचन गार्डन में भी उपयोग में लाया जा सख्त है। इस तरह मिट्टी के दीये बनाने और पकाने में पर्यावरण को होने वाले नुकसान के स्थान पर गोबर के दीयों को इकोफ्रेंडली माना जा रहा है।
इस संबंध में समूह की सदस्या नरेश्वरी कोटवार दीये बनाने की प्रक्रिया के संबंध में कहती हैं कि सबसे पहले गोबर को सूखाकर उसका पाउडर बना लिया जाता है। फिर करीब ढाई किलो गोबर के पाउडर में एक किलो प्रीमिक्स (गोंदनुमा पदार्थ) मिलाया जाता है। जिसे गीली मिट्टी की तरह अच्छे से मिश्रण करने के बाद इसे सांचा और हाथ की सहायता से खूबसूरत आकार दिया जाता है। इसके बाद दो दिनों तक धूप में सुखाकर अलग-अलग रंगों से सजाया जाता है। समूह की अन्य महिलाएं मालती बाई, कमलाबाई, तथा सोनबत्ती का कहना है कि दीये को बनाने में ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ती है, यह कम समय में आकर्षक बन जाता है। जिसके कारण हम अपने घर-परिवार की ज़िम्मेदारियाँ भी आसानी से निभा पा रहे हैं। उन्होंने बताया कि प्रत्येक दीये पर समूह के सदस्यों को दो रुपए की अतिरिक्त कमाई भी हो रही है।
कृषि विभाग में कापसी ब्लाॅक के नोडल अधिकारी आर के पटेल ने बताया कि डोण्डे कृषक कल्याण समिति में कुल 25 सदस्य हैं। जिन्हें गोबर से दीये बनाने के लिए पहले जिला प्रशासन के द्वारा प्रशिक्षण दिया गया और विभिन्न उत्पादों के सांचा उपलब्ध कराए गए हैं। जिसके बाद से वह इस कार्य में लगे हुए हैं। समूह के द्वारा रोजाना 2000 से 3000 दीयों का निर्माण किया जा रहा है। प्रत्येक दीयों को बनाने में दो रुपए की लागत आती है जिन्हें बाजार में 4 रूपए प्रति दीये के हिसाब से बेचते हैं। समूह का लक्ष्य दीपावली तक डेढ़ लाख दीये बनाकर बेचना है। उन्होंने बताया कि डेढ़ लाख दीये बेचने पर समूह को 3 लाख रूपए का मुनाफा होगा। इस प्रकार न केवल इन्हें अच्छी आमदनी हो रही है बल्कि घर बैठे रोज़गार भी प्राप्त हो रहा है।सूर्यकांत देवांगन
कांकेर, छत्तीसगढ़
(चरखा फीचर)
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